Fri. Apr 26th, 2024

 अनुनय विनय

 हे प्रभु ! आपकी कृपा और अपने सौभाग्य से आर्यावर्त की धरती पर जन्म लेकर कृतार्थ हुआ । यह आपकी महिमा का ही प्रसाद है कि इस जम्बूद्वीप के महीपों द्वारा अर्जित सभ्यता – संस्कृति और ऋषिमनीषियों द्वारा रचित ज्ञान विभूति से गौरवान्वित रहे । इस शस्य – श्यामला भूमि पर अन्न , फल , औषधि , रत्न , खनिज , वन , पर्वत , सरिता , सागर की समृद्धि से विज्ञान , कला , तकनीक , तीव्र गति के यातायात , सन्साधन , संयत्र , उपकरण , से परिपूरित प्रतिष्ठान , उपादान , प्रसाधन के विपुल भंडार पाय । अपार जनशक्ति , उर्वर भूमि , अपरिमित खनिज द्रव्य , ज्ञान – वैभव और समृद्ध संस्कृति भी ।

 किन्तु रत्न गर्मा , अनपूणा , जगदरु सोने की चिड़िया , देव एवं वेद भूमि भारत की नारकीय दशा का कारण आसुरी दमन , दोहन , शोषण और चारित्रिक अवरोहन ही रहा । दुनियाँ की दृष्टि का कोप भाजन आज अपनी शुचिता तक खो डाला । राष्ट्रीय मर्यादा का क्षरण , शिक्षण में अवमूल्लयन , एकता का विखण्डन , संगठन में विघटन और जनमत में गठबन्धन तक की दशा देखी जा रही । राजनीति में सत्ताभोग और स्वार्थ छा गया , जनआकांक्षा को अवसर न मिल पाया , प्रभूत भौतिक विकास में न भूख की ज्वाला मिटी न संतोष पैदा हुआ , आज उतना सब कुछ हो रहा , जितना रावण के राज्य में भी नहीं हुआ ।

 हम नत मस्तक है अपनी अतीत की ओर झाँक कर कि राम की मर्यादा को भारत की धरती पर बढ़ – चढ़ कर प्रतिष्ठित करने वाले बापू के राम पर जो तीन गोलियों की व्यथा से निकले तीन अक्षर ” हे राम ” के आर्त स्वर गुंज ही रहे है । … परन्तु भारत वासी यह याद कर भी दुखी है कि उनके धनुषधारी राम अपनी जन्म भूमि पर झाँक नहीं रहे ।

 हे करुणा निधान , दुष्ट दलन , दुख भंजन , जन – मन – मंगल – दायक ! हे रधुनायक ! कृपा के सागर आपने बार – बार इस धरती को पवित्र किया है । आज भारत ही नहीं सारी सृष्टि प्राकृतिक , नैतिक , औपचारिक , राजनैतिक , आध्यात्मिक , धार्मिक , आत्मिक , सामाजिक , जनहित और ब्रह्माण्ड तक को प्रदूषण से विनाश की ओर बढ़ा रहा है । एक पवित्र और प्रबल नेतृत्व प्रदान कर अपनी सृष्टि को अपकर्ष से निवारें और हम भारतीयों को कृतार्थ करें ।

 इससे किंचित आगे बढ़कर मेरा आग्रह है कि आज आपके भक्त माने जाने वाले भारतीय युवा पीढ़ी अपनी वैदिक और धार्मिक गरिमा के साथ नैतिक और चारित्रिक शुचिता खो रहे हैं तथा उपभोक्तावादी दृष्टिकोण धारण कर विषपान तक करते नही संकोच कर पाते । सद्शास्त्रों तक की बात नही , पाठ्य पुस्तकों तक के शिक्षण , आचरण , अनुशासन और कर्त्तव्य पालन को पीछे छोड़ रहे हैं । मैने उनके लिए शिक्षा की अधोगामी प्रवृति पर रोक का शोधात्मक विधान किया है तथा रामचरित मानस को अपनी स्वमति अनुसार सरल और सुगम बनाने का एक छोटा – सा प्रयास किया है । जनभावना और संस्कृति के आलोक में मेरी त्रुटियों के प्रति क्षमा प्रदान करते हुए अपनी कृपा से जनहितकारी प्रयास को सफलता से भूषित कर कृतार्थ करेंगे ।

 ( डा ० जी ० भक्त )

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *