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प्रभाग-07 बाल काण्ड रामचरितमानस

 शिवा शंभु के जन्मान्तर के प्रेम में पारिवारिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का सम्मिश्रण और राम तत्त्व का अनुसंधान एक महान सन्दर्भ है । पुनः उसी की जिज्ञासा पार्वती ने महादेव जी के समक्ष रखी । उन्होंने कहा अब मुझे रामजी की महानता पर सन्देह तो नहीं , किन्तु उनके अवतार का इतिहास अपने विचार से समझाइए कि किस हेतु निर्गुण राम सगुण रुप धारण किये । ऐसे विषय से जुड़े कई अन्य प्रश्न भी रखे जिन्हें भगवान ने बड़े हर्ष के साथ पार्वती जी की सदिच्छा और वेद पुराण , संत संसर्ग के सार का अभिप्राय है , उसे समझाने के लिए राजी हो गये ।

 उनके विचार में सृष्टि से आजतक राम के अनंत स्वरुप , अनन्त लीलाएँ , अनन्त नाम , अनन्त प्रभाव , अपार गुण और अपार शक्ति का वर्णन विभिन्न कालों में विविध देवताओं , कवियों , संतों और महर्षियों ने जिन – जिन ग्रंथों में किया है वह अगम , अवर्णनीय और असीम है , फिर भी कुछ संदर्भो में सकारण विवरण के साथ अवतार की कथाओं का चित्रण महादेव जी के मुख से हुआ ।

 राम जन्म के अनेकों कारण है जो एक के बाद हर दूसरा अति विचित्र है जिनमें से एक दो कथाओं का वर्णन करूँगा । भगवान विष्णु के सर्व प्रिय दो द्वारपाल थ जिनका नाम जय आर विजय था । ब्राह्मण के शाप से दोनों भाईयों को राक्षस रुप तामसी देह धारण करना पड़ा दोनों के नाम क्रमशः हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष था । ये दोनों ही देवताओं की शक्ति के लिए चुनौती बन गये । बराह रुप धारण कर भगवान ने हिरण्याक्ष को मारा तथा हिरण्य कशिपु को नृसिंह रुप ग्रहण कर मारा तथा भक्त प्रहलाद के यश का विस्तार किया । फिर ये दोनों रावण और कुंभ कर्ण नामक दो भाई बड़ा वीर विजयी राक्षस इसलिए हुआ कि ब्राह्मण का शाप तीन जन्मों में समाप्त होता है । उनके हितार्थ परम भक्त कश्यप और अदिति के पुत्र दशरथ हुए जिनकी पत्नी कौशल्या थी । एक कल्य तक देवताओं को दुखित देख कर भयभीत रहे । जालन्धर नाम के राक्षस से सभी देवगण परास्त होते गये । जालन्धर की पत्नी विन्दा सती महिला थी । उसके व्रत के बल से जालन्धर की हार नहीं होती थी । देवताओं ने छलकर उसका सतीत्व हरण किया और जालन्धर मारा गया , किन्तु देवताओं ने उसे शाप दिया , जो रावण बनकर जन्म लिया । उसी रावण को मारने के लिए कौशल्या के गर्भ से राम का अवतार हुआ जिनके द्वारा रावण का वध हुआ । इस प्रकार प्रमाणित हुआ कि विष्णु भगवान के अवतार की कथाएँ कवियों द्वारा अनकों बार प्रस्तुत किये गये ।

