Wed. Apr 24th, 2024

 कुछ अकथनीय

 कथ्यों की अकथनीयता , श्रोताओं एवं पाठकों के ज्ञान – धन के आधार पर मान्य या अमान्य हो सकती है जो शास्वत एवं अशास्वत की कोटि में प्रमाणित किये जा सकते हैं । ज्ञानी जनों के समक्ष सृष्टि मूल प्रकृति का ही व्युत्पन्न स्वरुप है । यह मूलतः जड़ और चेतन सत्ता के रुप में दृश्यमान है । सृष्टि में सदा परिवर्तन भासता है । परिवर्तन में गति , विकास , रुपान्तरण , रंग , गन्ध , शीत , उष्मा , प्रकाश , आकर्षण , विकर्षण , अनुभूति , सुखद – दुखद का ज्ञान हमें स्पष्ट दीखता है । इन्हें हम सामान्यतया जान पाते है , अनुभवगम्य है । इस प्रकार सृष्टि में घटनाएँ छोटी या बड़ी घटती पायी जाती है जिनका अनुभव और अवलोकन चिरकाल से हमारे मानस पटल पर विम्वित और स्मृति में सुसज्जित ज्ञान बनकर हर चेतन प्राणी में व्याप्त है । उन्हीं आधार भूत ज्ञान में घटना क्रम में जुड़े कारण और उनका सापेक्ष भाव हमारे समक्ष निर्णायक बनकर विज्ञान रुप अस्तित्त्व का निर्धारण होता है ।

 परिवर्तन लाने वाले कारकों में भोतिक कारण अपनी प्रमुखता रखते है । रासायनिक प्रभाव भी महत्त्व रखते है । काल की भी अपनी भूमिका होती है । ग्रहों नक्षत्रों में भौतिक कारण अपनी प्रमुखता रखते है । ग्रहों नक्षत्रों की गति , दूरी , ग्रहांतरीय या अन्तर्ग्रहीय प्रभाव भी परिवर्तन लाते है । भार , दबाव , ऊर्जा एवं रेडियो धार्मिता के कारण भी परिवर्तन लाते है । ये सारे परिवर्तन प्रकृति एवं उस पर विकसित सृष्टि को प्रभावित करते पाये जाते है जिससे जीवन प्रभावित होता है ।

 जीवन का तात्पर्य हम मानव तथा मानव से जुड़े उन जीवों से रखते हैं जो हमारे ही हित में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से काम आते हैं । सारे वनस्पति जन्तु तथा जैव संसाधन हमारे कल्याण में काम आते हैं । सामान्यतः हम जीवन का अभिप्राय पोषण , संरक्षण , विकास , कौशल , पुष्टि , बल , मेघा एवं मानसिक संतुलन से रखते हैं । सृष्टि से जुड़ा एक लक्ष्य है सृष्टि का अस्तित्त्व और उत्तम भविष्य । यह मानवी सभ्यता और संस्कृति का एक दिव्य चिन्तन है जब सृष्टि का लक्ष्य इसके अनन्त जीवन प्रक्रिया से जोड़ने का विधान उसी में समाहित कर अबतक चला आ रहा है तो उसमें चिरन्तन रुप से उत्तम गुणवत्ता के साथ जीवन सुलभ समसत क्षेत्रों को विकास के मार्ग पर स्वस्थता , सुचिता , दीर्घ जीवन का भी प्रावधान किया जाय ।

 जब हमारे शास्त्र सृष्टि को अनन्त कल्पों में प्रस्तुत होने की सत्यता सुझाते आये है , यथाः

 वासांसि जीर्णाणियथा विहाय गृहाति वस्त्रणि नरोपरानि ।

 तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति नवान देहि ।।

 विचारणीय है कि इस सत्य को हम आगे एक दूसरे श्लोक से जोड़कर देखें तो एक नूतन चिन्तन को मार्ग मिल जाता है कि चेतन सृष्टि की आयु सीमा के प्रत्यक्ष प्रत्यावर्त्तन से जुड़े कारण जो उसकी काया को जीर्ण ( जरावस्था ) बताते पाये गये उनका निस्तार उनकी संभावना एवं निस्तार के विधान जो आयुर्वेद सह होमियोपैथी के द्वारा भी समाधान के मार्ग निर्धारित हैं , आगे बढ़कर विचारें ।

 श्लोक : – यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

 अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मान सृजाच्यहं ।

 परित्राणय चसाधुनां , विनाशाय च दुष्कृिताम

 धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।

 उपरोक्त आशय यह स्पष्ट करता है कि जब – जब सृष्टि में सदाचार की कमी पराकाष्ठा पा लेती है । चिन्तन और व्यवहार में विषमता देखी जाती है । आदर्श पूर्ण चिन्तन , शिक्षण और मनन के होते आचरण में विदुपता पायी गयी तो समाज अथवा विश्व भी कष्ट पाता और सृष्टि का नाश होकर फिर नयी सृद्धि या सामाजिक परिवर्तन हुआ करता है ।

 ऐसा आदर्शवादी चिन्तन जिस देश में आदि सृष्टि से सुनी जाती रही वहाँ का विज्ञान आज विपरीत दिशा क्यों पकड़ती जा रही । मानव होते हुए हम मानवता खो रहे । विनाश का मार्ग अपनाते हुए मानव अपना कौन – सा भला करना चाहता है ? इस प्रश्न का उत्तर किस न्याय प्रकोष्ठ से मिल पायेगा अथवा किस संसदीय सभा उस पर मन्थन हो पायेगा कि विश्व आदर्शों का साम्राज्य सिद्ध हो सके ।

