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जागरुकता की सार्थकत्ता क्या हैं ?

 सृष्टि प्रकृति का विधान है जो जड़ और चेतन नाम से दो रूपों में जाना जाता है । जड़ शब्द से दो भाव व्यक्त होते हैं – निर्जीव और चेतना रहित । चेतन सृष्टि में जीवन पाया जाता है । जीवन में क्रियात्मक भाव लक्षित है । अनुभूति निहित हैं । मन , बुद्धि , विवेक , ज्ञान , स्मृति , पहचान , चिन्तन आदि भाव उसके प्रकट होते है । उन भावों की स्पष्टता प्रखरता में सूझ – समझ और अभिव्यक्ति से पूर्ण होना ही चेतना है । उसमें जीवन एक जटिल प्रक्रिया है जो स्वतः घटती रहती है । जड़ पदार्थों में भी घटनाएँ घटती है जो बाहरी शक्ति या चेतन सत्ता द्वारा प्रभावित होती है । जीवन में जटिलता का भाव प्रकट होना या बाधा उपस्थित होना एक प्रकार का भाव उत्पन्न करता है जिसमें भय , चिन्ता या कठिनाई का अनुभव होता है । उसमें जीवन क्रियायें रुक – सी जाती है । उससे छुटकारा पाना या पुनः उसमें गति आना या लाना आवश्यक हो जाता है । प्रयास की आवश्कता पड़ती है । सोचना , विचारना , जानना . पूछना , समझना , सहायता लेना पड़ता है । उस प्रकार समस्या का समाधान जीवन का लक्ष्य बनता है । उसी भावना को जागरुक होना कहते है । उससे सावित होता है कि जागरुकता जीवन में जरूरी है ।
 हमारी चेतना शक्ति , अनुभूत्ति एवं ग्रहण करने की क्षमता हमारी जागरुकता में सहायक बनती हैं । अर्थात जागरुकता वहीं संभव है जहाँ ये विशिष्टताएँ सहज हो या स्वाभाविक रुप से पायी जायें । उसमें किंचित कमी आना उनकी जड़ता , मूढता या अचेतन या अवचेतन , बोध गम्यता या ग्रहण करने की शक्ति का अभाव माना जाता है , वे ग्रहण कर पाने या जागरुक होने में विफल होते है |
अगर व्यक्ति विशेष में जागरुकता के भाव समझ में आ भी जाये तो उसे आपकी विचार शक्ति या पूर्वानुभूति से जोड़ पाना उनकी विचार निष्ठा या आत्म विश्वास पर निर्भर करता है । इसमें भी सजगता . एकाग्रता . ज्ञान वैशिष्टय . मेधा और इच्छा शक्ति , स्थिर मतित्त्व आदि गुणों की प्रधानता ही जागरुकता लाने में पूर्णता प्रदान करती है । जागरुकता जताने में भाषा की सरलता शब्दों के सरलार्थ का ज्ञान , सुलभ विचार और जनसामान्य के मानस में स्थान ग्रहण करने योग्य हो ताकि अनपढ़ व्यक्ति भी उस प्रयास में सफल हो सके । जागरुकता उसे नहीं कह सकते जो किसी पदाधिकारी द्वारा निर्देश दिया जाना मात्र हो ।
 आज हम जिस विश्वव्यापी कोरोना के संक्रमण से भयार्त है , उसका शीघ्र समाध्यान चाहते हैं । जान चुके है कि उसके निदान के विधान कठिन माने जा रहे हैं । समस्याएँ जटिल होती जा रही है । विकल्प सुझाये जा रहे है । लोगों को उसके लिए जागरूक किया जा रहा है किन्तु जागृति आ कहाँ रही । कुछ ही लोग है जो सही तरीका से नियमों , सुझावों . तरीकों . संसाधनों का उपयोग कर पा रहे हैं । जो इस विषय की गहनता , गंभीरता , दुष्परिणाम आदि को ठीक से समझ नही रहे अथवा अधिक भयभीत और चिंतित हैं . वे कहते है समझ में नहीं आता , लॉकडाउन में पड़े – पड़े परेशान हो रहे . बाहर निकले बिना काम नहीं चलता . मिलना , जुलना , कुछ कमाकर लाना , पेट चलाना पड़ता है , अलग – अलग रहना , दूरी बनाकर रहना . बचाय के सारे विधान कहाँ से जुटायें । हम से सम्भव नहीं , क्या करें , कहाँ जाये , किस से कहें . छोड़िए , जो होना होगा सो होगा । यह गरीबी , यह भय परदेश बास , कार्य स्थगित . सहायता पर जीना , बाहर वाले निकाल दिये . घर जाना है , यातायात बन्द , हजारों मील की दूरी , नियमों का उल्लंघन शुरु . कमाने वाले व्यस्त है । लूटने वाले लूट रहे . पुलिस लाठियाँ चला रही . काम मिलता नहीं बाजार में भीड़ है ।
 सारी समस्यायें . सुझाव तो लोग दे रहें । समस्या को कहाँ ले जायें । धैर्य नहीं , काम करता , दुनियों में लोग मर रहे , व्यवस्था जन संख्या और संक्रमितों की तुलना में कमजोड़ पर रही , चिकित्सा सटीक नही , विकल्प कमजोर , गर्मी बढ़ी , तो राजनीति गरमायी , राष्ट्रों में टकड़ाव तो दुश्मनों के इरादे भयानक दृश्य खड़े कर रहे , अस्तित्व वाद की लडाई और दीन जनता को जागृत करना , जहाँ विचारों का ताल – मेल नहीं बैठता , वहाँ जागरुकता का घोल पिलाने से रोम जाने वाला है ? यह है समस्या । ज्ञान कुछ कहता है । कानून कुछ । सभी अपना – अपना जादू बिखेर रहे हैं । स्वावलवन आया नही , बेरोजगारी गयी नहीं , पलायन रुका नही . प्रवासियों पर विपत्ति आयी . अपने देश में सभी देशों के वायरस आकर शरण ले रहे । कही आगजनी , कही मृत्यु , कही तूफान , कही लू , कही बाद , कही राजनीति का प्रलाप , लोग कर रहे विलाप । कोरोना के प्रति दुनियों का जंग विफल रहा . क्यों ? चिकित्सा के अभाव में । पूँजी पतियों के बीच विज्ञान का वैभव दिवालिया साबित हुआ । विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लाचार पड़ा । कहाँ गयी विज्ञान की गरिमा । दवा की एक गोली या टिकिया मरने वालों के लिए भयस्सर नहीं , युद्ध के तोपों की गड़गड़ाहट अब सुनाई दे रही । ये सरकारें , ये धन कुबेर मरने को तैयार युद्ध के लिए तैनात है , लेकिन भारत के गरीब भगवान की आस लगाये झोपड़ियों में कष्ट झेलते दुआयें मांग रहे हैं । जनतंत्र की परिभाषा आज ज्वलंत बन रही । मृत्यु सामने खड़ी है । डॉक्टर रोगी से दूरी बना रखे है । आशा पर ही भरोसा है हाय रे विकास , तुम पर विश्वास करना भूल है । सादा जीवन और उच्च विचार जीवन में उत्कृष्टता लाते हैं । स्वस्थता और दीर्घ जीवन की गारंटी भी ।

 चलो चेल मां ,
 सपनों के गाँव में कॉटों ,
 सेदूर कहीं ,
 फूलों की छाँव में ।।
 आ चलें हम एक साथ वहाँ .
 रुकना वहाँ कोई होये न जहाँ . 
आज है निमंत्रण ,
 चंचल हवाओं में ,
 चलों चले मो .
 सपनों………… छाँव में ।।
 डा 0 जी 0 भक्त

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