 एक बार मुनि नारद ने भी भगवान को शाप दिया । इस बात को सुनकर फिर पार्वती जी ने भगवान शंकर जी से पूछा कि जिस प्रकार नारद मुनि ज्ञानी थे तो भगवान विष्णु कोई मूर्ख भी तो नही थे , फिर उन्होंने भगवान को क्यों शाप दिया ? इसके उत्तर में भगवान शंकर बोले कि यह प्रश्न ज्ञानी और मूर्ख होने से संबंध नही रखता । भगवान जैसा चाहते है वैसी ही प्रेरणा देते है । प्रसंग इस प्रकार है । मान और मद ये दो विषय मनुष्य को अवश्य ही गढ़े में गिराते हैं जिनका परित्याग आवश्यक है । दैविक और दानवीय कम अलग – अलग रूपों में अपना अस्तित्त्व प्रकट करते हैं । उनकी अपनी – अपनी मान्यता है । धर्म का मार्ग कल्याणकारी है जबकि अधर्म या पापकर्म से जगत का अकल्याण होता है । जब – जब और जैसे – जैसे धर्माचरण में गिरावट आती है , पाप में प्रवृति होती है तो राक्षसों , पापियों और घमंडियों की संख्या बढ़ती है । एक दिन जब संकटमय परिस्थिति आती है तो एक महापराक्रमी धर्म रक्षक की आवश्यकता इस धरती पर पड़ती है । यह आर्ष वाणी है और व्यावहारिक जगत में प्रत्यक्ष देखा भी जाता है । सिर्फ विद्यार्थियों में ही नहीं , धर्मात्माओं , देवताओं , मुनियों मनोषियों मे भी दष्प्रवृत्तियाँ सिर उठाती हैं तो उनमें सुधार या समाज को उनके दुष्प्रभावों से बचाने की बात उठनी स्वाभाविक होती है । राम जन्म के कारणों के बीच एक ऐसे प्रसंग आये है जहाँ ज्ञानियों , देवर्षियों में विचलन देखे गये है और उनके परिणाम भी , इनके गूढ रहस्यों को समझना भी आवश्यक है । कवि तुलसी दास ने उन्हें भी समाज के सामने रखा है ।

 याज्ञवल्क्य जी कहते है कि हे भारद्वाज ! आदर पूर्वक आप सुनिये । मान और मद को छोड़कर सृष्टि में आवागमन का नाश करने वाले श्री रामचन्द्र का ही गुणगान आवश्यक है ।

 हिमालय की गुफा से एक देव नदी निकलती है । उसे देखकर नारद मुनि को बहुत सुन्दर लगा । उस सुरम्य आश्रम को पाकर वे विष्णु भगवान का स्मरण करने लगे । दक्ष प्रजापति के शाप वश नारद सदा भ्रमण ही करते रहते थे किन्तु उस स्थान की रमणीयता को देख उनका मन स्थिर हो गया और उन्हें समाधि लग गयी । उनको अचानक तपस्या में रत पाकर देवराज इन्द्र भयभीत हो गये । उन्होंने कामदेव को बुलाकर पूरी आवभगत की तथा निवेदन किया कि वे उनके हितकार्य में सहायक बनकर नारद मुनि की समाधि भंग करें । प्रसन्न होकर कामदेव आज्ञा पालन में जुटे । देवराज को अपनी गद्दी छिन जाने का भय सता रहा था । जो कामी और भोगी होते है वे कौवे की भाँति कुटिल होते हैं । डरते रहते हैं । कुत्ता अगर सूखी हड्डी अपने मुँह में लिए हो और सिंह को देखकर भाग चले कि कही सिंह उसे झपट न ले , उसी प्रकार का डर इन्द्र के हृदय में समा गया ।

 कामदेव के द्वारा नारद मुनि के आश्रम में प्रवेश करते ही वसंत छा गया । कामाग्नि को तीव करने वाली रंगीनिया चारों ओर छा गयी । काम कला के सारे प्रयास विफल होने पर कामदेव को अपने नाश का भय होने लगा । वह मुनि के पास जाकर शरणागत हो गया । भगवान विषणु जिसके रक्षक बने उसकी सीमा को ( मयार्दा का ) कोई दवा नहीं सकता है । नारद जी को कामदेव पर क्रोध नही आया । उन्होंने सुन्दर शब्दों द्वारा उसके भय का हरण किया । तब कामदेव इन्द्र जी की सभा में पहुँच कर सारा वृतांत सुनाया । इससे सभी प्रसन्न हुए और भगवान विष्णु की बड़ाई की ।

 इधर नारद जी ने शिवजी से अपनी सफलता पर चर्चा की किन्तु उन्होंने नारद जी को सावधान किया कि इस रुप में कभी कोई बात भी उठे तो भगवान विष्णु से छिपा लीजिए । इसमें आपका ही कल्याण होगा किन्तु उन्हें तो अपने मान का मद डंस लिया था , उनहें शिवजी का उपदेश अच्छा न लगा । तब याज्ञवल्क्य मुनि ने भारद्वाज जी को कहा कौतुक देखिये मुनिवर इस को देखिए हरि इच्छा बलवती है । वे जो चाहते हैं वही होता है ।

