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प्रतिस्पर्धा से उपजी समस्या

( डा ० जी ० भक्त )

 प्रतिवस्पर्धा एक रजोगुणी भाव है । यह भाव किसीसे प्रतिद्वंद्विता पैदा करता है । किसी को शिकस्त देना या उससे आगे बढ़कर कर लेने का भाव ही प्रतिस्पर्धा है । इसके कई आयाम सामने आते है , यथा – सापेक्ष रुप से अपनी सफलता दर्ज कराना , किसी को पीछे छोड़ अपनी प्रतिभा दर्शाना , अपने आप को अन्य से कमतर सिद्ध नहीं करने की अपेक्षा पालना , अपनी क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य लेकर बढ़ना , कामयावी के शिखर पर पहुंचने की प्रत्याशा पालना , किसी व्यक्ति विशेष को नीचा दिखाने का प्रयास करना । ऐसा कदम बढ़ाने वाले , परिश्रमी , स्वाभिमानी , महत्त्वाकांक्षी , किसी हीन भावना से ग्रस्त या ग्लानि से उपर उठने की अदम्य इच्छा रखते है ।
 प्रतिस्पर्धा की महत्त्वाकांक्षा कभी वंचना , आक्रामकता तथा दुराव की भावना से ग्रस्त भी होते हैं । ऐसी प्रवृति वाले जन हित का गला घोंटते तथा समाज को कमजोर बनाते है । उच्च पद पाकर भी निरंकुश , शोषक , और जन सरोकारों से दूर होते हैं । कदाचित ऐसे लोग समाज का कल्याण नहीं चाहते । उन से समस्याएँ गुणित स्वरुप लेती है । जन मानस वर्गों में विभक्त होता है । एक अराजकता की स्थिति पैदा होती है । इसके मूल में आर्थिक एवं सामाजिक कारण ज्यादा प्रभावी होते हैं । कही वैयक्तिक द्वेष या पूर्व में उपजी हीन अवधारणा काम करती है । जाति , भाषा , धर्म और स्थानीय कारण भी उसमें सहयोगी बनते है । आजकल क्षेत्रवाद भी एक अन्य कारणों में एक कारण है ।
 प्रतिस्पर्धा के पीछे स्वार्थी , महत्त्वाकांक्षी निरंकुशता अथवा क्रूरता ला सकती है । ऐसे लोग “ एकोहम द्वितीयोनास्ति ‘ का भाव रखते हैं । कहीं भी कट्टरता मानवता का विरोधी है । साधन सम्पन्नता , बलविक्रम , किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित होना अथवा वैयक्तिक कटुता के कारण प्रतिद्वंदिता उपजना एक आवेश है जो अन्य के लिए बाधक बनता है । ऐसे वातावरण से प्रभावित समुदाय कदाचित कुंठा ग्रस्त होकर वैकल्पिक रास्ता अपनाने के लिए विवस होते हैं ।
 शिक्षित एवं वैचारिक रुप से प्रगत लोगों को अन्दर जागरुक और बाहर से सामाजिक एवं राष्ट्र हित का पोषक बनकर अपने जीवन को अगर दिशा मोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हो तो निश्चित रुप से जनकल्याण का मार्ग अपनाएँ । इसके लिए सहयोग भावना या सामुदायिक सेवा कार्य का लक्ष्य लेकर आगे बढ़े , तो अर्थ , श्रम , सहयोग और समर्थन मिलकर एक बड़ी शक्ति का प्रणयन होता है और आपके सामने कोई प्रतिद्वंदी खडा नही दिखता है । आज के युग में प्रतिस्पर्धा की चरम सीमा में सामुदायिक जीवन की समरसता को ताड़ने का प्रयोग जोर पकड़ता जा रहा है । राजनीति में ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं । अतः समाज सेवा से ही इस कट्टरता को मार्ग से हटाया जा सकता है । सामुदायिक सद्भाव जहाँ सहज सुलभ होगा यहाँ प्रतिस्पर्धा पीछे पड़ जायेगी हौं , जहाँ की व्यवस्था में विशुद्ध पतिस्पर्धा जागरुक हो जिसमें वैमनस्यता का लेश मात्र न हो और समाज में दुराव न पैदा हो तो जन हित के साथ कोई टकराव सम्भव नहीं हो सकता ।
 यह भी सत्य और स्वीकार्य है कि जहाँ लगन पूर्वक जो जीवन के पथ पर अग्रसर होकर जन हितार्थ अपने आप को समर्पित करने का लक्ष्य लेकर चल रहा हो वह अवश्यमेव स्वयं समाजिक नेतृत्त्व का सफल और सुदृढ़ विकल्प बन जाता है । ऐसे अनेको उदाहरण विश्व में चिररमरणीय हैं । वर्तमान में भी ऐसी हस्तियों हर क्षेत्र में पायी जा रही है । जिनको गौरव प्राप्त है । अगर आप ऐसे लोगों का नाम बतायेंगे जो विजयश्री प्राप्त जनों की सूची में अग्रणी है जो प्रतिस्पर्धा की तथा कथित चरम स्थिति को पार कर गये है तो उनका इतिहास कभी धूमिल ही दीखेगा , ऐसा भी उदाहरण आप देख सकते हैं ।
 स्पर्धा रखना भी एक उपयोगी आयाम है । कोई किसी के जीवन से कुछ ग्रहण करता है । उसकी रुचि बढ़ती है । तदनुरुप बनने की लगन उसे तत्पर बनाती है । वातावरण को अपनाने , तद्रूप बनने , उसका लाभ लेने मात्र को ही हम जीवन का लक्ष्य मानते हैं । किसी के पदचिह्नों को आदर्श मानकर उसके अनुरुप जीवन की तैयारी करना प्रतिस्पर्धा नहीं , जीने का लक्ष्य होना चाहिए । हम लक्ष्य की ओर बढ़ें । किसी खास का पीछा न कर अपनी क्षमतानुकूल मार्ग पर बढ़ते जायें । आपका मार्ग अपना हो , तैयारी अपनी हो तो उपलब्धि अपनी होगी । प्रतिस्पर्धा कर हम स्वयं को सीमित ही कर पाते है । अवसर का उपयोग ही जीवन जीना है । हम जीवन भर प्रयत्नशील रहकर असीम उपलब्धि पा सकते हैं । हमारी क्षमता , आवश्यकता , उद्देश्य , लक्ष्य , प्रतिभा , प्रयास और संसाधनों का उपयोग ही हमें सफलता दिलाते हैं । अतः हमारी अपेक्षाएँ ही मुख्य हैं । हम अगर प्रतिस्पर्धा से आहत है तो हमें उसका विकल्प ढूढ़ना चाहिए । वह स्वतः सामने आकर खड़ा हो जायेगा ।

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