आश्विन दशहरा
डा. जी. भक्त
इस पर्व को हम हर वर्ष बड़े हर्ष और श्रद्धा के साथ आयोजित करते हैं । इसका धार्मिक इतिहास है । इसे दूर्गा पूजा , नवरात्रा एवं विजया दशमी के नाम से जाना जाता है । भारतीय हिन्दू परिवार की इसमें आस्था है , लेकिन मैं बहुत सोच विचारकर इसे दूर्गा पूजा प्रकरण की ही संज्ञा देता हूँ । इसे मैं विफल व्रत भी मानता हूँ । इससे मेरी आस्था और आस्तिकता में अन्तर नहीं पड़ता , प्रत्युत मैं इस विन्दु पर नई सोंच को यहाँ स्थापित कर रहा हूँ जिसे अपने समाज में सस्कारिक विसंगतियों के निवारण का लक्ष्य लेकर इस उत्सव को अपनी साधना के अनुष्ठान म स्थान दिया जाना आवश्यक मानता हूँ ।
मै करीब हर वर्ष इस अवसर पर कविता ही रचा करता था किन्तु आज मेरे मन में ऐसा भाव जगा कि जिस विन्दु को आधार मानकर इस त्योहार को सम्बोधित करूँ , वह काव्य की दृष्टि से कहीं कमतर प्रभाव दर्शा पाये तो समयोचित न हो पायेगा विषय है आस्था और महत्त्व की सिद्धि का , जो आज पर्वों में फलीभूत नही पाया जा रहा , वहाँ मात्र औपचारिकता के सिवा और कुछ नहीं दिखता । इस पर आर्थिक और उपभोक्तावादी रंग चढ़ जाता है , तो वास्तविक्ता दूर भागती है ।
आज धर्म और उत्सव में दिखावा अधिक और शुचिता कम है । आस्था में श्रद्धा और विश्वास दोनों ही को स्थान मिला है । हम पर्वो- उत्सवों की मौलिकता पर उतर कर नहीं सोचते , ऐसी स्थिति में त्योहार व्यवहारतया एक आडम्बर मात्र रह जाता है । इस पर्व में कुछ जगहों पर साम्प्रदायिक समूह देवी की पूजा में बलि चढ़ाते और उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करते है । मैं उनकी प्रथा प्रचलन की निन्दा नहीं करता , किन्तु जिन समुदाय में श्रद्धाल इस त्योहार में सात्विकता का हद कर देते और बनावटी शुद्धाचरण अपनाते , श्रावण में महीना भर शाकाहार करते है । दशहरा में दशो दिन मांसाहार , प्याज – लहसन , नमक और कुछलोग अन्न को आहार में न लेकर फलाहार करते हैं । कार्त्तिक भर भी शाकाहार करते है किन्तु त्योहार विसर्जन के साथ ही मांसाहार पर टूट पड़ते है , तो शुचिता उनमें आयी कहाँ ? शुचिता तो सतोगुण को अपनाने से आती है । यहाँ पर यह अवश्य ही विचारणीय और सुधार लाने की आवश्यकता में प्रभुखता अपनानी चाहिए ।
महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि देवी दुर्गा अपने नौ रूपों में आकर नौ दिनों तक असुरों से लड़कर दुराचरण करने वाले का अन्त किया और देशवासी सुधारवादी और कल्याणकारी सन्देश पाकर विजय की प्रसन्नता के साथ प्रपिवर्ष दूर्गा पूजा का संकल्प ले परम्परा को जीवन्त बनाये । आज अगर हम माने कि मानव में भी आसुरी प्रवृत्तियाँ पल रही है जो समाज में दुर्गुणों की सीमा लांघकर रोग , शोक , कष्ट , बध , बन्धन आदि दुष्परिणामों की ओर हमें ले जाते हैं । लोभ , मोह , क्रोध , व्यसन , अपराध , व्यभिचार दुराचारों का वातावरण विस्तार पा रहा है । क्या न हम अपने मन और हृदय में बैठ इन दुश्मनों के निवारण का संकल्प लेकर मां दुर्गा के शरणपन्न होकर आर्तभाव से शुचिता और श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान को भक्ति में सरोवर हो शान्तिपूर्वक सफल बनाएँ । हम इस संदेश के साथ आयाजन समाप्ति के पूर्व आपसे आशान्बित होना चाहते है कि संयम और धीरज रूपी शस्त्र अपनाकर इन दुवत्तियों से निवृति पायें और मानव जीवन को शुख शान्ति का भंडार बनाएँ । उसे कभी भी ढ़ोंग और मौज – मस्ती का खेल न बनायें , तब हमारा वत और हमारी प्रार्थना की गूंज सार्थक होगी ।
या देवी सर्व भूतषु मातृरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै , नमस्तस्यै , नमस्तस्यै नमस्तुते ।
नोट : – गुगल्स के माध्यम से पाठकों की मनोभवना का शुभाकांशी हूँ ।