 अब नारद जी ब्रह्मा जी से मिले । उन्होंने भी यही बात कही उन्हें तो अपनी मर्यादा असहय हो रही थी । एक बार ये वीणा बजाते हुए हरिगुण गाते क्षोर सागर में श्री हरि से मिलने पहुँच ही गये और जो कहना था सब कुछ कह गये । सुनते ही विष्णु जी का शरीर सूख गया किन्तु मधुर स्वर में नारद जी को समझाया कि आपके स्मरण करते ही काम , क्रोध , मोह , मद और अभिमान मिट जाते है । उस पर झट नारद जी ने कहा सब कुछ आपही की कृपा से हुआ । भगवान को लगा कि उनके मन में अभिमान का बड़ा पौधा अंकुरित हुआ है उसे छोटे पन में ही उखाड़ कर मुनि का कल्याण करूँगा । हमारा प्रण तो सेवकों , भक्तों का कल्याण करना ही है । मैं अब वही करूँगा जो मेरे लिए एक तमाशा मात्र होगा किन्तु इनके लिए बड़ा उपकार होगा । भगवान ने तुरंत ही अपनी माया का विस्तार कर रास्ते में ही एक बड़ा सा नगर रच दिया जो विष्णु जी के निवास से कई गुणा सुन्दर था । उस नगर के राजा का नाम शीलनिधि था । वह सौ इन्द्र के समान वैभव वाला था । उसकी पुत्री विश्वमोहिनी थी जिस के रुप को देख लक्ष्मी जी भी मोहित हो जाती थी । राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला था । इसमें भाग लेने बहुत से राजा महाराजा पहुँचे हुए थे । नारद तो कौतुनी थे ही , उन्होंने नगर के लोगां से जा पूछा । पता मिलन पर मुनि राजा से मिले । शीलनिधि ने उन्हें पूजाकर आसन पर बैठाया । राज कुमारी का गुण दोष विचारकर कहने का निवेदन किया । राजकुमारी को देखते ही उनके वेराग्य का अभिमान हवा हो गया । हृदय में इतनी खुशी पायी कि प्रकट रुप में कुछ नही कहा । सब कुछ विचार कर मन ही मन गुप्त रखा और कुछ बातें बनाकर राजा को कहकर कि राजकुमारी बड़ी सुलक्षणा हैं मन में विचारते हुए नारद चले ।

 चौ ० जो एहि बरई अमर सोइ होई । समर भूमि तेहि जीत न कोई ।।

 सेवहि सकल चरार ताही । बरई शील निधि कन्या ताही ।।

 करौ जाइ सोइ यतन विचारी । जेहि प्रकार मोहि बैर कुमारी ।।

 जप तप कुछ न होई तेहि काला । हे विधि मिलई कवन विधि वाला ।।

 इस समय तो शोभनीय और विशाल रुप चाहिए ताकि स्वयंवर में दुल्हन जयमाला उसके गले में डाल सके । इसके लिए मुनि नारद भगवान विष्णु पर ही विश्वास कर याद किया । वे प्रकट हुए नारद मुनि ने आर्त भाव से अपने हितार्थ निवेदन किया तब लक्ष्मी पति ने गूढ बचन कहा :-

 जेहि विधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।

 सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ।।

 कुपथ मांग रुज व्याकुल रोगो । वैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ।।

