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आध्यात्म बोध -2

सृष्टि विधान के विविध आयाम

डा० जी० भक्त

पूर्वांक में ( आध्यात्म बोध- 1 ) सृष्टि को मूल प्रकृति में पंच तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति ( जड़ चेतन ) जगत की सत्ता को गुणात्मक एवं रचनात्मक स्वरुप में माया ही बतलाया गया तथा समष्टि माया का अहर भाव ही ब्रह्म रुप कल्पना स्वीकारी गयी । सृष्टि का यही गुणात्मक और सकारात्मक विविध ही समष्टि जगत में अनन्तता संख्यात्मक और विरातता आकार गत दृष्टिमान जगत में जीवित और पोषित पाये जा रहे हैं ।

हम इसे जैविक एवं ब्राह्मी सृष्टि का नाम चर्चित कर उनके जीवन की आन्तरिक और बाह्य गतिविधियों पर दृष्टिपात करे तो जीवन में चेतना नामक गुण और उससे उपजे भाव एक विचार धारा को जन्म देते है जिसके चिन्तन स्वरुप सुख – दुख की अनुभूति , अभिव्यक्ति भूमिका , भाव ( कारण रुप ) और गतिविधि की अनन्तता को भव सागर रुप संज्ञा देकर उस अगम्य सागर को पार पाना ही आध्यात्म बोध के रुप में भासता है । इस विषय पर वेदादि ग्रन्थों , चिन्तनों , विचार धाराओं , विद्वद वचनो उपदेशों , गुरु शिष्य सम्वादों , तथा सद् संगति क्वचित एकमत तो किंचित मतभेद बतलाते है जो द्वैत एवं अद्वैत के ज्ञान विधान बतलाते हुए सगुण और निर्गुण रूपों का निरूपन कर पुनः समष्टि आत्मा की एकता वैचारिक विविधता एवं सामंजस्य का समवाय एक साथ जीवों ने एक ही ब्रह्म की पहचान स्थापित कर पाना प्रकारान्तर से मोक्ष का मार्ग दूढ़ पाना आसान कर देते हैं ।

जब जीव ( यहाँ मानव पर विचारें ) अपनी चेतना को भौतिक जगत और भाव जगत के बीच तारतम्य या वैषम्य भासता हुआ पाता है तो सृष्टि का कर्ता और उसके संबंध विभिन्न विचारधारा कदाचित मोक्ष का मार्ग बाधित करें ऐ सभी भासता नजर आता है यहाँ शास्त्रों में समानता है किन्तु न्याय शास्त्र एवं अन्य विचारकों के मनोभाव अगर प्रकारान्तर से भिन्नता रखते है तो परात्पर चिन्तनोंपरान्त पुनः एक ही लक्ष्य की सिद्ध पाते हैं , वस्तुतः यह वैचारिक स्तर भेदाभेद का वितर्क प्रखर होता नजर आता है उसका कारण प्रकृति का भौतिक पंचतत्वता , त्रिगुणात्मकता दशों इन्द्रिया 25 प्रकृतियाँ इत्यादि भिन्नताएँ जब अनैतिकता के प्रत्याय बनते किन्तु दैहिक वाह्यी या आत्मा की एकात्मकता में सामन्जस्य भासता है तो वैचारिक द्वन्द मिट जाता है ।

जब ज्ञान के घरातल पर खड़ी जिन्दगी को प्राप्त भौतिक पोषण जब विश्व में व्याप्त ब्राह्मी एकता को स्वीकारता हो यानी हमारा कर्म अगर निःस्वार्थ कल्याणकारी समष्टि आत्मा को पोषित होता पाता है तो यह सीधा संबंध ज्ञापित हो जो मोक्ष का मार्ग कहा जा सकता है । यह ज्ञानात्मक विचार वैभव की देन कही जा सकती है जो सृष्टि मुनियों को वेदान्त जानने वालों को योगियों को आत्मदर्शियों को उपलब्ध होता है । यही जब भूल – भ्रम में फँसा जी , अज्ञानात्मक विधान या भाव के वसीभूत , काम और अर्थ की भोग भूमि पर जीवन की कटीली कंकडीली मरुभूमि या बन स्थली से गुजड़ने को कष्ट समझ उससे मुक्त होना उसे मुश्किल लगता है तो यही जीवन नरक सा अनुभव होता हैं ।

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