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हमारा परिवेश चिन्तन की कड़ियाँ

जीवन के आयाम में बदलाव आना सकारात्मक घटना है , जिसे हम जागृति कह सकते हैं । इसी बदलाव की प्रक्रिया में हमे अपने परिवेश के हर पहलू पर गौर करने की आवश्यकता होगी । तत्संबन्धित परिणति पाने की प्रत्याशा में यह रचना पाठकों के बीच सादर समर्पित है ।

अखिल ब्रह्माण्ड में पृथ्वी पर ही जैविक सृष्टि का प्रमाण अबतक की खोज में प्राप्त है । फिर सृष्टि में मानव , मानव में चेतना चेतना , में वाणी , वाणी के साथ अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति में आदर्श चिन्तन और लक्ष्य आयाम फलित हुए ।

सृष्टि एक रहस्यमयी घटना है । यह घटना भी बहुआयामी रुपों में घटित हुयी । सभी घटनाओं ने अलग – अलग रूपों में स्थान ग्रहण की जिसे हम कालक्रम के रुप में परिभाषित करते और इतिहास रचते !

मानव ने जबसे धरती पर पाँव रखा तो उसने मात्र अपने आप को ही नहीं पाया । उसके परिवेश रुप में प्रकृति पहले से सर्वत्र व्याप्त और गतिमान जीवन्त स्वरुप में अनन्त भूमिका में प्रस्तुत पायी गयी । चेतन मानव को प्रकृति ने जो सम्वेदना दी , उसके आलोक में उसने बाहरी परिवेश और अन्तर्मन में झांकना प्रारंभ किया जिसे हम चिन्तन कहते हैं । अपनी चेतनावस्था में उसने विश्व को दो रूपों में अपने पास पाया । प्रथम तया उसे अपना विषम बनाया तथा दूसरे क्षण उसे अपने जीवन की भूमिका में सहायक पाया । इससे भी आगे अपने आत्यंतिक चेतन यात्रा में निजत्व की पहचान पाकर एकाकार हुआ । हम उसे आत्म साक्षात्कार कहते हैं । इस तरह प्रकृति और सृष्टि का तारतम्य अन्योन्याश्रित सिद्ध हुआ ।

आज हम सामान्य भाषा और व्यावहारिक जीवन के अनुभव से मनुष्य को सामाजिक प्राणि कहकर चिन्तन की इतिश्री कर देते है , इतना ही सब कुछ नही है । बहुत कुछ हम पाते और देखते समझते हैं । प्राचीन आर्ष मनीषा और परवर्ती पौरुषेय पराक्रम और प्रयास अभ्यास का परिणाम रुप ज्ञान ग्रंथमालाएँ विश्व बाडमय में बिखरी मार्गदर्शन दे रही है ।

मानव का धरती पर प्रथम प्रयास अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में प्रारंभ हुआ । पूर्वापर प्रयासों में प्रगति के प्रतिफलन से प्रस्फुट प्रेरणा पल्लवित हुयी । सभ्यता संस्कृति के उद्भव के साथ समृद्धि , सम्मान और अपार यश उसके चरण चूमें । शास्वत चिंतकों ने भावजगत में यात्राकर ज्ञानात्मक कोष एकत्र किया एवं जगत के कल्याणार्थ पारमार्थिक लक्ष्य का निर्धारण किया । परिणामतः मानव सृष्टि का शिरमौड़ साबित हुआ ।

कालान्तर में भोग की वंशावली खड़ी हुयी । भोग ने संग्रह ( परिग्रह ) को जन्म दिया । परिग्रह ने स्वार्थ को , स्वार्थ ने लोभ और मोह को । इन दोनों की दो – दो सन्तानें उत्पन्न हुयी । लोभ के असंतोष ( पुत्र ) और तृष्णा ( पुत्री ) , उसी प्रकार मोह के दो पुत्र राग और देष हुए । राग की पुत्रियाँ ममता और घृणा तथा द्वेष के दो पुत्र – विरोध और युद्ध हुए । इस तरह परात्पर परिस्थितियों ने कालान्तर में हमारी संस्कृति को रुग्न कर डाली जिनके गुणित दुष्प्रभावों ने सृष्टि को ही सर्वनाश की ओर धकेला । पुनश्च वंशावली की शब्दावली ने चारित्रिक रुप से प्रवृत्ति में व्यक्तिकृत होकर मानव जाति को प्रभावित कर रखी है ।

सुधार के प्रयास अपेक्षित थे । जागतिक कल्याण भावना और पारमार्थिक मार्ग का निरुपण धर्म , आध्यात्म , नीति , अनुशासन , राजधर्म , न्याय , दण्ड आदि का विधान भी फलित हुआ । मानव उनके आलोक में सम्बल पाकर सम्हला । तदन्तर हमारी संस्कृति में शुभाशुभ परिवर्तनों की आँख मिचौनी चल रही है ।

सम्प्रति प्रस्तुत है हमारा परिवेश , चिन्तन की कड़ियाँ जिसमें मानव जीवन दर्शन की व्यंजना की गयी है और समाज , राष्ट्र एवं समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ मार्ग प्रशस्त किया गया है ।

( आगे क्रमशः )

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