Thu. Mar 28th, 2024

प्रभाग-27 पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड रामचरितमानस

 तब हनुमान जी ने आनन्द कंद भगवान रामचन्द्र की जयकार की । भगवान को वानरों ने कहा- हे भगवन अब देर नहीं करनी चाहिए । तुरंत वानरों को आज्ञा दीजिए । वानरराज सुग्रीव ने वानरों को बुलाया । सेनापतियों के समूह आ गये । वानर भालुओं के समूह अनक रंगों में दिख रहे है । उनमें असीम बल है । रावण बध की तैयारी पर विचार प्रारंभ है । कपि सेना पर भगवान रामजी के पराक्रम का प्रभाव और बल दिखाई पड़ रहा है । सभी वीर गरज रहे हैं । रामजी प्रसन्न बढ़न चल पड़े । सभी प्रकार से शुभ – शकुन सामने प्रकट हो रहे हैं । उधर सीता जी के बायें अंग का फड़कना सूचित कर रहा है कि प्रभु युद्ध के लिए प्रस्थान कर चुके हैं । जो – जो सकुन राम जी के लिए मार्ग में दीख रहे हैं वही पर रावण के लिए उसके सामने अपशकुन दीख रहा । अपार वानर भालुओं की सेना गरजते हुए चल पड़ी । उनकी सेना के पास कोई युद्धक समग्री नहीं । नख उनके शस्त्र है । पहाड़ और वृक्षों को उखाड़कर लड़ने वाले योद्धा वीर बन्दर और भालू अपनी स्वेच्छा से विचरने वाले कोई आकाश से होकर तो कोई पृथ्वी पर सिंह नाद करते जब चलते है तो लगता है सभी दिशाएँ सेना के पैर की धमक से डोलने लगी । इसी तरह उनकी सेना सागर के किनारे पहुँच गयी ।
 जब लंका का दहन कर हनुमान जी लौटे , उसी समय से लंका के राक्षस सशंकित रहने लगे । सभी अपने – अपने घरों में सोच रहे थे कि जिसका दूत आकर नगर का ऐसा हाल कर दिया , उसकी सेना का पहुँच जाना यहाँ के लिए बड़ी तवाही होगी । दूतियाँ सब आकर नगर वालों की चिन्ता की खबर जब मन्दोदरी से कह सुनाई तब वह व्याकुल होकर अपने पति के पास बैठकर नीति पूर्ण बात समझाने लगी । हे प्रिये ! कृपाकर भगवान से विरोध का भाव त्यागिये । मेरी बातों को लंका के लिए हितकार मान अपने हृदय में धारण कीजिए जिनके दूतों द्वारा मचाये गये विध्वंश को याद कर राक्षसियों के गर्भ नष्ट हो जाते हैं , उनकी पत्नी को अपने मंत्रियों को बुलाकर उनके साथ सादर पहुँचवा दीजिए । इसी में आपकी भलाई है । इस राक्षस कुल के कमल वन को गलाने के लिए सीता जाड़े की रात बनकर आयो है । हे पति ! सीता को लौटाये बिना भगवान शंकर और ब्रह्म भी भला नहीं कर सकते ।
 रामजी के वाण सर्पो के समूह जसे है और राक्षसगण मेंढ़क जैसे । जब तक वे सब हमें निगल नहीं जाते तब तक हम अपना हठ त्यागकर बचाव का उपाय कर लीजिए ।
 मंदोदरी की बातों को अपने कान से सुनकर संसार में जाना जाने वाला अभिमानी रावण हँसकर कहा- सचमुच नारी का स्वभाव ही भय से भरा है । तुम्हारा हृदय बच्चा है जो मंगल में भय करता है , अरे , वानरों की सेना के आने पर हमारे राक्षस खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे । जिसके भय से दिशाओं के दिक्पाल डरते हैं उसकी पत्नी डर जाय यह हँसाई की बात है । मेदोदरी के प्रति प्रेम भाव दर्शाते हुए हृदय से लगाकर जब राज सभा में रावण चला गया तो वह सोच रही है कि उसके पति पर विधाता विपरीत हो चुके हैं ।
 सभा में बैठते ही रावण को खबर मिली कि भगवान राम की सेना समुद्रपार कर नगर की सीमा में आ चुकी है तब उसने मंत्रियों से पूछा कि इस समय क्या किया जाय । सभी सभासदों ने हँसकर कहा अरे चुप रहिए न । जिस समय आप देवताओं और राक्षसों को जीतकर एकछत्र राजा बने उस समय आपको थकान तक नहीं आयी , आज नर और बानर से आपकों क्या भय है ?
 सचिव वैध – गुर तोनि जौं प्रिय बोलहि भय आस ।
 राज धर्म तन तीति कर होई वेगहि नास ।।
 
