प्रभाग-28 छठा सोपान लंका काण्ड रामचरितमानस
पलकों का उठना और गिरना ( लव , निभेष ) परमायु , वर्ष , युग , और कल्प ये आयु को अलग – अलग प्रभावित करने वाले काल खण्ड हैं जिन्हें हम वाण माने और सम्पूर्ण काल को धनुष । ऐसे शस्त्र को धारण करने वाले शंकर जी को हृदय में धारण करने वाले राम को अवश्य भजना चाहिए ।
जो शंकर भगवान संतों को दुर्लभ कैवल्य ज्ञान देते तथा दुष्टों को दंड , इसके कारण उनको हमारे कल्याण का विस्तार करना चाहिए ।
सृष्टि में सारा पराक्रम निहित है किन्तु फल काल के अधीन है जो भक्ति से प्राप्त होता है । रावण ने तप से पराक्रम पाया है । उसके वश में होकर वह किसी की बात नही मानता उसके लिए राम के वाण ही सही निदान हैं । जहाँ दोनों के मिलन की तैयारी चल रही है । समुद्र ने इन्हीं बातों को समझाया था । भगवान राम ने सचिव को बुलाकर समझाया कि अब देर करने की क्या जरूरत ! समुद्र पर सेतु बनाकर चढ़ाई की जाय ।
जामवन्त ने कहा कि हे भगवन ! सबसे बड़ा सेतु तो आपका नाम है जिसके आश्रय से संसार रूपी सागर को पार किया जाता । यह समुद्र का एक छोटा सा हिस्सा पार करते कितनी देर लगेगी ? तब हनुमान ने कहा प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल है जो पहले ही इस समुद्र के जल को सोख लिया था किन्तु भगवान के शत्रुओं की पत्नियाँ जब विलाप करने लगी तो उनके आँसू से यह समुद्र फिर भर गया । यहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग गोस्वामी जी ने किया है । जामवन्त जी ने नल नील नामक वानरों को बुला सब कुछ समझा दिया । और आज्ञा दी कि भगवान के प्रताप को हृदय में धारण कर काम का प्रारंभ कर दो । मानिये कि जामवन्त जी के कहते ही सारे बानरों के समूह खेल की तरह वन – वृक्षों और पहाड़ों को उखाड़ कर लिये दौड़ते हुए समुद्र में डालना प्रारंभ किया । दोनों भाई नल – नील ने अपनी कला और पराक्रम सहित राम के प्रताप को हृदय में धारण कर सेत का निर्माण कर डाले । सेतु निर्माण हो जाने पर रामचन्द्र जी ने कहा कि भारत वर्ष की यह धरती बहुत ही रमणीक हैं । इसकी महिमा अपार है । मेरे हृदय में यह भावना विराज रही है कि यहाँ पर भगवान शंकर की स्थापना की जाय ।
सुनि कपीस बहु दूत पठाये । मुनिवर सकल बोलि लै आये ।।
लिंग थापि विधिवत करि पूजा। शिव समान प्रिय लागिन दूजा ।।
शिवद्रोही मम भगत कहावा । सोनर सपनेहु मोहिन भावा ।।
शंकर विमुख भगति चह मोरि । सो नारकि मूढ़ मति थोरि ।।
दो ० शंकर प्रिय मम द्रोही , शिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहि कलप भरि घोर नरक नहु वास ।।
जो रामेश्वर दरसनु करिहहि । ते तनु तजि ममलोक सिंघरिहहि ।।
जो गंगा जल आनि चढ़ाइहिं । सो सायुज्य भक्ति नर पाइहि ।।
होई अकाम जो छल तजि सेइहि । भगति मोरि तेहि शंकर देइहि ।।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही । सो बिनु श्रम भव सागर तरिही ।।
राम वचन सबके जिय भाये । मुनिवर निज निज आश्रम आये ।।
गिरिजा रघुपति की यह रीति । संतत करहि प्रणत पर प्रीति ।।
बाँधा सेतु नील नल नागर । राम कृपा जसु भयउ उजागर ।।
बूड़हि आनहि बोरहि जेई । भय उपल बोहित सकि सोई ।।
( यह उन्ही की महिमा है कि जो पत्थर पानी पर डूब जाते हैं । जिनक भार दूसरों को अपने साथ डुबा देते हैं । वे ही पानी पर तैरकर जहाज की तरह अपने पर लेकर दूसरों को पार कराने लगे )
महिमा यह न जलधि कर बरनी । पाहन गुन न कपिन्ह कई करनी ।।
