Fri. Apr 19th, 2024

राम तत्व

 ” राम चरित मानस ज्ञान की खान है । तुलसदास दिन रात उन्हें प्रकाशित करने में लगे हैं । कलम उनकी शक्ति है और स्याही में भक्ति का प्रवाह । उन्होंने तो रामभक्ति की सरिता वहा दी और हम उसमें स्नान करने का अबतक अवसर ही दृढ़ रहे है । स्वामी जी ने तो सबको मार्ग दर्शा दिया । गीताप्रेस तथा अन्य संस्थानों ने इस ग्रंथ को घर – घर में स्थान दिलाया किन्तु हमें लगता है कि माया ही उसकी महिमा पर भारी पड़ रही है ।
 माया के परित्याग की चर्चा सभी करते हैं । चाहते भी हैं किन्तु व्याग पाते नहीं , असंभव बतलाते हैं । जहाँ तक दिनानुदिन फंसते ही जाते हैं । माया एक शब्द मात्र नहीं उसका जाल फैला हुआ है । इसमें नित नवीनता दिखती हैं । मन को मोहती हैं । कभी आवश्यक तो कभी उत्तेजक , कभी सहायक तो कभी पूरक , कभी मनोरंजक तो कभी घातक भी । उसके मोह में जीव फँस जाता हैं । उसका प्रभाव प्रवृत्तियों का पोषक बना है । बरबस त्याज्य नहीं लगता । चाहने , समझाने पर भी त्यागा नही जा पाया ।
 ” माया महाठगनि हम जानी ” । माया की न कोई नगरी है , न कोई दुकान , नगर छोडकर भागिये , घर त्यागिये , जंगल में निवास कीजिए . तीर्थ में जाइए या भठ पकड़ लीजिए – इस जगह आपका जुड़ाय किसी – न – किसी से लगा ही रहेगा ।
 गो गोचर अँह लगि मन जाई ।
 सो सब भाया जानहु भाई ।।
 यह पूरी सृष्टि ही माया का प्रपंच है । सृष्टि में यह सम्पूर्ण प्रकृति , सकल बह्माण्ड ही मायामयी रचना है । जीवन माया है । उसका परिवेश माया है । उसका स्वरूप माया है । उसका गुण माया है । उसकी उपयोगिता माया है । उसमें होनेवाले परिवर्तन माया है । आपका लिवास माया है । उसकी प्रयोज्य वस्तुएँ माया हैं । आपकी देह तक माया है कि इसके त्याग से प्राप्त होने वाले तत्व उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बतलाये गए हैं तथापि इसका त्याग कठिन हैं ।
 देवता और मुनि भी माया के यश में रहे हैं । इस प्रकार माने तो भगवान भी माया के वश मे रहे हैं और जिन गुरूओं के द्वारा माया के परित्याग की शिक्षा पाते हैं गुरु भी माया से मुक्त नहीं । गुरू के हृदय में शिष्य वासता हैं । शिष्य के हृदय में गुरु बसते है या नही , कहा नहीं जा सकते । अब यह भी मान लीजिए कि सृष्टि में स्वर्ग माया है । जीव और सृष्टि अभिन्न है । हमें प्रकृति को त्यागते होती है किन्तु प्रकृति हम से कोई अपेक्षा नहीं रखती और हम जब उस पर प्रहार करते हैं तो उसका वह प्रतिकार भी नहीं करती । यह सदा हमें पोषण प्रदान करती , पालती और हमारे लिए अपना सर्वस्व व्यागती है , तो बताइए जरा , कि प्रकृति का इससे कुछ घटता है ? कदापि नहीं । वह नाशवान होकर मीसदा उपस्थित है । हम ज्ञानी और उपदेशक बनकर मृत्यु पाते है , जो व्यागता चला उसका अस्तित्त्व अबतक बना हुआ है । जो उसे पकड़े हुए रहा वह कतिपय कठिनाइयों का सामना किया । अमरता नहीं मिली ।