 जब मंत्री वैध और गुरु भय की आशा में हित की बात न कहकर प्रिय वाणी बोलते हैं तो क्रमशः राज्य , शरीर और धर्म तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है । आज यह सत्यतः रावण के साथ समझाने सभा में पहुँचे । सिर नवाकर आसन पर बैठे । आज्ञा पाकर बोले अगर आप मुझसे विचार पूछते हैं तो अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ ।
 जो चाहे आपन कल्याना । सुजसु सुमति सुभगति सुखनाना ।।
 सो पर नारि लिलार गोसाई । तजउ चउथि के चंद की नाई ।।
 
 चौदह भुवन एक पति होई । भूत दोह तिष्ठति नही सोई ।।
 गुण सागर नगर नर जोउ , अलग लोभ भल कहई नकोउ ।।
 
 दो ० काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
 सब परिहरि रघुवरहि भजहु भजहि जेहि संत ।।
 
 तात राम नर नाहि भूपाला । मुवनेश्वर कालहुकर काला ।।
 वह अनामय अज भगवंता । व्यापक अमित अनादि अनंता ।।
 
 गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपा सिन्धु मानुष तनु धारी ।।
 जन रंजन भंजन खल वाता । वेद धर्म रक्षकसुनु भ्राता ।।
 
 ताहि वयरु तजि नाइअमाथा । प्रणतारति भंजन रघुनाथा ।।
 शरण गहे प्रभु ताहिन त्यागा । विश्वद्रोह कृत अधजहि लागा ।।
 
 तासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रकट सम्मु जियरावन ।।
 
 विभीषण बार – बार पैर पकड़कर रावण से विनय कर रहे हैं कि मान , मोह , एवं मद त्यागकर कौश्ल नरेश राम को स्मरण कीजिए । मुनि पुलख्य जी ने अपने शिष्य के साथ यह सम्वाद भेजा है जिसे अभी मैंने समय के अनुकूल और अनुरुप कही । उनके ही सचिव माल्यवंत बड़े ज्ञानी थे , वे उनकी बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक बोले कि आपके छोटे भ्राता नीति निपुण हैं वे जो कहते है उसे हृदय में धारण कीजिए ।
 यह सुनते ही रावण बोला- ये दोनों ही दुश्मन के हित की बातें करते हैं । पुकार कर कहा- कोई है ? यहाँ से इसे दूर करो । तब माल्यवंत तो घर लौट ही गये किन्तु विभीषण जी फिर बोले –
 सुमति कुमति सबके उर रहही , नाथ पुरान निगम अस कहहीं ।।
 जहाँ समति तहँ सम्पतिनाना । जहाँ कुमति तहँ विपति निधाना ।।
 
 तब उर कुमति वसी विपरीता । हित अनहित मानई रिपु प्रीता ।।
 काल राति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।।
 
 दो ० तात चरण गहि मांगहु राखहुँ मोर दुलार ।
 सीता देहु राम कहुँ अहितन होई तुम्हार ।।
 
