गरीब और गरीबी की संतोष ही मात्र दवा है।
डा. जी. भक्त
रोग तो अपना है, लेकिन उसकी दवा सदा पराये के हाथो में हैं। हमें उसे प्राप्त करना होता है। मूल्य चुका कर कर्ज का आश्रय लेकर, सम्पति बेचकर कल्याणकारी भूमिका निभाकर ।किन्तु…. रूग्न होकर या रुग्नावस्था में हमें दूसरों की सहायता की भी जरूरत पड़ती है।
आज के स्वार्थ संचित युग में ये दोनों ही पहलू पकड़ से दूर और असम्भव लगते है। जब अपने भी समय पर पराये की तरह मुँह फेर लेते है तो सहारा बने कौन ? यह शरीर जो अपना है वह अशक्त होकर और दिल का कमजोर निदान कैसे ढूँढ पाये। वहाँ पर ईश्वर पर भरोषा और मन में संतोष का सबल ही प्रबल पूँजी बन सकती है।
कठिनाई है कि भौतिक साधन जुटाने के लिए परिश्रम और सहयोग दोनों ही आवश्यक है दुनियाँ स्वयं स्वार्थी है। त्याग और बलिदान की भावना समाज में विरले किसी में मिल पाती। वह भी तब सम्भव होगा जब हमारे आपके बीच सेवा सद्भाव कल्याणकारी विचार रखते रहे। ईश्वर भी उसी की मदद करते है जो अपनी मदद आप करता है। यह पहेली लोगों को समझ में नहीं आती। समझना इतना ही मात्र सोचना है कि हम दूसरों की जरूरत में काम आयें हममें ऐसी मानवता हानी चाहिए जो मानव को सहज दूसरे के लिए कल्याणकारी साबित होता हो तो भी हम यह आशा छोड़ कर ही चलें क्योंकि लाभ लेने वाले सभी होते है, किन्तु दूसरो का भला करने से वे दूरी बनाकर ही चलते हैं। कदाचित आपकी सारी पात्रताऐं काम आने में विफल सिद्ध हो सकती है। निराशा आपको दुख से भी ज्यादा सतायेगी। अच्छा है कि आप ऐसी कामना ही न करें न आशा सजोये, बल्कि संतोष धारण करे और ईश्वर तत्व में ही आस्था दृढ़ कर चलते रहे।
लोग सोचते है, दवा की कीमत होती है पढ़ने सीखने कमाने और साधन जुटाने में धन का खर्च होता है, जीवन अर्थ पर आश्रित है। त्याग मे ममता बाधक बनती है। ऐसे भी दुनियाँ में खाकर लौटाने में ममता आती है। उसकी पकड़ कठोर होती है। ऐसे समाज में आपको लूटना ही चाहेंगे, दया नही दर्शा पायेंगे। सामाजिक सरोकार और सदाचार की विदायी विकास की परम्परा वाले संविधान में स्थान नहीं पाते।
आज भले ही संतान हीन दम्पत्ति एक बच्चा के लिए तरसते हैं किन्तु गर्भ में पलते अपने शिशु को त्यागने में पीछे जब नहीं पड़ते तो दूसरों के लिए दया कैसी एक दुर्दान्त मानवता का ज्वलत उदाहरण दिल्ली के गंगाराम हॉस्पिटल में आज से तीन दिन पहले मृत घोषित हुए रोगी की है जिसके ब्रेन के ऑपरेशन हेतु आठ लाख रूपये की मांग ही गयी थी। चार लाख रूपये जमा किये जाने पर रोगी एडमिट हुआ था। मरने पर उससे तीन लाख रूपये जमा कर लाश ले जाने के विषय पर अस्पताल में पड़ा है। ऐसी मूर्खी मानवता पर तरस खाओ आर छोड़ दो ऐसे अस्पतालों में जाना उन पूजीपतियों, उद्योगपतियों और धनियों के लिए जो उनका पोषण करने योग्य है। अगर हो सके तो अपने लिए प्राप्त दवा तक का दान कर दो दूसरा के लिए जो तुम्हारे मरने पर दूसरो की दृष्टि में तुझे अमर मान ले।
मानव तो दुनियाँ के लिए बहुत कुछ कल्याणकारी कार्य किया है किन्तु ऐसी मानवता का दुर्गन्ध दुनियाँ से दूर हो, अगर ईश्वर की यह सृष्टि है और ईश्वर ही सब पर कृपा करते है। दोष कहाँ है वे ही जानें।