दो ० श्री रघुवीर पताप ते सिन्धु तरे पासान ।
ते मति मंद जे राम तजि भजहि जाई प्रभु आन ।।
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा देखि कृपा निधि के मन भावा ।।
चली सेन कछु वरनि न जाई गजहि मरकट भट समुदाई ।।
अब सेतु बाँध पर चढ़कर प्रभु रामचन्द्र जी समुद्र का विस्तार देखने लगे तो उनके दर्शन के लिए सभी जलचरों के समूह जल के उपर निकल आये । भगवान की आज्ञा पाकर सेना चल पड़ी । कपिदल की सेना का पारावार नही था । कितने बन्दर आकाश मार्ग से उड चले तो कितने समुद्री जीवों पर ही चढ़ कर पार उतर गये । प्रभु दोनों भाई इस दृश्य को देखकर प्रसन्नता से हँस रहे हैं । सेना सहित दोनों भाई समुद्र के पार पहुँचे । सेना को भीड़ गजब की थी ।
सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा । सकल कपिन्ह कहु आयसु दीन्हा ।।
खाहू जाई फल मूल सुहाए सुनत भालु कपि जहँ तह धाए ।।
सब तरु फरे राम हित लागी । रितु अरु कुरितु कालगति त्यागी ।।
खाहि मधुर फल विटप हलावहि। लंका सम्मुख शिखर चलावहि ।।
जहँ कहुँ फिरत निशाचर पावहि। घेरि सकल बहु नाच नचावहि ।।
दसनिन्ह काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहि तब जाना ।।
जिन्हकर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ।।
सुनि श्रवन वारिधि वंधाना। दसमुख बोलि उठा अकुलाना ।।
दो ० बाँध्यों वन निधि नीर निधि जलधि सिन्धु वारीस ।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ।।
रावण का मन व्याकुल हो उठा । अपने मुँह से एक ही बार में दस नामों का उच्चारण कर बैठा फिर ध्यान में लाकर और भय भुलाकर हँसता हुआ घर में प्रवेश किया । मंदोदरी जब सुनी कि बड़ी शीघ्रता से समुद्र में सेतु बँध गया ता पति का हाथ पकड़ कर अपने महल में लाकर अपना आँचल फैलाकर प्रेम सहित बोली-
नाथ वयरु कीजै ताही सों । बुधि बल सकिअ जीति ताही सों ।।
तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खघोत दिनकर ही जैसा ।।
अति बल मधु कैटम जेहि मारे । महावीर दिति सुत संहारे ।।
जेहि बलि बाँधि सहस भुज मारा । सोई अवतेरउ हरण महि भारा ।।
तासु विरोध न कीजिए नाथा। कालकरम जिन जाके हाथा ।।
दो ० रामहि सौपी जानकी , नाई कमल पद माथ ।
सुत कहु राज समर्षि वन जाई भजिअ रघुनाथ ।।
नाथ दीन दयाल रघुराई। काधयु सम्मुख गाऐन खाई ।
चाहिए करन सो सब करि बीते । तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ।।
संत कहहि अरु नीति दसानन । चौथेपन जाइहि नृप कानन ।।
तासु भजन कीजिए तहँ भर्त्ता जो कर्ता पालक संहर्ता ।।
सोई रघुवीर प्रणत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ।।
मुनिवर जतनु करहि जेहि लागी । भूरि राज तजि होहि विरागी ।।
साई कोसल्यघीश रघुनाथा । आयउ करन तोही पर दाया ।।
जौ पिय मानहु मोर सिखावनु । सुजसु होहि तिहु पुर अति पावनी ।।
दो ० अस कहि नयन नीर भरी , गहि पद कपित गात ।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होहि अहिवात ।।
तब रावन भय सुता उठाई । कहै लाग खल निज प्रभुताई ।।
सुनु तयॅ प्रिय वृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ।।
वरुण कुवेर पवन जम काला। भुजवल जीतेउ सकल दिगुपाला ।।
देव दनुज नर सब वस मोरे । कवन हेतु उपजा भय तोरे ।।
मंदोदरि हृदय अस माना । काल वश्य उपजा अभिमाना ।।
कहहु कवन मय करिअ विचारा । नर कपि भालू अहार हमारा ।।
