भाग-1 धर्म एवं अध्यात्म
1. धर्म अनुशासन है , अध्यात्म मनोयोग ।
2. धर्म केवल ईश्र की पूजा नहीं , मानवाचरण होना चाहिए ।
3. स्नान , जाप , माला फेरना , ध्यान लगना , प्रार्थना , कथा , झाँकी , षोड़सोपचार , आवाहन , प्राण – प्रतिष्ठादि , धर्म नहीं मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया है ।
4. मूर्ति , वेदी , तस्वीर , प्रतीक ही ईश्वर नहीं , ध्यान केन्द्रित करने के साधन मात्र है ।
5. लक्ष्य शुद्धि या मानसिक शुद्धि , कर्म , शुद्धि , देह शुद्धि व्यापार शुद्धि ही धर्म के आयाम हैं ।
6. आत्म कल्याण और जकल्याण क्रमशः श्रेय और श्रेय वृत्ति या मार्ग हैं ।
7. अपना अकल्याण या पराये का , कष्ट कारक होने से त्याज्य है , इसलिए पाप ( कुत्सित या हीन कर्म ) है ।
8. श्रेय मार्ग ही यश का प्रदाता है ।
9. अकल्याण का ही मूल्यांकन अपयश है ।
10. परोपकार पुण्य या श्रेय कार्य है , तथा परपीड़ा पाप है ।
11. पाप और पुण्य तुलनात्मक या सोपेक्ष शब्द है ।
12. जिससे लौकिन उन्नति सिद्ध हो , वह धर्म है , परन्तु उसका लक्ष्य धनार्जन या संचय नहीं , मुक्ति होनी चाहिए ।
13. लोभ वश अर्जित धन प्रेय है , श्रेय नहीं ।
14. धर्म के 10 लक्षणे में धैर्य , क्षमा , स्थिरता , चोरी नहीं करना , शौच इन्द्रियों की शुद्धि या कर्म शुद्धि , बुद्धि – विद्या , सत्य और क्रोध पर विजय हैं , इसका सभ्यक अभ्यास धर्म की पुष्टि करता है ।
15. काम , क्रोध , लोभ , मोह , राग द्वेष एवं घृणा का त्याग ही सदाचार है ।
16. आचरण शुद्धि से पाप का नाश होता है ।
17. प्रकृति के रहस्य को जानना ही ब्रह्म ज्ञान या अध्यात्म है ।
18. प्रकृति को समझना प्रकृति प्रेम या साहचर्य भाव उत्पन्न करना है ।
19. जैसा अन्दर का भाव ( त्रिगुणात्मक ) होता है , विश्व वैसा ही भासता है ।
20. आत्मबोध से बाह्य जगत को जानना और बाह्म जगत के ज्ञान से अपने संबंध में ज्ञान प्राप्त करना ही आगम निगम नाम से दो विधान माने गये हैं ।
21. ज्ञान के मूल में कार्य – कारण संबंध एवं जगत के साथ साहचर्य बैठाना ही अभीष्ट है ।
22. बाह्मी सृष्टि और सभ्यताएँ प्रकृति के परिणाम भाव के ही परिणाम या उद्याम है ।
23. हम देह रुप में प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते है और ज्ञान रुप में ब्रह्म का ।
24. प्रकृति और ब्रह्म एक दूसरे में ओत प्रोत हैं , व्याप्य – व्यापी संबंध है । इसी संबंध का ज्ञान पाना अध्यात्म है ।
25. धर्म के संबंध में कई भ्रान्तियाँ सामने आती हैं ।
26. ब्रह्म रुप में त्रिदेव ब्रह्मा , विष्णु और शंकर को ईश्वरीय सत्ता ( संज्ञा ) प्रदान की गयी है ।
27. ये त्रिदेव स्वायंभुव है तथा तीन प्रकार के विभाग ग्रहण करते हैं ।