 आप पूछिएगा कि … तब आप हमें क्या कहना चाहते है जिससे हम माया से मुक्ति पायें । जरूर बताऊँगा । जन्म के समय तो हम कुछ लाये नहीं थे । जो मिला , वह सबकुछ घरती पर ही . जो उर्जन किया , वह अपने से , पाप से या पुण्य से अथवा सद्प्रयास से । खा – पहन और श्रेय पाकर जो शेष बचा वह तो धरती पर ही रखा रह गया । सिर्फ अपने कर्मों का श्रेय लेकर संसार से विदा लेना पड़ा । अगर सत्यार्थ या जन कल्याणर्थ कुछ छोड़ चुका होता . तब भी वही होता जो आज त्यागना पड़ता है । एक विशेष से यह जुड़ता , जो त्याग कहलाता है उसमें भी उसे लक्ष्यपूर्वक , कि माया में लिमट कर नहीं ( अर्थात ममता या मोह में आकर नहीं ) उससे मोह छुड़ाकर विश्व के कल्याण में व्यागा । उसके साथ भी कोई विचारा हुआ स्वार्थ नहीं रहा . बिल्कुल निष्काम अपना पराया का स्थूल भाव मिटाकर विशुद्धप्रेम से न त्याग का मोह , न अपने पर भकटव का लेश पश्चाताप शेष रहे । यही है राम तत्त्व । जगदात्मा का ख्याल ।। या मानस तत्त्व ।।। यह हमें सकल विश्व से जोड़ेगा । लाभार्थी पर ध्यान नहीं । त्याग में पात्र की पहचान आवश्यक नहीं , खास का अर्थ ममता से है । ममता छोड़कर ही हाथ बढ़ाना है । राम ने सत्पात्रों को सराहा । किन्तु पपियों का उद्धार तो उन्होंने अपना लक्ष्य माना । पापी अगर अपनी प्रवृत्तियों से प्रभावित है तो उसका सुधार सम्भावित है किन्तु पापी जब द्रोही हो तो उसका नाश ही अनिवार्य है । राम तत्त्व में आसुरी प्रवृतियों के संहार की योजना रही , द्रोह की भावना नहीं , उनसे भी मैत्री और संधि का प्रस्तव रखा गया । भगवान ने उन्हें मारकर अपनी शरण में ही लिया । उनका अद्ध संस्कार तक भी किया ।
 सृष्टिकर्ता अपनी सृष्टि का कल्याण चाहकर ही उसका हर विद्यान निकाला । सृष्टि का आदि , मध्य , और अवसान प्राकृत रूप से व्यवस्थित है । उसमें जन्म , पोषण और निर्माण सुनिश्चित , व्यवस्थित और नित्य है । उसी के श्रेय से उसे होना है । सृजन में प्रवृत्तियों सक्रिय होकर बल , पराक्रम और अपना स्वार्थ आरोपित करना व्यसनी , लोभी और स्वार्थी विधान है उसके साथ भक्ति का प्रतिफलन होता नहीं । उसका ज्ञान तर्क प्रवण होता है । तर्क से विविध प्रकार का भ्रम उत्पन्न होकर मन को चचल बनाता है । उसे सन्यगति पसंद आती नहीं अहंकार में सबकुछ अपने से छोटा नजर आता है । वही आगे चलकर अपने पराक्रम से ही अंधा ( श्रीहत ) असोच्य , अनिर्नित कर्म करता और अपना विनाश आमंत्रित करने वाला ( रावण रूप ) बनता है । उसके लिए राम ही उसकी गति देते हैं ।
 “….तो क्या हम राम की खोज में लगे ? यह प्रश्न भी भ्रमात्मक है । खोज करने पर उस सत्व की पहचान जरूरी है । राम को अपने चरित्र में झाककर उतारना होगा अथवा उनके चरित्र को अपने मन में बैठाना होगा । प्रकृत्या यही भाव भक्ति है और यह रामचरित्र मानस में ग्रथित हैं । पाप कुछ नहीं , हमारे दुष्ट कर्मो के परिणाम है । हमारी संस्कृति से पाप का निदान सम्भव है । अपने दोषों को हम ध्यान में लायेंगे तो उनका पलायन का भाव शुरू होने लगेगा । मन से दूषित भावों का परिष्कार ही हमारे हृदय में शान्ति लायेगा और सरलता व्यादेगी । कपट का अन्त होगा और संतोष प्रकट होगा । भक्ति का आश्रय प्राप्त होगा । गोस्वामी जी ने कहा है – सगुण अवतार रामजी ने तो एक रावण मारे , लेकिन उनके नाम का यशगान ( भजन या भक्ति भाव ) लाखों दुष्टों का कल्याण किया है ।