 विभीषण ने पंड़ितों , पुराणों और वेदों से सम्मत वाणी से नीति की बात कहीं , किन्तु उसे सुनते ही रावण क्रोधित हो , उठकर बोला- दुष्ट अब तुम्हारी मृत्यु निकट आ गयी है । अरे दुष्ट तुम मेरे जिलाये जी रहा है और दुश्मन का पक्ष तुम्हें सुहाता है । दुनियाँ में कोई ऐसा मूर्ख नही जो कहता हो कि मैंने अपनी भुजबल से नहीं जीता है । मेरे राज्य में रहकर उन तपस्वियों पर प्रेम निभाता है , उन्हीं से जा मिलो और उन्ही को नीति सिखा । ऐसा कहकर वह अपने पैर से विभीषण पर प्रहार किया । विभीषण बार – बार उसके पैर पकड़े । संतो का यही बड़प्पन है कि जो भला करे उसे बुरा समझे ? तुमने पिता के समान होकर मुझे , लेकिन रामजी को भक्ति में ही तम्हारा कल्याण हैं । आकाश मार्ग से सचिवों को साथ लेकर जाते हुए सबों को सुनाकर कहा- मैं संकल्प पूर्वक सच कहता हूँ कि तुम्हारी सभा काल के वश हो गयी है । अब मैं राम की शरण में आ गया हूँ । इसे बुरा न समझो । जैसे ही विभीषण यह बोलकर चला , उसी समय रावण आयुहीन हो गया । संत की अवज्ञा से तुरंत ही संसार को हानि होती है । रावण ने जब से विभीषण को त्यागा तब से वह वैभवहीन हो गया । खुश होकर तरह – तरह का विचार करते हुए रामजी के पास जा रहा है । मैं जाकर सेवकों को सुख पहुँचाने वाले रामजी के लाल , कोमल – कमल सदृश चरण को देखूगा जिस पद के स्पर्श से अहिल्या का उद्धार हुआ । दण्डक वन भी सुखद बन गया । जिस पद को भगवान शंकर अपने उरमें धारण कर अहोभाग्य मानते हैं उसे मैं देख पाउंगा । जिस पैर के खराउँ को भरत अपने मन में धारण किये उसे मैं जाकर अपनी नजर से देलूँगा । इसी प्रकार विचार करते हुए समुद्र के उस पार पहुँचे तो कपिगण विभीषण को आते देखकर समझा कि हमारे शत्रु का कोई विशेष दूत है । उसे ठहराकर सुग्रीव के पास जाकर समाचार सुनाया । सुग्रीव ने कहा- हे रामजी ! रावण का भाई मिलने आया है । यहाँ राम रावण युद्ध की भूमिका चल रही है । सुन्दर राजनीति का प्रतिरक्षात्मक एवं कूटनीतिक प्रकरण का नीति परक उदाहरण प्रस्तुत हो रहा है । रावण की ओर से सारी अनैतिक प्रक्रिया चल रही है । अरण्य काण्ड से ही लेकर उसका प्रारंभ हो चुका है । सूर्पनखा का प्रणय निवेदन और बरवश दवाव बनाना ही माना जाय कि देव – दानव संघर्ष का वोजारोपण है । सीता हरण उसकी पराकाष्ठा है और विभीषण का अपमान ही उसकी परिणति है । विभीषण का रामादल में प्रवेश एक कूटनीतिक भूमिका है साथ ही सतपथ का अनुशरण , धर्म का संरक्षण , सुर , सत , गौ , ब्राह्मण और धरती की मर्यादा का प्रश्न एक राजैतिक उत्कर्ष है जिसके प्रतिष्ठापनार्थ यगान्तकारी प्रयास कई कल्पों पूर्व से चल रहा था जिसका प्रायोजित प्रकरण रामावतार में ईश्वर का सगुण रुप “ नरतनुधारी ” धनु – पाणि , कौशलेश , दशरथनन्दन का कौशल्या के गर्भ से अवतरण हुआ । गाधि – सुतविश्वामित्र के साथ राम लक्ष्मण का प्रस्थान और तारका अहिल्या आदि का उद्धार , रामचन्दजी का अघतारण और असुरनिकन्दन के रुप में देखा आना तथा सीता स्वयंवर में रावण सहित वाणासुर एवं हर देश के पराक्रमी वीर योद्धाओं को निरस्त्र कर शिवचाप का खण्डन एक बड़ी चुनौती का प्रदर्शन रहा । राम राज्याभिषेक का राम वन गमन में परिवर्तन एक अभूतपूर्व इतिहास रचना नहीं , एक युगान्ताकारी घटना का स्वरुप लिया , जिसमें कुल गौरव का पालन तथा वचन की रक्षा के संकल्प साधन का अद्भुत समन्वय सिद्ध हुआ जिसका गायन शंकर पार्वती सहित भारद्वाज , याग्वल्क्य जैसे ऋषि , काक मुशुण्डि , वशिष्ठ , अत्रि , नारद एवं बाल्मीकि तक ने किया है ।
