आधुनिक युग की स्वास्थ्य समस्या और चिकित्सा विधान
डा० जी० भक्त
सीधे तौर पर विचारको ने जीवन की तीन ही आवश्यक आवश्यकताएं बतायी। वे थे भोजन, वस्त्र और आवास उस काल में जीवन इतना कठिन था जितना आज के विकसित युग में विकास से अधिक जटिलताएँ जोर पकड़ रही है हमारे जीवन के दायरे इतने स्वरूप लिए उमड़ रहे है उनकी आपूर्ति के विविध आयाम मानव को जितना वेचैन कर रख है उससे जटिलताएँ और परेशानियाँ खड़ी हो रही है।
आवास व्यवस्था का आधुनिकीकरण, शहरीकरण यातायात और वाणिकी, उद्योग, चिकित्सा, प्रसाधन, खाद्य प्रसंस्करण, संरक्षण तथा उसके पूरक पदार्थों की उपयोगिता शुद्धता, गेंदगी निवारण, जल प्रदूषण, नाले, रासायनिक निकोप धूम मच्छड़, जीवाणु एवं कार्बनिक उत्सर्जन में जनसंख्या विस्तार से उत्पन्न होने वाली समस्याये एलेक्ट्रोनिक ऊर्जा का निच्छेष युद्ध और अन्तरिक्ष से आने वाले पदार्थ बाढ़ भूचाल और अकाल जैसी विपदाएँ जीवनोयोजी दिनचर्या में प्रयुक्त सामग्रिया में मिलावट और शरीर के संस्थानों पर उनका दुष्टभाव आदि समस्यायों के पहाड़ सृजित कर रहे हैं उनपर विजय पाना भी उत्तना ही कठिन और आर्थिक बोझ डालने वाला है। उसके अनुपात में पारिवारिक और सरकारी आर्थिक क्षमता पिछड़ती पायी जा रहा जिससे समाधान की सम्भावना नही दिखती ।
निदान के उपाया पर विवारा जाय तो उनके विधान से जोड़ना प्रथमतया विकास और विज्ञान पर नियन्त्रणात्मक सोच लेकर चलना और जनसंख्या के अनुपात को भी ध्यान में प्रमुखता वरतनी जरूरी होगी विकारों के कचड़े कहा डाले जाएगें और विचारों की मान्यता और मानसिक आवेग को कौन-सी दिशा दी जाय। अगर विकल्प पर विचारें तो पूर्व कल्पित सभ्यता संस्कृति को कहाँ स्थापित की जाय ?
कृषि, आवास, उद्योग, वाणिज्य, यातायात की नितान्तता का क्या विकल्प होगा ? जबकि विकल्पों पर चिन्तन जारी है। यह विषय जिन से सीधा सम्बन्ध रखता है हम बहुत दूर पहुँच चुके है तथापि विश्व की अवश्यकता के अनुरूप हमारी उपलब्धि नहीं है। जनसंख्या परिसीमन शब्द पर समाधान पाना एक अचिन्त्य चिन्तन है।
मानव संसाधन, चिन्तन, सृजन, समंजन और समाधान में व्यक्ति समाज और सत्ता के संचालक ही सर्वोच्च, समर्थ, जिम्मेदार होते है व्यक्ति अगर स्वतः चाहे तो अपने बल वैभव और विधि-विधान पर सुखद जीवन जी सकता है जीता भी था। इसमें कोई विरोध नहीं समाज की सोच में क्रियात्मक और भावनात्क एकता का अभाव है। सरकार की सोच को एक अस्थिर और विरोधभासी प्रयास मानते हैं।
अबतक स्वाधीनता और स्वालम्बन प्रश्न सूचक दुनियाँ में विचर रहा है गरीबों का जीवन विपन्नता में भी सम्बन्नता है क्योंकि उसकी आवश्यकताएँ अपेक्षाकृत कम है। एक श्वत सोच है कि आत्मा अमर है और शरीर नाशवान है। विडम्बना है किस अशास्वत शरीर के लिए सम्पूर्ण दुनियाँ व्यस्त है उस अमर शास्वत सत्ता के लिए कोई पत्ता नहीं बोलता । उसके लिए जो कुछ पूजा चढ़ाई जाती है उसका भोग भगवान नहीं, यह देह करता है। सम्पूर्ण त्रिभुवन या चौदहो भुवन की समचर्ता के प्राण मजदूर मानव है।
प्रदूषण पर चिन्तन करने वाले वही है जिन्होंने ऐसे चिन्तनों में मनुष्य जाति को भटकाकर एक योजना तैयार कर लेते और उसकी डालियों पत्तों और रेशा तक को मिलजुकर निगल जाते हैं मजदूर तो मजदूरी भर का नाता रखता है। फल क्या मिलता है ? बाढ़ नियंत्रण और राहत सहायतादि पर जितना खर्च हुआ उससे तो सोने का बाँध बंध सकता था। शहर की सड़के, नालियों और गलियों का दृश्य और जनजीवन का परिदृश्य बरसात में जब सामने आता है. हमारी सक्रियता का मुआयना करना चाहिए. हम कितने सकारात्मक है।
इन्ही समस्याओं और समाधानों के मध्य हमारे भारत का पंचशील और विश्व का शान्ति प्रयास अपनी गाथा गा रहा है। युद्ध चल रह है। आतंक तो सुना ही जा रहा है। ये संघर्षरत दश जो वैश्विक लिंक से जुड़े होकर विकास और सौहाद को कहाँ छोड़ रखे है?
कोरोना जा नहीं रहा, नये-नये रूप में प्रकट हो रहे उनके दुष्परिणाम चिन्तित कर रहे, तब तक अन्य कई रोग दस्तक दे गये विश्व की व्यवस्था तो स्टार्टअप पर हो ऑन-लाइन चल रहा है। शाही व्यवस्था टंच है। अस्पताल में डाक्टर समय पर मौजूद नहीं, आग लगाने पर दमकल देर से पहुँचा गाड़िया लेट चलती है। इधर मरनेवालों के स्वागतार्थ श्मसानों को स्मार्ट किया जा रहा है। लेकिन बीमारियों का इलाज कुछ खास बाते हैं। रहा है। . इससे अच्छा है कि अगाह कर तो दिया गया कि प्रदूषण फैल रहा है।
आज के बुद्धिमान वही होते हैं जो वुद्धि का व्यापार करते है उसे दलाली शब्द का रूप दिया गया है। आज दलाल की भी कहें या नहीं उसकी अतिशय जरूरी है, चाहे वो बोफोर्स सौदा हो, या बैंक से लोन लेना हो अथवा नौकरी में पैरवी करनी हो। आज तो कृषि राहत के पैसे में भी दलाली है। कैसे न हो, बुद्धि तो आज भी मारी गयी है, पढ़ लिखे भी चालक नहीं। यह पता ही नही था कि दलाली में अच्छालान है मगर जानता तो पढ़ाई पर ध्यान न देकर इसे से श्रेय देता।