28. सृष्टि , पालन और अवसान जो प्रकृति के भाव हैं उनके नियंता हमारे त्रिदेव हैं ।
29. ब्रह्मा की नाभि से विष्णु की उत्पति बतायी गयी है अतः ब्रह्मा और विष्णु एक दूसरे – में ओत – प्रोत हुए । साथ ही अवसान काल में दोनों शंकर में ही समाहित पाये गये ।
30. अतः ये प्रतीकात्मक रुप से तीनों सृष्टि के आदि से अवसान तक को तीन पहचान दिये गये हैं ।
31. ऐसा मान लेना ईश्वर या ब्रह्म को सगुण रुप में ब्रह्म को ग्रहण करेंगे तो उनका विश्व में कही न कही अस्तित्त्व होना चाहिए ।
32. अगर आदि देव के रुप में माने जाने से उनका अवसान भी स्वीकार किया जाय तो उनकी सन्तान , उनके परिवार , उनके निवास स्थान पर भी सहमति होनी चाहिए जैसा कि किसी अवतार की कहानी चर्चित है ।
33. अगर ऐसा सम्भव है तो ब्रह्म या ईश्वर विकारी होंगे , शुद्ध सच्चिदानन्द होना सम्भव नहीं ।
34. यह भारतीय चिन्तन है । अन्य देशों की मान्यताएँ भी कुछ हैं । उनके धर्म भी कुछ ऐसा या थोड़ा भिन्न बतलाते हैं ।
35. ईश्वर पर मतैक्य ही ग्राह्य हो सकता है । मतान्तर धर्म पर से आस्था समाप्त करेगा ।
36. अन्य देव , भगवान या अवतार के संबंध में पुराणों में विसद् चर्चा है जो उनके सगुणरुप को ही सिद्ध करते हैं ।
37. इस भाँति हम वैचारिक या कथानक तथ्यों के माध्यम से सर्वत्र ईश्वर को व्यक्तिकृत करें तो ईश्वर की अनैकता सिद्ध होती है फिर विश्व के सभी धर्म ईश्वर को एक मानते हैं ।
38. ज्ञान मार्गी विचारकों की दृष्टि में ईश्वर निर्गुण बतलाये गये हैं ।
39. ईश्वर के अस्तित्त्व , विज्ञान और गणित पर सोंचे तो समस्त जड़ चेतन सत्ता में उसके परिणाम भाव या व्याप्त – व्यापी संबंध , को हम पूर्णतः मानते हैं किन्तु ईश्वर का गणित प्रतिपादित नहीं होता ।
40. हाँ , ज्यामितीय संसिद्धि से हम ईश्वर को प्रतिपादित कर सकते हैं । ( Triangle of Love )
41. ईश्वर को अणु से भी सूक्ष्म माने तो एक ऐसी दशा आयेगी जब ईश्वर का अस्तित्त्व शून्य हो जायेगा । व्याप्ति शून्य होने से ईश्वर का भाव आधारहीन हो जायेगा ।
42. सर्वव्यापी ब्रह्म को अगर अणु न मानकर विभु माने तो सिद्धान्त को बल मिलेगा । सृष्टि से साथ एकता प्रति फलित हो पायेगी ।
43. ऐसा मानने से ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पति का सूत्र , ब्रह्म की नाभि से विष्णु की उत्पति मान्य है तथा अवसान काल में प्राकृतिक एकता में लय हो जाना ( मृत्यु या प्रलय ) शंकर का भाव प्रतिपादित करता है ।
44. सृष्टि का जीवनीय अस्तित्त्व ( एनिमेटिंग एक्जीस्टेंस ) का पतिफलन , चेतन से चेतन की उत्पति तथा जड़ से चेतन का पोषण बतलाता है कि जड़ और चेतन दोंनो में ब्रह्म व्याप्त है । एक में प्रकट तो दूसरे में प्रच्छन्न ।