 सम्प्रति विभीषण का आगमन रामादल के लिए चिन्ता का प्रश्न के रुप में दिखा किन्तु शरणागत वत्सल रामचन्द्र जी ने उन्हें अपना भक्त तक स्वीकार किया । इतना ही नहीं , जिसका श्रेष्ठ भाई रावण को ब्रह्मा एवं शंकर जी से अपना पराक्रम और राज सत्ता प्राप्त करने में जितनी तपस्या करनी पड़ी थी , उस भक्त वत्सल भगवान राम ने सरल स्नेह वश विभीषण को अर्पित कर दी । यह माने तो उनकी दया निधानता की सीमा है अथवा भाई भरत – सा स्नेह पाश जिसमें लंकेश को अवधेश के हृदय में प्रतिष्ठित किया ।
 इधर रावण ने एक दूत राभादल में जानकारी लेने के लिए भेजा तो उसकी दुर्दशा तो वानरों ने कर दी किन्तु राजनीति का पालन करते हुए अपने पत्र में सीता के प्रत्यावर्तन के संवाद भेजे और दूत ने जो सत्य वचन सुनाये वह रावण को गले के नीचे नहीं उतर पाया , बल्कि उसने राम की शक्ति को कमतर बता कर उपहास किया । रामचन्द्र जी द्वारा लंका प्रवेश के लिए समुद्र पार करने के लिए मार्ग की मांग एक भर्यादित भाव श्रृंखला का अद्भुत उदाहरण है जिसे अनुज लक्ष्मण भी नहीं समझ पायें । सागर की गंभीरता में विशालता निहित है जिसे गौरवोक्ति प्रदान करने का प्रयास श्री रामजी ने किया किन्तु जड़ पकृति की निसंवेदनशीलता पर भक्त प्रवर की प्रखरता भी दर्शनीय है जहाँ से सरासन तान कर समुद्र को शरणापन्न कराया ।
 रामचन्द्र जी गुण , बल और शील के सागर है । नियम और नीति से डोलने वाले नहीं । उनके धैर्य का ठिकाना नहीं । वे क्रोधित नही होते । यह तो उनका पराक्रम है जो दुष्टों , पतितो और मद पालने वालों को पछाड़ डालते हैं और फिर शरण में आने पर अपने स्नेह से सद्गति देते है । उन्ही ही कृपा से अठारह पद्म लक्ष बन्दरों की सेना का समूह उनकी सेना में लड़ने के लिए जुटे थे । उनके सैन्य दल में ही ऐसे वीर थे जो पत्थरों के बड़े टुकड़ों को छूते ही हल्का कर देते थे जिससे वे सागर में तैरने लगते थे । उनका नाम नल और नील था । ऐसे राम के सुयश तीनों लोक में मर्यादित थे ।
 इसके विपरीत नीति विरुद्ध आचरण वाला मदान्ध रावण को काल घेर रखा । उसे राज्य और अपने पराक्रम पर अभियान इतना था कि जब उसका दूत रामादल से लौटकर लंका गया तो राम के प्रभाव का यसगान किया । फिर लक्ष्मण के हाथ से प्राप्त रावण का पत्र भी दिया । उसे रावण ने अपने बांये हाथ से ग्रहण किया । उसकी प्रतिक्रिया इस प्रकार रही कि धरती पर पड़ा – पड़ा वह लक्ष्मण काश को पकड़ना चाहता है ?
 दूत शुक ने कहा- मेरा कहना सत्य मानिये । क्रोध त्यागकर राम को मन में धारण कीजिए ।
 अति कोमल रघुवीर प्रभाउ । जदपि अखिल लोककर राउ ।।
 मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहहि । उर अपराध न एकउ धरिहहि ।।
 
