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समलैंगिकता की अवधारणा मानव की कुर्तसित संस्कृति है।

डा० जी० भक्त

प्रकृत्या सृष्टि में पुरुष और नारी जाति जीवों में स्पष्ट दृष्टिभोवर है जिनके दैहिक सम्बन्ध से सृष्टि चलती आ रही है जिसका सुसंस्कृत स्वरूप समाज में विवाद की प्रथा है। यह विचिचत सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नर-नारी की जोडी पति पत्नी के नाम से जाने जाते हैं। यह जोड़ी पवित्र (धार्मिक) कन्चन की स्वीकृति प्रचीन काल से वैधानिक स्वरूप ले चुकी है।

आज यह विवाद उन सिर फिरे मानवों द्वारा समलैंगिक जोड़ी को स्वतंत्र (यहाँ इसका मतलब सन्तान मुक्त जीवन की स्वीकृति चाहते हुए सृष्टि को संस्कृति का विद्वय बनाना लक्ष्य रहा है और मानव जाति को विनाश की ओर ले जाने वाला है। कवि जनार्दन प्र० झ”विज” की कविता की पंक्ति है:-

यह न ज्योति उस मधुर अनल की,
जिसमें जीवन स्वर्ण दमकता
वन बिजली इस अंधकार में,
यह तो कोई प्रलय चमकता

वस्तुतः विश्व वेदना की कुरुण पुकार है ऐसी अवधारणा जिसमें युवाओं में ऐसी स्वतंत्रता में सुखानुभूति के स्थान पर सृष्टि में पारिवारिक स्वरूप के विखण्डन पर स्वतंत्रता का स्वरूप मानवी सृष्टि की समाप्ति का ही सपना है न कि संस्कृति मात्र के विद्वप का प्रतिफलन मात्र।

एक छोटी-सी बात, जय प्रेम विवाह पर विचारियों मात्र हो दिलों की गुप्त सहमति का अभाव, उपजी विवाह की प्रक्रिया क्या है? माता- पिता की पास परोस की स्वीकृति नहीं, विषय गोपनीय, तो ठीक किन्तु संभाला ज्यादातर तलाक में परिणति ।

विवाह की प्रचलित पद्धति को भारत के सभी धर्मावलम्बी सहमति समर्थन, विवेक पूर्ण वयन, पवित्रता, सैकड़ों वायती की सहभागिता, सदभाव और सहानुभूति श्रद्धा सम्मान, अधिकार, संकल्प, संरक्षण एवं सुरक्षित भविष्य का आशीष देकर उपहारों आभषणों के साथ पावन अवसर पर देव पूजन और उत्सव समारोह के आयोजन के साथ संपन्न करते हैं। विवाह से जुड़े अधिनियम और सामाजिक मान्यता के साथ व्यक्तिमत दायित्व का आजीवन पालन, पारस्परिक प्रेम बन्धन और जीवन यापन का निर्वहण दाम्पति अपना कर्तव्य मानते हैं। अमर सम्बनध में कोई आपत्ति खड़ी हो तो समाज के साथ-साथ सरकारी नैयायिक विधान उसपर निर्णय लेकर अधिकार दिलाता है।

अगर समलैंगिकता की अवधारणा में जिस घरातल पर पाँव रखकर अपने को स्वतंत्र जीवन यापन का अधिकारी बनने का आग्रह है उसे मात्र दुराग्रह ही न कहा जाय बल्कि सृष्टि के समापन का आमन अमर खुलकर कहा जाय तो ऐसी मानसिकता वाले पुरुष-पुरुष और नारी-नारी की जोड़ी की काम लिप्सा की पूर्ति मात्र की स्वतंत्रता के आमटी है लेकिन संतान के पालन और पारिवारिक जीवन से दूरी बनाकर रखना, ताकि जिम्मेदारी के बंधन से मुक्त रहें। ऐसा जीवन तो जंगली पशुओं का है। वहाँ भी चेतना की कमी होते हुए भी संतान से प्रेम रखते है और नर मादा का सम्बन्य निर्वाह करते वे समलैंगिक नहीं होते। यह सभ्यता और संस्कृति के पालक शिक्षित और कितन शील मानव के लिए कितना अभद्र सोच है- समलैंगिकता प्रकृति के शास्वत नियम को त्याम कर सभ्यता को नारकीय हालत में लाकर विस्वाल से विकसित संस्कृति को मिट्टी में मिलाने पर तत्पर हो रही है। हमें संतोष है कि अपने देश के विचारक, विद्वसमाज धर्माधिष्ट और माननीय नैयायिक क्षेत्र भी इस अन्य वृत्ति का वहिष्कार करते हुए एक ही मर्यादित पथ का अनुगमन करने का निर्णय लिया है।

अन्यथा यह मानव जाति सहित सृष्टि पर भी विनाश के बादल का आमंत्रण सिद्ध होगा। यह व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष के विदन के सम्बन्ध में अपुष्ट सोप एवं अपूर्ण ज्ञान का परिणाम है। ऋषि मनीषियों की सोच एवं शास्त्र ज्ञान के द्वारा मानव में ब्रह्मचर्य पालन की शिक्षा दी गयी है जो सोच आज इस कानून को समर्थन दिलाने के लिए जागृत हुआ उस पर विस्तृत चिन्तन हो चुका है गृहस्थाश्रम धर्म सन्यास और योग साधना से जुड़ने के जो विधान किये गये है उसके अध्ययन मनन और आचरण करने पर अन्र्तमन का हन्द समाप्त हो जाता है। इससे भी सरल है परिवार नियोजन पर गंभीरता से विचोरना और जीवन को संयमित मार्ग देना सभी सुखे और भोगों को दिलाने वाला है।

हिन्दु धर्म के जीवन को चार खण्डों के बाँट कर सबके पृथक पृथक कर्म विन्यास तथा उनके पालन पर निर्देश प्रस्तुत किया जा चुका है। वर्षात्रम धर्म का पालन करते हुए मनुष्य श्रेष्ठ जीवन जी सकता है जबकि मानस में मन्दे विचारों को नियंत्रित करना तथा ऊँसे आदेशों पर चिन्तन और आवरण करते हुए हम सुख सन्तोष ज्ञान, सम्मान भक्ति और मुक्ति के अधिकारी हो सकते हैं। तो इस उछृंखल स्वतंत्रता को सम्बरण करना पापों में निकृष्ट पाप है। प्रकृति के पथ से विपरीत सोच पर संकल्प से विजय पाया जा सकता है। भगवान रक्षा करें।

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