प्रेम वासना और भक्ति
देह और प्राण की संयुक्त भूमिका ही जीवन है । यह प्रकृति की दिव्य देन है । दैहिक सत्ता में प्राण वह ऊर्जा है जो उसे सचलित करती है । देह पचभौतिक सत्ता है जिसका दाय होता रहता है । भूव – भूव को खाता है । भूख उसी का प्रमाण है । सृष्टि की चराचर सत्ता को एक दूसरे के सम्पर्क में लाने का कार्य ( श्रेय ) ही भूख है । पृथ्वी , जल , हवा . अग्नि एवं शूण्य ही सृष्टि के मूल अवयव है । इन्द्रियाँ जीवन रूपी व्यापार के कारक बनती है और मन उसका वाहक । इन्द्रियों में संवेग ( स्पदन ) उसका भाव है , अनुभव उसकी वासना , जिसका भोग मन करता है । शरीर की सत्ता भोग चाहती है और मन की सत्ता वासना । इसी हेतु वासना को मनोज ( मनसिज ) कहते हैं । एक दूसरा शब्द है मनोरथ , जो स्थूल कर्म है । उसकी कामना का भूल भी वासना ही है ।
जैसे भूख द्वारा भोजन की आवश्यकता प्रतीत होती है , लेकिन भोजन करते समय जो स्वाद का अनुभव होता है उसका भोजन करते समय जो स्वाद का अनुभव होता है उसका भोग मन करता है इसलिए जीभ हर प्रकार का भोग नहीं चाहता बल्कि मन उसकी चाह करता है जिसका स्वाद वह पसन्द करता है । यही भाव है हमारी वासना । भोग और वासना में दो पृथक और सूक्ष्म भाव है । मन को भोग भाव से जोड़ कर चलना इन्द्रियों की वासना की पूर्ति करता हो तो वह भोगी और कामी कहलाता है । अगर इन्द्रियाँ मन की रति और भोगों के चयन में ही निहित है तो वह देह और प्राण दोनों का दलन करता है । अतः जीवन का श्रेय देह और प्राण दोनों का पोषक होना चाहिए ।
इस महत्त्वपूर्ण विषय को ऋषि मनीषियों ने अपने चिन्तन में लाया तथा जीवन में ब्रह्मचर्य के महत्त्व का आशय स्थापित किया । सृष्टि को विधाता ने अनंत काल तक चलते रहने का विद्यान किया देह और प्राण पर ही नही विचारा बल्कि भू – तत्व ( अन्न खाद्य ) के विपाक से बनी ऊर्जा रस , रक्त या ओज ( तेजस या रेत , वीर्य ) को सरक्षित करने और सृष्टि के महानतम उद्येश्य के परिपूरणार्थ ( आयु , मेघा , यौवन और काया . देह ) के स्थिति स्थापन ( यथा स्थिति में बना रहना ) जैसे एक पौरुषेय क्षमता , पर भी ध्यान डाला , जिसे ब्रह्मचर्य पालन से चरितार्थ किया जा सकता है । इस गौरव भयी शक्ति को भी हम ब्रह्म की संज्ञा दे सकते हैं तथा उसी का अवधान प्रायः ब्रह्म जानेति स ब्रह्मचर्यः ‘ अर्थात जो ब्रह्म को जानता है , ठीक से समझता है और पालन करता है वही ब्रहमचर्य है एक मूल मत्र बना । उसी ब्राह्म ओजरन या ऊर्जा स्रोत को जन कल्याण सहित धर्म , अर्थ , काम और मोस रूपी चारों लक्ष्यों की प्राप्ति का साधन माना गया है । ब्रहमचर्य को व्रत की संज्ञा प्राप्त है ।
महात्मा गाँधी ने अपने एकादश व्रतों में इसे महत्त्वपूर्ण माना है । मनु ने धर्म के 10 लक्ष्णों में इन्द्रिय निग्रह को महत्त्व दिया है । यह मानवता की सबसे बड़ी कसौटी है तथा सुरक्षित जीवन का सर्वोच्य नित्तान्तता दर्शायी गयी है । आध्यात्मवादी भी इन्द्रिय निग्रह के अभाव में साधना की सिद्धि को सम्भव नहीं मानते । वे जीवन को सन्यास भाव से जोड़ना उचित बताते है । मन , कर्म , और वाणी की एकता इन्द्रिय निग्रह से ही आ सकती है । ऐसे भी मानद को सदाचारी और कर्मठ होना आवश्यक है । सकारात्मक या कल्याणकारी सोच होना ही मानवता