 जनक सुता रघुनाथहि दीजे । एतनहि कहा मोर प्रभु कीजै ।।
 जब तेहि कहा देन वैदेही । चरण प्रहार कीन्ह सठ तेही ।।
 नाई चरण सिरु चलासे तहाँ । कृपा सिन्धु रघुनायक जहाँ ।।
 
 करि प्रणाम निज कथा सुनाई । राम कृपा आपनि गति पाई ।।
 ऋषि अगस्त के शाप भवानी । राक्षस रहेउ महामुनि ज्ञानी ।।
 वंदि राम पद बारहि बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ।।
 
 अब जरा समुद्र की बात सुनिये । राम जी को अनुनय विनय के साथ समुद्र से मार्ग मांगते तीन दिन बीत गये । तब रामजी को क्रोध जगा । वे बोले- अब भय दिखाये बिना प्रेम सम्भव नहीं , लक्ष्मण , मेरा धनुष वाण लाकर दो । वाण की आग से समुद्र को सोख जाउँ । सठ के साथ विनय और कुटिल के साथ दोस्ती- कंजूस के साथ सहजता और सुन्दर नीति के प्रतिजोममता रखता हो उसे वैराग्य की कहानी तथा क्रोधी कामी के साथ भगवान की क्या , उसर जमीन में बीज डालने जैसा है । जब रामजी क्रोधवश धनष पर वाण चढ़ाये तब लक्ष्मण जी को अच्छा लगा । वाण साधते ही समुद्र के अन्दर ज्वाला फैली और जल के जीव व्याकुल हो उठे । यह जानकर समुद्र थाली में रत्नों – मनियों को अनेकों प्रकार से भरकर ब्राह्मण वेष धारण कर प्रकट हुए । जब केला का फूल काट दिया जाता है तब ही उसका फल पुष्ट होता है नहीं तो कितना भी सींचा जाय परिश्रम व्यर्थ जाता है । गरुड़ जी काक भुशुण्डि जी से कहते है कि विनय नहीं मानने पर भगवान ने इस प्रकार डॉटकर कहा , उस समय समुद्र रामजी के चरण पकड़ लिए और अपने दुगुर्गों के लिए क्षमा याचना की । हे नाथ ! आकाश वाय अग्नि जल और पृथ्वी इन सबके कार्य सम्भवतः जड़ है । यह आपकी ही माया ने सृष्टि के लिए पंचातत्व के नाम से ग्रंथों में वर्णन किया गया है । जिन्हें स्वामी की जैसी आज्ञा है वैसा ही निर्वाह करने में उन्हें सुख मिलता है । भगवान न अच्छा ही किया कि मुझे शिक्षा मिल गयी , लेकिन यह मर्यादा अथवा स्वभाव भी आपही का दिया हुआ है । ढोल , गॅवार , शुद्र , पशु और स्त्री ये सभी शिक्षा के ही ( दंड के ही ) अधिकारी तक लिये गये हैं । आपके प्रभाव से अगर मैं सूख ही जाउँ और आप पार हो जायें तो इसमें मेरी कोई मर्यादा नही रहेगी फिर भी अब आपकी जो इच्छा हो वैसा ही किया जाय । तब भगवान ने कहा- जिस तरह यह वानरी सेना समुद्र पार कर लंका पहुँचे , वही कार्य हो ।
 हे भगवन , आपकी ही सेना में नल और नील नाम के दो शिल्पी बन्दर हैं वे आपके प्रताप से समुद्र में सेतु निर्माण कर सकते है और उसी वाण से समद्र के उत्तरी तट पर बसने वाले दुष्ट राक्षसों का नाश कर सकते हैं । इतना सुनते ही रामचन्द्र जी ने शीघ्रता से उन दुष्टों का संहार कर दिया । जिस वीरता का प्रमाण पाकर सागर के मन की पीड़ा जाती रही । इस प्रकार भगवान राम के चरित्र तो आनंददायक है ही , जिन्हें सुनकर बिना जहाज की यात्रा किये ही भक्त सांसारिक कष्टों से पार हो जाया करते हैं ।
 देखिये , यहाँ पर राक्षसी माया और भगवान की माया के बीच समुद्र की माया एक अवरोध है जिसे दूर कर ही रावण का नाश संभव होगा । आज भी भारत सरकार और भारतीय गणतंत्र के नागरिकों के बीच ऐसी ही स्थिति बन चुकी है । वर्णन से परे है । निदान कठिन हो चुका है । नर से नारायण तक भ्रष्टाचार के समुद्र में गोते लगा मणियाँ उछाल रहे हैं , भारत माता रुपी जनता दुखी है । संत , ज्ञानी पुरुष , गणतंत्र के घटक दल , विभागीय पदाधिकारी सहायक और सेवक तक सत्ता की स्वेच्छा चारिता , शोषण और जनआकांक्षा की उपेक्षा के कारण संतप्त है । समाज सुधारक , नीति निर्धारक , लेखक , समालोचक तक सत्ता के शुभ चिन्तक होते हुए निरादर पा रहे है सिर्फ सत्ता प्रेमियों और पूँजी पतियों का बोल वाला है । पूँजी पति ही गणतंत्र का पृष्ठ पोषण कर रहे हैं किन्तु उनकी महत्त्वाकांक्षा भी सत्ता पर भारी पड़ रही है । सभी विवेक खो चुके हैं । समाज , जातियों , वर्गों , क्षेत्रों और सम्प्रदायों में बॅट चुका है । उनका नेतृत्त्व विखर चुका है ।