 एहि विधि हित तुम्हार मै ठयउ । कहि अस अन्रहित प्रभु मयउ ।।

 माया विवस नये मुनि भूढा । समुझि नही हरि गिरा निगूढा ।।

 गवने तुरत तहाँ रिषि राई । जहाँ स्वयंवर भूमि बनाई ।।

 ऐसा हुआ कि नारदजी विश्वास के साथ विवाह मंडप में इत – उत जहाँ कहीं विश्वमोहिनी वर चुनने हेतु बढ़ती उसी ओर आगे नारद मुनि खड़े हो जाते । उनकी कुरुप मुखाकृति को देख दूर हट जाती । जब शंकर जी के गण उनकी खिल्ली उड़ाते थे । नारद उसे समझ नहीं पाते थे । इसी बीच राजा के रुप में पीताम्वर धारी लक्ष्मी पति सम्मुख खड़े हुए । विश्वमोहिनी जयमाला डाल दी और वे उसे लेकर बढ़ चले । तब उदास नारद को गणों ने कहा कि जाकर जल में अपनी मुखाकृति तो देख लीजिए । वास्तविकता जानकर मुनि नारद क्रोधाग्नि में जल उठे । उन्होंने पहले तो शंकर जी के गणों को राक्षस होने का शाप दिया और पैदल ही विष्णु जी के निवास की ओर बड़ते हुए सोच रहे थे कि जाकर उन्हें भी शाप दे दूं या स्वयं मर जाउँ । कमलापति , लक्ष्मी और विश्वमोहिनी सहित रास्ते में मिले और नारद जी से पूछा कि व्याकुल हृदय आप किधर जा रहे हैं ? सुनते ही नारद अत्यन्त क्रोधित हुए । माया के वशीभूत उन्हें ज्ञान ही कुंठित हो गया । भगवान विष्णु को उन्होंने कहा कि जैसा आपने मुझे बन्दर का मुखरा देकर विश्व में अपमानित किया है वह बन्दर ही आपके सहायक बनेंगे साथ ही जैसे आपने मुझे तड़पाया है वैसे ही पत्नी के वियोग में आप भी दुखी होंगे । शाप सुनकर भगवान हृदय से हर्षित हुए । उन्होंने नारद जी से बहुत विनती की और अपनी माया जनित प्रबलता उठा ली । अब तो न वह नगर रहा , न राजाशीलनिधि और न विश्वमोहिनी ही रही । नारद जी के मोह का कुहरा फट गया । वे अपनी भूल पर पश्चाताप करने लगे और कहा कि वैसा करे जिससे मेरे द्वारा दिया गया शाप विफल हो जाय ।

 श्री हरि ने शंकर जी के राम नाम का जप करने का आदेश किया जिससे उनके दिल को शान्ति हो । प्रणत पाल भगवान ने कहा कि भगवान शंकर की कृपा के बिना किसी को मेरी भक्ति प्राप्त नही हो सकती । आप जाकर धरती पर निर्भय विचरण करें । अब आपके समीप माया नही पहुँच सकती । ऐसा कहकर श्री हरि नारद जी को ढाढ़स बढ़ाया और अपने लोक को चले गये और नारद ब्रह्मलोक । जब शंकर जी के गणों ने रास्ते में नारद जी को मोह रहित प्रसन्न मुद्रा में पाया तो डरते – डरते उनके पास गये और दुखी होकर कहा – हे नारद जी , हम ब्राह्मण नहीं , शंकर जी के गण है । हमने जो पाप किया उसका फल तो मिला , अब आप मेरे शाप पर कृपा कीजिए । नारद जी ने कहा तुम दोनों राक्षस हो जा तुम्हें विपुल वैभव हो , तेज और बल भी हो । अपने भुज बल से जब पूरे विश्व को अपने अधीन कर लोगे , उस दिन भगवान का जन्म होगा । युद्ध में उन्ही भगवान के हाथों तुम्हारा मरण होगा तुम मुक्त हो जाओगे फिर तुम्हारा संसार में आना जाना छूट जायेगा । दोनो मुनिवर को प्रणाम कर चले गये । समय आने पर दोनों राक्षस हुए । एक कल्प में इसी कारण भगवान ने मानव तन धारण कर देव और सन्तों का हित करते हुए भूमि का भार हरण किया । हर कल्प में भगवान अवतार लेते रहे और विविध प्रकार के सुन्दर चरित्र अपनाते रहे । उनकल्पों के पूरे जन्म की कथा कवियों ने मुनियों को जाकर सुनाया जिसमें किसी को आश्चर्य नहीं । भगवान की अनन्त कथाएँ प्रचलित हैं , जिन्हें सन्त पुरुष अनेकों प्रकार से कहते सुनते हैं । पार्वती जी को भगवान शंकर ने समझाते हुए स्पष्ट समझाया कि भगवान की माया के वश में ज्ञानी मुनि की फंस जाते हैं । प्रभु लीलामय होकर जगत का कल्याण करने वाले है । मानव मुनि और देव में कोई ऐसा नही , जो इस माया में नही पडा हो । इस हेतु सबको भगवान में भक्ति चाहिए ।

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