का लक्ष्य होना चाहिए । अगर आत्म संयम न हो तो देह और प्राण की अवहेलना से आत्म कल्याण में बाधा पड़ेगी तो जनकल्याण और परमार्थ की भावना का प्रतिफलन पीछे पड़ जायेगा । मानव में असंयम और लम्पट्ता का प्रवेश होकर पाप में प्रवृति बढ़ेगी । आज जो समाज में विविध विश्रृंखलताएँ मानव को असुरक्षित दिशा की ओर लिए जा रही है उसका कारण पाश्चात्य देश की स्वच्छा चारित और अनुशासन हीनत ही है । चरित्र निर्माण का कार्य बच्चों के विकास के साथ बचपन से ही जुड़ा होना चाहिए । परिवार एवं विद्यालय परिवार का वातावरण पवित्र , पोषण युक्त और सादगी पूर्ण होना चाहिए । वातावरण की स्वच्छता ( पवित्रता ) सदाचारिता , सामाजिक जीवन की समरसता और कर्मशीलता से ही आदर्श पूर्ण समाज का गठन होगा ।
सृष्टि की ज्ञानात्मक और चरित्र विकाश की विधा बचपन से ही प्रारंभ होती है । बच्चे अज्ञ होते है । वे अपने से बड़े लोगों के वाव्हारो , बोली और तरीकों को सीखते और नकल करतें है । उन्हें परिवार में स्वस्थ , सद्भाव पूर्ण और सुन्दर वातावरण मिलना चाहिए जिससे उन्हें दुर्गुण सीखने का अवसर न मिले । आज का समाज दुगुणों से पूर्ण है । उनके व्यवहारों का , भाषा का भोजन का , आचरणों का प्रभाव बच्चों को भी वैसा ही बनाता है । उनमें शरारत . हठ , क्रोध आदि का प्रवेश होता है । विद्यालयों में यदि अनुशासन , नैतिकता और आज्ञाः पालन का वातावरण हो तो छात्र के व्यवहारों पर उसका अच्छा असर पड़ेगा साथ ही घर पर भी उसके व्यवहार से परिवार के अन्य व्यक्ति भी सुधर सकेंगे । आज शिक्षा का वातावरण विगड़ चुका है । छात्रों का चारित्रिक गठन कमजोर पड़ता जा रहा है । विद्यालयों में इन दिनों अमानवीय घटनाएँ घटित हो रही है । उससे सारा समाज हताहत है । देश , विदेश को गलत संदेश जा रहा है फिर भी अपने देश के अन्दर सुधार की जगह संक्रमण ही बढ़ रहा है । यह स्थिति भयावह हो गयी है । यौन शोषण , शील हरण , व्यभियार नारी उत्पीड़न आदि ने मानव समाज को ही नहीं , राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र को भी शर्मिन्दा किया है । अब तो यह प्रथा बनती जा रही है । लगता भारत के नारी समाज की स्वेच्छाचारिता तथा उन्मुक्त यौन सम्बन्धों की परम्परा की ओर बलात या छदम रूप में लाकर छोड़ना चाहता है योंकि वातावरण में नयी पीढ़ी की कन्याओं को स्मार्टनेश या फैशन परस्ती में असहज वेश भूषा अपनाने का बुरा असर दिखाई पड़ रहा है । ऐसा रहा तो यौवन पूर्व की यौन घटनाएँ या अपरिपक्व मानसिकता का प्रभाव क्या सदा के लिए देह प्राण और पौरूष का दमन कर कलंकित और विकृत जीवन जीने के लिए अभिशप्त होगा या जगत का कल्याण भी कल्पना से परे हो जायेगा ।
मानव जीवन में प्रेम और भक्ति तो आत्मिक , दैहिक और सामाजिक भूषण है , चारित्रिक और नैसर्गिक भी । इनके भाव पवित्र और क्षेत्र व्यापक है किन्तु जीवन में देह , प्राण और पौरूष की भूमिका में मन और इन्द्रियों की सीमा में इन्द्रिय निग्रह को सर्वोपरि और साधक रूप में स्वीकारा गया है । प्रेम को अगर वासना की भयंकरता धूमिल न कर पाये तो भक्ति में उसकी परिणति अवश्य सम्भावित है या जीवन का वह बिन्दु बनता है जहाँ से नैसर्गिकता का प्रथम सोधन प्रारंभ होता है ।
जीवन में यौवन का स्थान एक प्राकृतिक जिम्मेदारी रखता है जो जीवधारियों का स्वाभाविक धर्म है । यौन वासना चेतन मानव में अतिरेक सिद्ध होने से ब्रह्मचार्य पालन में बाधा है । गृहस्थाश्रम में विवाह का प्रयलन एक सार्थक व्यवस्था बन चुकी है जिससे जीवनादर्श के चारों फल की प्राप्ति सम्भव है । यौनाचार में सीमा वरतना ओज का अधिक अपव्यय न करना
ही ब्रह्मचर्य है । गृहस्थाश्रम में सम्भोग पाप नही है । इसे पाप की प्रवृति पर नियंत्रण लाने का साधन भी कह सकते हैं अगर जीवन में वासना का व्यक्तिकरण नारी को भोग्या मात्र मान लेना विलासिता को जन्म देता है । भारत में सवकुछ के बाद नारी पूजनीया है । अत्रि पत्नी अनुसुइया की नवधा भक्ति के गायन में नारी आदर्श का उत्तम स्वरूप दर्शाया गया है ।
जारी के प्रति पवित्र दूष्टि रखना पारिवारिक मर्यादा मानी जाती है । लज्जा इसका भूषण है । मातृत्त्व इसकी मर्यादा तो है ही , मार्या रूप में वह परिवार की शोभा है । नारी जीवन का विश्राम और मनुष्यता की संरक्षिका है । उसका शोषण अपनी पवित्र संस्कृति पर कलंक का टीका है । कामुक नजरों से अन्य नारी पर झांकना माता , भार्या , भागिनि और पुत्री का अपमान है । नारीत्त्व के सम्बन्ध में प्रयुक्त अन्य संज्ञाएँ मानव की निजी सूझ हो सकती है उसे स्वीकार करना मानवता के रूप में लिया जाना चाहिए ।
हम प्रेम को विशुद्ध भावना भर ही अपनाएँ उसे कर्म रूप देना विकारमय होगा । इसीलिए कर्म के साथ शुचिता निभाने की जिम्मेदारी जुड़ती है । अगर जगत के साथ प्रेमभय होना है , एकात्म होना चाहते है तो उसे सहजता और सीमा के साथ जीतने का प्रयास करें । कुछ छिपा न रखे , उसी मार्ग को प्रेम का मार्ग कहते है । किसी कामना का संस्पर्श या भाव प्रदूषण या प्रच्छन्नता है । उसे कोमल , मृदु शीतल और सहज रूप दें जो स्वतः आपको हृदय में लगा ले , आँखों में बिठा लें । आज विश्व में मीरा का कृष्ण प्रेम मोक्ष का साधन बना जबकि शेष प्रेम सम्बन्ध बन्धन साबित हुए । बासुदेव कृष्ण का प्रेम कितना खुला और निष्काम था कि गोपिकाएँ उनपर मुग्ध थी । किन्तु गोकुल बासी की उनपर अट्ट आस्था भी थी । कहाँ कोई छिपकर उनके प्रेम के रहस्य को जानने की चेष्टा करता था । नहवर नागर द्वारा स्नान , गोपियों का चीर छिपाये जाने पर पंचायते कहाँ बैठी ? …. और छेड़खानी का आरोध कहाँ लगा । कृष्ण उनकी नग्नता में वासना नही झांक रहे थे , तब तो कृष्णा का गोपी प्रेम पवित्र रहा । यह हमारी भारतीय संस्कृति का एक अनोरम् आदर्श है जो अबतक विश्व पर छाया है । सभी कृष्ण को पूजते है । वहाँ की धरती पर जाकर नत मस्तक होते हैं । सबकी आस्था भक्ति में परिणत हो गयी । ……. फिर भी हमारे ही यहाँ आज के भक्त जो संत बनकर दुनियाँ को उपदेश देकर प्रेम और भक्ति जगाना चाहते है वे स्वयं विवाहित होकर रहे और अपराधी तक सिद्ध हो चले ।
आज के विश्व प्रेमी , देशभक्त , मानवता के कर्मठ , सुयोग्य और समाज सेवक जनमत पाकर भी सुरक्षित सेवा क्षेत्र में गार्ड लेकर चलते हैं , जो जनता के स्वामी ( मालिक ) या गार्ड बने है , उनके प्रेम का मूल्य क्या है ? अविश्वास । इसीलिए उन्हें भय है । उन्हें इसीलिए जनमत खोना पड़ता है । उनमें से कतिपय आज दागी और अपराधी पाये जा रहे हैं ।
अंश- ” रामचरित मानस एक अनुशीलन ”
( लेखक – डा० जी ० भक्त )