दो ० सबके वचन ठकुर सुहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँति ।।
वारिधि नापि एक कपिआवा । तासु चरित मन महु सब गावा ।।
छुथा न रही तुम्हहि तब काहू । जारत नगरु न कस धरि खाहू ।।
सुनत नीक आगे दुख पावा । सविचह अस मत प्रमुहि सुनावा ।।
जेहि वारीस बँधायउ हेला । उभरेहु सेन समेत सुवेला ।।
सो भनु मनुज खाव हम जाई । वचन कहहि सष गाल फुलाई ।।
तात वचन मम सुन्दु अति आदर। जनि मन गुनह मोहि करि कदर ।।
प्रथमवसीठ पठउ सुन नीति ।सीता देहु करहु पुवि प्रीति ।।
रावन पुत्र पहस्त ने कहा कि अगर रामचन्द्र जी अपनी स्त्री को पाकर लौट गये तो उनसे शत्रुता करना ठीक नही । अगर न माने तो ते तात ! सन्मुख मार काट कीजिए आप अगर मेरा यह विचार मानिये दोनों पक्षों की हर प्रकार से भलाई है । यह सुनकर रावण क्रोधित होकर बोला- यह सब तुम्हें किसने सिखलाया ? तुम्हें अभी से सन्देह लगने लगा । तू तो वंश के अनुकूल नहीं , बास में घास की तरह हुआ पिता के मुँह से अति कठोर और घोर वाणी सुनकर प्रहस्त उससे भी कठोर वचन कहता हुआ घर को चला गया ।
हित मत तोहि न लागत कैसे। काल विवस कहुँ मेषज जैसे ।।
संध्या समय जानि दशसीसा । भवन चलेहु निख्खत भुज वीसा ।।
लंका शिखर उपर आगारा । अति विचित्र तहॅ होई अखारा ।।
बैठ जाई तेहि मंदिर रावन। लागे किन्नर गुनगन गावन ।।
बाजहिं ताल पखाउज बिना। नृत्य करहि अप्सरा प्रवीना ।।
दो ० सुरा सीर सत सरिस के संतत करई विलास ।
परम प्रवल रिप सीस पर तदपि सोच न त्रास ।।
इधर सुवेल पर्वत पर भगवान सेना सहित उतरे । वहाँ शिखर पर बड़ी ही सुरम्य स्थान था । सुन्दर फूल और पत्तियों को सजाकर लक्ष्मण जी ने आसन बनाया जिस पर मृग छाला बिछाकर रामजी बैठ गये । उनके सिर सुग्रीव जी की गोद में थे । दाहिने बायें धनुष और वाण रखे गये थे । अंगद और हनुमान जी भगवान के पैर दवा रहे थे । लक्ष्मण जी कमर में तरकस कसकर धनुष वाण को सुधार रहे थे । उसी समय पूर्व दिशा से चन्द्रमा के उगने पर सभी चन्द्रमा को देख रहे थे । रामचन्द्र जी ने सबों से कहा कि अपनी – अपनी बुद्धि से विचार कर कहो कि चन्द्रमा में कालिमा क्या है ? सुगोव जी ने कहा- हे रघनाथ जी , चन्द्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है । किसी ने कहा कि चन्द्रमा का राहू ने मारा था , वही चोट का काला चिन्ह है । कोई कहता है कि ब्रह्मा रति का सुन्दर मुख बनाने के लिए चन्द्रमा का सार भाग निकाल लिया । रति का सुन्दर मुख तो बनाया किन्तु चन्द्रमा के हृदय में छिद्र रह गया जिसे आकाश की काली छाया दिखाई पड़ती है । श्री रामजी ने कहा कि विष तो चन्द्रमा का अति प्रिय भाई है । इसी कारण चन्द्रमा उसे अपने हृदय में स्थान दिया है । वही अपनी विषयुक्त किरण को फैलाकर वियोगी नर – नारियों को जलाता रहता है । तब हनुमान जी ने भी अपना अद्भुत और अनोखा विचार रखा कि चन्द्रमा आपका प्रिय दास है । आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमा के हृदय में वसी होने के कारण वही रयामता चन्द्रमा में झलक रही है । हनुमान जी के सटीक उत्तर से रामजी बड़े प्रसन्न हुए । गोस्वामी जी ने अपनी कला मर्मज्ञता से प्राकृतिक चित्रण का कल्पन बड़ा मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है ।
