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महानता की पृष्ठभूमि में प्रेम और सदभाव

Dr._g._bhakta_article

हम अपने सामने हाथी को एक विशाल जानवर के रुप में पाते हैं । चीटी उसकी तुलना में सहस्यांश या लक्षाश छोटा हो सकता है । हम चींटी को जितना व्यस्त पाते हैं उतना हाथी को नही । परन्तु कर्म सबसे जुड़ा है । हर कर्म के साथ उद्देश्य जुड़ा है । एक कर्मठ और एक आलसी । दोनों में अन्तर दीखता है । इस अन्तर को स्पष्ट करना एक चिनतन है ।
 कर्ता और द्रष्टा में भी अन्तर है । कर्ता का उद्देश्य और लक्ष्य करते जाना है । अनवरत क्रियाशीलता एक पुरुषार्थ है । किन्तु आलसी कर्म से पिछड़े लगते हैं । उनकी मानसिक और क्रियात्मक स्पन्दन कुंठित से लगते है । हम उनमें गतिशीलता नहीं पाते । लगता है उनके जीवन में कार्य का कोई महत्त्व ही नहीं । उनपर हमारा ध्यान जाता है , किन्तु ठहर नही पाता । वहाँ कोई गतिविधि नहीं दिखती । उनकी मानसिक और शारीरिक क्षमता या विचार भावना का अनुमान नही किया जा सकता । इस विषय पर भी विचारा जा सकता है किन्तु विचार को जगाने पर भी विचारा जा सकता है किन्तु विचार को जगाने वाला कोई लक्षण वहाँ स्पष्ट नहीं दिख रहा , तो चिन्तन का आधार क्या हो ?
 दुनियाँ को तो हम देख रहे है किन्तु उसके मे को टटोलने का आधार क्या बने कि हम अपना चिन्तन बढ़ायें । जिन्दगी जीना अवश्य ही कोई लक्ष्य लेकर बढ़ता है । उसकी कोई न कोई आवश्यकता , भूख या मनो भावना ही उसे प्रेरित कर कर्म की ओर अग्रसर कर पाती है । यह जीव का लक्ष्य है जिसके मूल है । अन्य जन्तु जन्म के साथ उठने का प्रयास करते हैं । हिलते – डुलते आगे बढ़ते हैं । गति ही उनकी सजीवता दर्शाती है । वैसे ही उनके कर्म हम बहुत सारी सूचना देते हैं । सीख देते है । उससे उनकी पहचान बनती हैं ।
 जीवों में प्रवृतियों के पीछे उद्देश्य निहित होता है । कर्म ही उनकी प्रवृतियों की व्याख्या ह । उपलब्धि उसके जीवन के सार बनते हैं । उस सार रुप कर्मोपलब्धि पर हम सबका ध्यान जाता है । चयनात्मक दृष्टि से दुनियाँ उसे सार्थक या निरर्थक ( अनुपयोगी ) मानती है । सार्थकता हमें आकृष्ट करती है । अनुपयुक्त को हम छोड़ चलते हैं ।
 यहाँ कर्म , भाव , प्रवृति , लक्ष्य , उपलब्धि , उसकी , पहचान , उपयोग और महत्त्व ये सारे शब्द जीवन से जुड़े लक्ष्यों का रहस्य खोलते हैं । सकारात्मक और नकारात्मक उनके परिणाम हमारे चिन्तन के विषय बनते है । सकारात्मक से महानता का निर्धारण होता है । कर्ता का उसके कर्म से लगाव तथा दृष्टा का उसके प्रति आकर्षण ही प्रेम और सद्भाव के सूचक बनते हैं । यहीं पर हम महानता की पृष्ठभूमि पाते हैं । विश्व इसी पर टिका हुआ है । इन दो शब्द प्रेम और सद्भाव की सार्थकता महानता के मार्ग और दिशा निर्धारित करते है|
 अगर हमारी सोच सार्थकता का भाव लेकर चिन्तन को गति दे तो सारा संसार सुन्दर सुखद और समुन्नत दिखेगा । यही भाव मानव को सम्मान दिला पायेगा । खुशियों का साम्राज्य छा जायेगा । न रोग होगा न शोक । न चिन्ता न व्यथा ।
 मानव तो चेतन प्राणि है । ज्ञान उसका प्रकाश है । इन्द्रिया उसके यंत्र है । अपने ज्ञान को व्यावहारिक स्वरुप में उतारना ही जगत के प्रति प्रेम और सद्भाव है । जो अपने ज्ञान को अपने कर्म को कलात्मकता से अलंकत कर पाये उसे क्यों न संसार सराहे । यही है महानता की सही पृष्ठभूमि ।
 जब समाज को नेतृत्व की आवश्यकता पड़ी तो एक क्षेत्र निर्धारित हुआ और उसके राजा मनोनीत किये गये । जब जनता में महत्त्वाकांक्षा का उदय हुआ तो राज्य भी बँटा और राजा भी बढ़ते गये । उसी प्रकार जब सुख और उसके साधान बढ़े तो प्रतिदृढ़िता में भोगवादिता का हिस्सा काम करना प्रारंभ किया जो विषमता की आग पैदा की तथा उसकी लपट मन में स्वार्थ रुपी जलन से जन – मन को जला दिया । फिर दूसरे को अपने सामने सुख से सोते , खाते पहनते और जीते कौन देखना चाहे ?
 तो साम्राज्यवाद जन्मा लड़ाइयाँ आक्रमण……. क्या – क्या न आया । आज तो जनतंत्र भी उससे अछूता न रहा । समाज से अगर सामाजिक सरोकार घटा तो राजनीति से जन आकांक्षा को समादर नहीं मिल रहा , तक तो जनमत कमजोर पड़ती जा रही और गठबन्धन की सरकार ही इस परंपरा की नियति बन रहीं । ध्यान से सोंचे तो ये गठबन्धनवाले कौन हैं , समझ में आ जायेगा । वे वही है जो कभी सता में रह कर अगली चुनाव में हार चुके हैं । भाव है कि किसी प्रकार वे बने रहे । नये का आगमन निषेध हो । सद्भाव की समाप्ति में महानता की गंध गायब हुयी ।

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