 आप कह सकते हैं कि ऐसे विचार विचारों के कचरों में डाल देने योग्य है । ऐसा बहुतों के संदर्भ में बोलकर विरोध जताकर या अनसूनी कर महत्त्व नहीं दिया जा सका जिसकी कभी विश्व में खटक रही है । आज का समाचार पत्र एक अच्छी बात लेकर उतरा । कैंसर जैसे गम्भीर रोग के बचाव के लिए एक बीमा योजना की शुरुआत एक विचारणीय विषय है जिस पर विचारक और नियोजक दोनों के द्वारा समय और धन का दुरुपयोग कर चिकित्सा जगत की झोली भरने के साथ अपनी ऊँची कमाई की छलांग लगाने की कल्पना कही जा सकती है , यह कदापि जन कल्याण शब्द की पुष्टि नहीं कर सकेगी ।

 व्यष्टि भाव से लिपटी नकारात्मक चिन्तन कला कभी समष्टिहित का प्रेरक नहीं बन सकती । आगे आइए । स्वावलंबी बनने और बनाने का अभियान चलाकर आर्थिक तरीके की सुरक्षा कायम होनी चाहिए न कि व्यक्तिगत भलाई में आत्म तोष झांकना ।

 जीवन का बचपन सीखने का समय है । सकारात्मक सोच जगाने वाली शिक्षा द्वारा प्रस्फुट ज्ञान का आदान प्रदान , आदर्शात्मक जीवन जीने की कला और कर्ममय जीवन को उत्कर्ष प्रदान करने वाली योग्यता जब हाशिल हो पायेगी तो धर्म और कर्म दोनों की परिणति दृष्टि और अनुभूति में साकार झलकेगी और जीवन की संध्या विक्षिप्त दशा नहीं , एक दिव्य आलोक का आलिंगन साबित होगा । यही कर्म की शुचिता विकास के पवित्रता प्रदान करेगी जहाँ मानव विकार रहित विश्व शान्ति के वातावरण में सांस लेता हुआ जीवन को मुक्ति से जोड पायेगा ।

 आज दुनियाँ विज्ञान पर गर्व करती है । समृद्धि को भोगोन्भुव दिशा देकर पापवृत्ति अपनाना , रोग और कर्ज से जिन्दगी को नारकीय अवस्था में डाल , धन और जन शक्ति को नाश के कगार तक पहुँचा कर मृत्यु का कोलाहल लेकर श्मशान तक जाकर लौटना कौन सी कमाई हाथ आयेगी ?

 यह मनु द्वारा सुझाए गये जीवन के 10 धर्म सूत्र माने , वरन् सफल जीवन का “ युग धर्म ” स्वीकार कर आने वाली दुनियाँ पर्यन्त अपनी दिव्यता कायम रखने में लग जाये ।

 क्या आप आज तक इन सारी व्यवस्थात्मक दुनियाँ की गतिविधियों में अपनी शैक्षणिक गुण गथा की सच्ची गंध पायी ? आज धर्म लांक्षित हो रहा , कर्म विवादित माना जा रहा , व्यवस्था पर भ्रष्टाचरण की कुंठा ग्रस्त बेरोजगार हो चुके समाज में घृणित , असुरक्षित , प्रताड़ित या शोषित जीवन जीने वालों की संख्या का अनुमान तो न्यायालयों के पास होगा जहाँ देश की सुदृढ एवं सक्रिय व्यवस्था वाली कुसिर्यो से अनुमोदित होकर न्यायार्थ समर्पित किये जा चुके हैं ।

 आपकी सभ्यता , संस्कृति , ग्रंथादि , तीर्थों में विराजमान भगवान अपनी किस महिमा का गुणगान सुनने में आनंदित है जब उनके भक्त नहीं , उनके देवों की भूर्तियाँ चुराने वाले ही उनकी कृपा के पात्र साबित हो रहे । जिस देश के अत्याधुनिक सोलहवी शताब्दी के कवि कुल में गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपने इष्टदेव के राज्य काल के संबंध में ।

 नहीं दरिद्र कोई दुखी न दीना ।

 न कोई अवुध न लच्छन हीना ।।

 सव नर कही परस्पर प्रीति ।

 चलहि सदा सादर श्रुति नीति ।।

 ऐसा दर्शाया , क्या हो गया कि इधर की शदियों में जब विज्ञान ने आकर भौतिकवादी विकास की नीव डाली तो जंगल की जगह अदृालिकाएँ खड़ी हो गयी । उसी के राजमार्ग पर दौड़ते तीव्र वाहनों में बैठकर गुजड़र लोग किनारे पर फटे प्लास्टिक के चादरो से निर्मित झोपड़ियों में जीती जनता के भगवान कहाँ गये । हमारे ( एक अरब 35 करोड़ ) लोगों के दिल में वह पारस्परिक प्रेम कब आयेगा । आज से 50 वर्ष पहले ही रामचरित मानस को लालकपड़े में लपेट कर दीवार के ताखे पर डाल दिया गया । उस पर पड़े धूल को झाड़ने वाला कोई नहीं ।

 हमतो यहाँ हैं । हमारा लक्ष्य अभी बहुत दूर है ।…….. लेकिन …  जाना जरुर है । इसलिए जागरण……… जरुरी है । पूरे विश्व के लिए यह विचारणीय है । अकथनीय नही । ।

( डा ० जी ० भक्त )

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