जब रामचन्द्र जी का ध्यान दक्षिण दिशा की ओर गया तो एक विचित्र चमक देखी और मधुर आवाज सुनी । वे विभीषण जी से बोले- देखिये वह दक्षिण दिशा में बादल जैसा घुमड़ता दिख रहा है और बिजली भी चमक रही है । भयानक बादल धीमी आवाज में गरज रहा है , कहीं कठोर ओले न पड़े । विभीषण जी बोले- हे कृपालु ! न वहाँ बादल है , न बादलों की घटा । लंका के शिखर पर एक महल है , जहाँ बैठकर रावण अखारा देख रहा है ।
छत्र मेधडम्बर सिर धारी , सोइ जनु जलद घटा अति कारी ।।
मंदोदरी श्रवण तांटता । सो प्रभु जनु दामिनी दमका ।।
वाजहि ताल मृदंग अनूपा सोई ख मधु सुनइ सुरभूपा ।।
प्रभु मुसकान समझि अभिमाना । चाप चढ़ाई वाण संधाना ।।
दो ० छत्र मुकुट ताटंक तब हते एक ही वाण ।
सबके देखत महि परे मरमुन कोई जान ।।
अस कौतुक करि राम सर प्रविशेउ आई निषंग ।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रस भंग ।।
कंपन भूमि न मरुत विसेखा । अस्त्र – शस्त्र कछु नयन न देखा ।।
सोचहि सब निज हृदय मंझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी ।।
दसमुख देखि सभा भय पाई । विहॅसि वचन कह जुगति बनाई ।।
सिरउ गिर संतत शुभ जाही । मुकुट परे कस असगुन नाही ।।
सयन करहूँ निज निज गृह जाई गवने भवन सकल सिर नाई ।।
मंदोदरि सोच कर वसेउ । जवते श्रवण पूर महि खसेउ ।।
सजल नयन कह जुग कर जोरि सुनहु प्राण पति विनती मोरी ।।
कंत राम विरोध परिहरहु जानि मनुज जनि हठ मन धरहु ।।
इतना सब आग्रह कर मंदोदरी ने अपने पति को यह समझाया कि रामचन्द्र जी विश्व रुप हैं , अर्थात यह सारा विश्व ही उनका रुप है । वेदों में उनके अंग – अंग में अलग – अलग लोकों की कल्पना की गयी है । उस भगवान के चरण पाताल हैं और सिर ब्रह्म लोक है । अन्य अंग सब लोकों का विश्राम स्थल है । जिनके भौकी गति भयंकर काल है । सूर्य नेत्र है । बादलों का समूह बाल है । जिनके नाम अश्विनी कुमार उनके नेत्रों का खुलना और बन्द होना दिन और रात है । जिनके कान दशों दिशाएँ है । वायु श्वांस तथा वेद उनकी वाणी है । लोभ उनके ओठ है । यमराज उनके दाँत है । उनकी हँसी माया है , दिक्पाल भुजाएँ है , अग्नि मुख है , वरुण जिहा है , जिनकी चेष्टा मात्र ही उत्पति , पालन और प्रलय है । अठारह प्रकार की वनस्पतियाँ उनके बाल है , हड्डियाँ पहाड़ तथा नदियाँ नशों का जाल है , समुद्र पेट और नरक निन्मेन्द्रियाँ हैं । इस प्रकार प्रभु विश्व रुप हैं ।
शिव जिनका अहंकार , ब्रह्मा बुद्धि और विष्णु मित्र है , चन्द्रमा मन हैं , उन्ही चराचर रुप भगवान श्री रामचन्द्र जी ने मनुष्य रूप में निवास किया है । ऐसा विश्वास के साथ सोचकर वैर छोड़कर रघुवीर के ही चरणों में प्रेम कीजिए जिससे मेरा सुहाग अचल रहे ।
ऐसी बातें सुन हँसकर रावण बोला- अज्ञानता की महिमा अपार है । बड़ी बलवान है । नारी के संबंध में सभी सत्य ही कहते है कि निम्न आठ अवगुण उनके हृदय में सदा रहते हैं । ये हैं , साहस , झूठ , चंचलता , छल , भय , अविवेक , अपवित्रता और निर्दयता । तूने शत्रु के विराट रूप का गुणगान कर मुणे डराने का काम किया । तुम्हारा वार्तालाप रहस्य मय है । सुनने में भय से मुक्ति दिलाने वाली है । समझने में सुख देने वाली है । मंदोदरी ऐसा विश्वास कर ली है कि काल के वश में होकर मति भ्रम हो गया है । इस तरह विनोद पूर्ण बातों में रात बीत गयी और निःशंक रावण घमंड से अन्धा होकर राज सभा में जा बैठा ।
चाहे बादल अमृत ही क्यों न बारसायें , वेंत में कभी फल नही लग सकता , उसी प्रकार ब्रह्मा जैसा भी गुरु क्यों न मिले , मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता ।