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विरासत एक पहेली

 ( डा ० जी ० भक्त )

 यह कोई वरदान नहीं , वायु का प्रवाह होती है , जो जीवन को खास दिशा देती है ।

 ” जीवन के पल प्रवृत्तियों के झकारों से प्रभावित होते हैं कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक दुनियाँ सदा अपने हितों पर ही विचारती है । अपने खास . तो अन्य पराये लगते हैं । इस अपनापन या परायेपन का फांका हमारा दृष्टि – दोष है नहीं तो हम तथाकथित अपनो से धोखा क्यों खाते हैं ? ………और पराये का आश्रय पाकर जीते ………!
 मंगनी का वर जीवन भर दुल्हा कहलाता है और प्यार का पति तलाक का घाँस । इसका निर्वहन एक ऐसी समझ देता है , जो शास्वत न भी हो तो जीवन का आदर्श बन पाना भी कमतर नहीं । इतना ही जीवन यापन के लिए प्रकाश पुज का काम करता है हम कृतज्ञ होते हैं उन क्षणों के निर्णय पर , जिसकी अपेक्षा पूरी सृष्टि रखती है । वह और कुछ नहीं , हमारा एकात्म भाव है । वह निर्णय है , अटूट , अडिग , अविचल , अशास्वत का परित्याग और जीवन्तता की खोज । एक अमिट सम्वेदना , जिसे हम प्रेम कहते हैं ।
 जन से प्रेम , मन से प्रेम , वाणी से प्रेम , कर्म से प्रेम । फलाशा उनके लिए जिन्हें इसकी अपेक्षा है चाहे वे अपने हो अथवा पराये कहे जाने वाले । जब उनमें भी आत्मा है का तो अपनापन के अधिकारी होंगे ही । यह रहस्य भी पहेली नहीं , सुलझा हुआ निर्णय है । विश्व प्रेम का यही संदेश देता है । प्रेम से काल आसानी से कट जाता है । सबेरा हमेशा सुहाना लगता है । प्रकृति खिल उठती ऐसे पुत्रों को पाकर अबतक दुनियों को प्रेम का पाठ पढ़ाते आये । उन्हें प्रभु ने पाला किन्तु जिन्हें प्रेम पसन्द न आया . उनके द्वारा ही उनकी हत्यायें होती रही ।
 ……….लेकिन हम यह भी जानते है कि अभावों से ग्रसित अकिंचन भिखारी भी लोभी होते हैं । कोंगी होते है । सदाचार उनका स्वांग होता है । वे दोहरे व्यक्तिकत्व की चादर ओढ़े चलते हैं । प्रेम के नाम पर हम कही ठगे तो नहीं जा रहे………. ? इतना के लिए लोग सावधान रहते है । यहाँ भी उनका अपने अस्तित्त्व पर मोह है- कही ठगे न जायें ………..आदि । निर्णय निर्णय है । ठगने वाले अज्ञानी है । उन्होंने सत्य को समझा नहीं । आत्मा उन्हें भी है । सिर्फ धन , भोग के लिए । कोई अन्य साँच नहीं । हम उनसे सावधान होना चाहते हैं जो दया या प्रेम के पात्र हैं । यहाँ पर भी हम से भूल होती है । त्याग फलता नहीं । स्वार्थ पीछा छोड़ता नहीं । हम अपने को कहाज्ञानी मान बैठे हैं । पात्र की तलाश करते हैं । सचमुच , सत्यात्र को ही दान फलता है । अगर अगला हमसे ज्ञान की परीक्षा ले रहा हो …….?
 माया के वशीभूत हम कभी रस्सी को सच समझ लेते हैं . कभी पत्थर को भगवान और पुजारी को सदाचारी । जब हमारा ज्ञान कहता है कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत निध्या तो उसमें छिपी ब्रह्मात्मा को ही पात्र मान कर भगवान मानने और उनपर ही समर्पित होने में क्या हर्ज ? जब त्यागना है तो ज्यादा माप – तौल क्यों , अपना मिशन पूरा कर लीजिए । कोई तो लेगा ही । सवाल तो सब दिन जिन्दा ही रहेगा । जब हमारा चरम ज्ञान यही मानता है कि राम नाम ही सत्य है तो उसी पर मर मीटिए . लेकिन वह भी कहाँ ? मंजिल जाने वाले राम नाम जपकर सुनाने जाते हैं । सत्य पर मर मिटने नहीं । पुनः वहाँ से असत्याश्रम में लौट आते हैं । उन्हें घाट पर ही मर जाना चाहिए ।
 नीतिश कुमार जी ठीक करते है । वे तो निरस्पृह हैं । विकास को समर्पित । जी जान से शराब बन्दी में जुटे रहे । नोट बन्दी में हामी भरने मात्र ही । उनहोंने शिक्षा मंत्री भी योग्य चुना है । ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय । वे तो पहले से ही कांग्रेस को समर्पत हैं । शिक्षा के नाम पर पूरे तरस्थ । ” सगुनाहि अगुनहि नहीं कुछ भेदा । शिक्षा गुणवता पूर्ण हो ……… चाहे न भी हो । हमारा इन्फ्रास्ट्रक्चर शिक्षा का दुरुस्त रहे । पूंजी निवेश पर जोर है । उन्होंने कम सोचा विचारा है इन्फ्रास्ट्रक्चर की सुदृढ़ता पर ही सुशिक्षा की भव्यदीवार खड़ी हो सकती है । इसी लिए उन्हें न लालकेश्वर की चिन्ता है न परमेश्वर की । टॉपर तो पैदा हो ही रहे है । पात्र – कुपात्र पर क्या सोचना ।

 ” सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुसतो हमारा , हमारा ………. सारे……..।”

 विरासत में हमें उत्तम संस्कृति मिली है । हम र्गव से चूर हैं । नालंदा वि ० वि ० को वरिख्यार खिलजी ने ध्वस्त कर दी । आज नितीश जी के प्रयासों से हमारी संस्कृति का धरोहर पुनः खड़ा हो पाया है । लेकिन कल ही समाचार पत्र में पढ़ा कि संस्थान की शुचिता पर धब्बे लग रहे है । आपने संस्कृति को शायद पहेली बुझाना समझ लिया है , तो सुलझाते रहें । आप पहले चरित्रवान अध्यापक ही तो निर्णण करें । जहाँ अपसंस्कृति के ही अंकुर फूट रहे हैं वहाँ संस्कृति की कवायद कभी भी प्रश्न चिन्ह ही बनी रहेगी । विश्व में अबतक की संस्कृति में शिक्षा सच्ची विरासत रही । न धर्म , न धन् , न जाति , न राजनीति , अगर बन पाया तो मानव का चरित्र ।
 चरित्र खोकर हम कभी खड़ा रह पाने की क्षमता स्थापित नहीं कर सकते । भारतीय समाज की रचनात्मक पहचान जातिगत है । जातियाँ कर्म ( पेशा ) से जुड़ी है । आज के युग में जातियों टूट रही है । पेशे बदल रहे है । जीवन वही है । स्तर बदला हुआ है । रोटी , कपड़ा और मकान का प्रश्न सबके साथ है । स्वास्थ्य , शिक्षा , स्वावलम्बन का भी सवाल खड़ा है । औधोगीकरण ने गृह कला , शिप्ल और जीवनीय उत्पादों पर अपना एकत्त्व स्थापित कर रखा , तो आर्थिक विषमता आनी ही थी । जब पूँजीवाद जोर पकड़ा तो गरीबी स्थायी रह गयी । आर्थिक उन्नति के अवसर छिन गये । बुनियादी आवश्यकता पर उपभोक्तावाद चढ़ बैठा । आर्थिक विकास हम जिसे मानते हैं वह उसी उपभोक्तावाद या नव पूंजीवाद की झोली में जा रहा ।
 राजनीति के क्षेत्र में जनतंत्र की विरासत एक अच्छी पहल है . पहले अतीत की ओर मुड़कर देखें तो पंडित मोतीलाल नेहरु की विरासत आज आठ – आठ आँसू…….. ।……… और मुलायम जी के घर पर…….। पहेली पर पहल की कोशिश निरर्थक है । कोशिश हो कि हमारी विरासत को हवा के झटके न लगें ।

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