 अलग – अलग खेभों और विचारधाराओं में बँटा समाज एकता नहीं जुटा पा रहा । चुनावी प्रक्रिया में बल , अर्थ और झूठे वादे ही काम कर रहे । सत्ता भी कमजोर पड़ी । इस जनतंत्र को भी भली प्रकार चला पाना कठिन हो रहा है । राजनैतिक दलों की शुचिता , सेवा और कर्मठता पर प्रश्न चिन्ह लग चुका , ऊपर गठबान और नीचे जातीय ध्रुवीकरण की रसा कशी में साफ – सुथरी सरकार की सम्भावना जाती रही । राष्ट्रीय संसाधन और राजकोष का दुरुपयोग तो आम बात रही , सत्ता की अस्थिरता , जन असंतोष और आक्रोश के बीच आंतरिक और बाहरी आतंकवाद नीति , न्याय , प्रेम , सद्भाव , शुचिता , स्वास्थ्य , सुरक्षा और सहयोग का वातावरण नहीं रहा । रोग , कर्ज , प्रदूषण , अनैतिकता , हिंसा , प्राकृतिक आपदायें एवं दूषित मानसिकता में धर्म पाखण्ड मात्र रह गया । आज राम चरित मानस भारत वासी हिन्दुओं के घर – घर में जो पूजनीय रही , उस ओर से नयी पीढ़ी अपना मुँह मोड़ रखी है । धर्म प्रचारक और उपदेशक व्यावसायिक धंधा बना रहे हैं । सभी धार्मिक संगठन , सरकारी या गैर – सरकारी सेवा समूह अपना विश्वास खो चुके । सबके बीच भोगवादिता , स्वार्थ परिग्रह , लोभ , ममत्त्व और अविवेक भरा है । लूट हिंसा और अनैतिक व्यवहार तथा व्यापार इस युग की सोच बन चुकी है । राम राज्य एक कल्पना है । विभीषण रो रहे है । वशिष्ठ व्याकुल हैं । मंथरा की वक्र चाल फल – फूल रही है । गंगा प्रदूषित हो चुकी । ज्ञानियों का मुँह बन्द है । गाँधी , बुद्ध , महावीर और ईसा नाम मात्र ही रह गये । वे राजनीति के शस्त्र हो सकते है , आदर्श नहीं । यही है तुलसी दास जी द्वारा चित्रित कलिकाल के कलुषित कार्यकलाप जिनके सुधार के लिए मात्र राम नाम का स्मरण ही सब कष्टों का निवारक सुझाया गया है ।
 रामचन्द्र जी के नेतृत्व में एसिया महादेश के आर्यावर्त में रावणत्त्व पर विजय पाकर राम राज्य की स्थापना हुयी किन्तु अब तक में द्वापर का महाभारत भी दुहराया गया । कृष्णचन्द्र जी का नेतृत्त्व भी सुना जाता है कि 36 कोटि यदुवेशियों के संहार के बाद युगान्तकारी शासन की नीव पड़ी । तदन्तर यवन , शक , हूष चोल चालक्य , गुलाम , गजनी , लोदी , तुगलक , सूर , मुगल और अंग्रेज भारत को अपना भक्ष्य बनाए । अब हम सब आर्यावर्त वासी विनाशकारी युग में विवश और विषन्न पड़े है ।
 आवश्यक है कि पुनः नवीन सेतु का निर्माण कर कलियुग के रावण को पुतला के रुप में न जलाकर अपना संहार करने की कुत्सित सोच हटाकर राम सेतु जैसा प्रशस्त पथ निर्माण हो जाय , वैसा नही जैसा एसिया का द्वितीय सेतु , ” महात्मा गाँधी सेतु ” । आज की तिथि को ( देवोत्थान 2018 कार्तिक शुक्ल एकादशी ) भगवान विष्णु क्षीर सागर से नींद मे सो चुके हैं । उनसे यह भक्त पुनः निवेदन करता है कि हमारा रावण देश छोड़कर विदेश भागने वाला है । अतः एक प्रत्यावर्ती सेतु का निर्माण हो जहाँ से सारे गुण जोविलुप्त होते जा रहे हैं , उनका पुनस्थापन हो । वैसा सेतु निर्माण करने वाला तपस्वी को नेतृत्त्व सौंपकर सफल जनतंत्र की नीव डाली जाय ।
 इधर आज की तिथि में मेरी साधना लंका काण्ड की ओर बढ़ रही है । सामने भारत की पुण्य सलिला गंगा का स्नान समस्त पापों का दलन करने वाला है जो शुक्रवार का सुनश्चित है । हमारे रामचन्द्र जी जिन्हें वेद और अपनी संस्कृति के सभी ग्रन्थ अन्तर्यामी और समदर्शी बताते हैं , गंगा पार कर ही वन प्रस्थान किये थे । स्नान और पूजा की थी पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधा था । सफल यात्रा की कामना उनके मन में थी । ऋषियों का कल्याण , पापियों का संहार और अपने सेवकों भक्तों को सद्गति दी थी । उसी प्रकार मेरी भी प्रार्थना है कि काल और दिगंचल को समेट कर नव सुसंस्कृत भारत के निर्माण में त्रिविध सभीर वहा कर सारे प्रदूषण को दूर करने का कार्य प्रारंभ हो जाय । यहाँ भी रावण राज्य ही है , जहाँ राम पर भी संकट है ।
 भयोक्तों मैथिली तस्मै बहुसो दीयतामिति ।
 न मे श्रृणोति वचनं सुहृदाम् लोककार णात ।।
 ( बाल्मीकीय रामायण से उद्धृत )
 