 अब हमें मात्र इतना ही समझना है कि आज हम किस तत्त्व की हानि या कभी से दुखी दीन , अकिंचन , अशरण अपने को पारहे है , उसी दिशा में सबकुछ रखा है । मानस तत्त्व का आश्रय लेकर चलना और चलते रहना है । आशा जुटाइए , तृष्णा कभी न पालिए । उसके अतिरिक्त भी जीवन का मार्ग अवरोधों से भरा है । सृष्टि में सिर्फ समतल भूमि ही नही , वन और पवर्त भी है । सरिता और सागर भी । उसमें भी घोंघे , सीप , मछलियाँ और अन्य जीव भी पथ पर सानने आयेंगे । आपको पुनः भ्रम होगा । परेशानिवयाँ आयेंगी । बुद्धि विबेक अपनाना तो होगा ही , साथ – साथ उस राम तत्त्व पर दृढ़ विश्वास रखकर बढ़ना होगा । मार्ग में संकल्य को किसी भी विघ्न से डरकर खोना नहीं होगा । सव्यार्थी को मात्र शरणार्थी ही नहीं , साहसी भी होना चाहिए । राम को जब हम मायातीत मान रहे है । शास्त्र कहता है – फिर उन्हें भी माया का प्रहार झेलना और मार्ग से बाधाओं को क्षण – प्रतिक्षण प्रस्तुत होते प्रतिकार करना ही पड़ा – क्यों ? इसलिए कि सृष्टि के माध्यम से देह धारण कर धरती का अवलम्बन पाया था । हम पुरूष हैं तो अपने पौरूष का प्रदर्शन करना ही पड़ेगा । धर्म की धूरी पर चलना पड़ेगा ।
 मानव को प्रथमतया ज्ञानापन्न और पौरूषेय दोनों ही होना अपेक्षित है । पहले ज्ञानार्जन और साथ – साथ पुरूषार्थ अर्जित करना । जीवन की प्रावस्थाओं में इन वैभक विभूवियों को अपनाते वरतते अनुभव पाने आगे बढ़ना और अपनी जिम्मेदारियों के साथ युग धर्म का पालन करते हुए भक्ति भाव से जगत को अपना संदेश देकर ही परम तत्त्व के शरणपन्न होना होगा । यही सच्चा पानव धर्म या मानस तत्त्व का प्रकाश पुंज है जिसे हम सबको प्रकाशित करना है ।
 इस तथ्य पर भी ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान और कर्म के तादात्म्य से सुखोपभोग फलित होता है । ज्ञान और कर्म दोनों ही की शुचिता धर्म का स्वरूप है । धर्म को चरितार्थ कर पाना ही जीवनादर्श है । यही मानवादर्श मानव को जीवन का श्रेय दिलाता है । इसी श्रेय के साथ गौखान्वित होकर महनीयता का अधिकारी बनता है । अगर हम तुला पर तौलकर देखें तो मात्रात्मक रूप में जितने दोष हम गिना पाते है उतने गुण भी है किन्तु गुणात्मक दृष्टि से पृथ्वी पर इस त्रिगुण की सत्ता भिन्न रूपों में बँटी हुयी है । सबका अस्तित्त्व है । सबके अपने – अपने कर्म और व्यवहार हैं । उनकी सीमा और मर्यादा भी है । तीनों की भूमिका का समन्वय ही सृष्टि को जीवन्त रूप में खड़ी कर रखी है । इसी को सन्तुलन या समरसता कहने है । सन्तुलन में विखराव आने से ही प्राकृतिक आपदा की स्थिति आती है ।

“रामचरित मानस एक अनुशीलन पुस्तक”

( लेखक- डा ० जी ० भक्त )

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