 यद्यपि सुशासन का हो हल्ला है तथापि जनआकांक्षाओं पर भारत सरकार पूर्ण संवेदनशील नहीं , जैसे रामचन्द्र जी की प्रार्थना पर समुद्र चुपचाप रहे । राज सत्ता और जन सत्ता में अन्तर है । जनतंत्र की आवश्यकता का ही तात्पर्य है सत्ता में जनता का हाथ । जहाँ सत्ता में त्याग चाहिए , वहाँ वह शोषण करे तो राज धर्म रुपी जनतंत्र रहा कहाँ ? अतः राजनैतिक चरित्र में नीति निपणता चाहिए जो गणतंत्रात्मक सत्ता में व्यावहारिक नही दिखती अगर यही स्थिति रही तो ब्राह्मो सत्ता का प्रादुर्भाव कब दिखेगा ? वैसी हालत में रामचरित मानस को लोकनायकत्त्व नहीं मिल पायेगा ।
 ” जय जय सुरनायक जन सुखदायक , प्रणत पाल भगवंता ।। “
 
 उपरोक्त भाव पर हमारा विश्वास कैसे टिकेगा ? आज हमारे यहाँ के शिक्षित वर्ग ( समुदाय ) उपभोक्तावाद में विश्वास रख रहे हैं । वे वह भक्ति कदाचित अपने भाव में ग्रहण नहीं करते जो राम चरित मानस कहता है । इस अन्तर को मिटाकर सामाजिक स्वरुप को नीति परक और धर्मपरायण के साथ प्रजा पालक की भूमिका में रुझान परिलक्षित हो इसका अघः पतन रुकना चाहिए , तब रामचरित मानस की व्यावहारिकता को सत प्रतिशत सकरात्मक माना जा सकेगा । आत्मविश्वास की भूमि हमारी संतुष्टि है । सतही उपदेश नहीं ।
 हमें बताया गया –
 ” भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणा ।
 याभ्याम बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरं ।।
 
 इस कथन में हम श्रद्धा और विश्वास रुपी दो निगुण सत्ता शंकर और पार्वती को पाते हैं । यह भाव दर्शण श्रद्धालुओं आस्थावानों के लिए अभिप्रेत जन सामान्य या त्रिगुणात्मक सत्ता के लिए अलभ्य ही हैं ।
 फिर हम राम चरित मानस में देवताओं द्वारा अपने स्वार्थ साधन के लिए या सुर , नर , मुनि , धरनी , गौ और ब्राह्मण के हित में सरस्वती जी का प्रयोग षड़यत्रकारिणी की तरह प्रथमतया मंथरा के माध्यम से कैकेयी का हदय परिवर्तन करवाने में किया गया तथा राम – भरत – मिलन ( वनवस के समय ) के समय भी भरत के हृदय परिवर्तन कराये जाने में किया गया । आज शिक्षा की स्थिति वैसी ही है जिस तरह असुरों ने धरती को नरक में डाल दिया था उस शिक्षा की अधिष्ठातृ देवी सरस्वती जो पूजनीय है , हम उनसे षड़यन्त्र की तो नहीं , विशुद्ध सारस्वत धर्म निभाने का आग्रह करते हैं कि वे भारतीय आर्ष संस्कृति के गौरव को बचाने में सहयोग कर उस कथन को चरितार्थ करें जो गीता में कृष्ण ने भी बतलाया ।
 परित्राणय साधूनां विनाशाय न दुष्कृतां ।
 धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
 
अब हम लंका काण्ड की ओर अग्रसर होने वाले हैं । राम रावण से लड़ेगे । सच माने तो यह प्रसंग धर्म युद्ध के प्रतीक के रुप म जन – जन के हृदय में स्थान न पाकर तथा कथित मनोरंजन का व्यक्तिकरण परता है । रामानन्द सागर ने तो इस दिशा में कुछ किया जरुर था । “ रामायण ‘ का श्रृंखला बद्ध प्रदर्शन द्वारा या तो इस महत्वपूण वैज्ञानिक अनुसांधान को जन – जन का मनोरंजन ही किया नहीं तो उसके द्वारा लोगों को टी ० वी ० खरीदने की ओर प्रेरित कर कंपनी को लाभ पहुँचाना । नहीं तो इतना बड़ा रोचक और आकर्षक कार्य क्रम हम को वर्तमान जन मानस में कहाँ प्रतिष्ठित कर सका । यही तो हुआ इधर हिन्दु समाज एवं परिवारों में , कि रामायण लाल कपड़ में लपेट कर जो दीवार के ताखे पर स्थायी रुप से डाल दिया गया उस पर पाठक की श्रद्धा दृष्टि कभी झांक न पा रही ।
 मैं न नास्तिक हूँ और न राम तत्त्व या राम को मर्यादा पुरुषोत्तम रुप का आलोचक हूँ । मेरी राम में श्रद्धा है । बचपन से आजतक । ज्यादा समय मैंने राम चरित मानस का भक्ति भावेन पाठ नहीं किया करता । स्वाध्याय कर उसके गूढार्थ में प्रवेश का प्रत्याशी हूँ । भावुकता और रोमांचकता का लाभ पाता हूँ । अभी जो मेरी लेखनी बोल रही है उस भाव को युगीन परिप्रेक्ष्य का मूल्यांकन माने या जनभाषा में उद्धृत भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण , मैंने उचित समझा है इस रुप में , जो जनतांत्रिक बहुमत से जुड़ी अन्तरात्मा की आवाज है । जब देवतागण मूकबन चुके थे , रावणत्त्व की माया उन्हें किंकर्त्तव्य विमूढ कर डाली थी तो वेष बदल कर धरती माता गौ का रुप धारण कर ब्रह्माजी के पास जाकर स्तुति की और पृथ्वी पर व्याप्त सृष्टि के संकट निवारण में जो शोक और संदेह फैल रहा था , उसकी समाप्ति का वचन मिला था । मुझे मन में यह भाव मुखर होकर लेखनी के माध्यम से भी सरस्वती माता से विनम्र प्रार्थी हूँ कि भारत से संस्कृति की विदायी रोकी जा सके । मेरी यह साधना 12 दिसम्बर 2018 तक है । और इसकी अनुप्रेरणा का काल 2019 की राम नवमी तक की प्रत्याशा पाल रखी है ताकि भारत वासियों की मोहान्धता का निवारण हो ।
 ( यह भाव मेरे लेखन काल के है । आज दिनांक 10 अगस्त 2021 ई ० )
 ( डा ० जी ० भक्त )

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