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बचपन के स्पन्दन में बीतें क्षण

 सृष्टि में प्राणियों का जीवन अर्भावस्था से प्रारंभ होता है । गर्म में पल रहे शिक्षु पर माता के खान – पान , व्यवहार , चिन्तन , आवेश और कर्मों के संस्कार का प्रभाव उसके पोषण और विकास में शारीरिक और मानसिक स्तर पर पड़ता है । प्रसव के साथ शिशु का माँ के गर्म से धरती पर पाँव पड़ता है जिसे जन्म की घटना मानी जाती है । धरती पर उसे माँ और परिवार के साथ पास – पड़ोस के जीवन का संस्कार पड़ता है जिसका अनुकरण कर अपने विकास और बोध गभ्यता के साथ शैशव पूरा कर स्वतः जीवन क्रियाओं में भागलेना प्रारंभ करता है । मानव शिशु का मनोविज्ञान , बोध , व्यवहार और प्रतिकार सुख – दुख की अनुभूति के साथ कल्पना शक्ति काम करने लगती है । अपने छोटे परिवेश में उसके मानवोचित व्यापार के चरित्रगत आवेग या स्पन्दन में उसके मनोभाव प्रकट होते हैं जिन्हें हम अपनी मूल्याकन क्षमता और अनुभव शक्ति के आधार पर अनुमान लगाते है कि बालक की पकड़ जीवन की कौन – सी दिशा प्राप्त कर सकती है । ज्योतिषविद अपनी जानकारी में ग्रह नक्षत्रों , राशियों , राशि स्वामियों और उनकी गति , स्थिति एवं दृष्टि तथा आपसी सम्बन्धों के आलोक में बालक के भविष्य निर्धारित करते है । इस प्रकार उसके बाल्यकाल से ही जीवन की सम्भावनाओं का आकलन प्रारंभ होता है ।
 धरती पर पड़ने वाले उसके पाँव के स्पदन और मन के सम्वेग से जीवन की तैयारी प्रारंभ हो जाती है । शिक्षण और साहचर्य के साथ परिवेश में उसका पोषण और पल्लवन प्रारंभ होता है । इसमें संदेह नहीं कि बौद्धिक विकास में बचपन की कल्पना और रुझान का महत्त्व सराहनीय होता है । उसे प्रोत्साहन मिलना अनिवार्य होता है । अगर वहाँ पर बालकों की अभिरुचि को दबाने या हतोत्साहित करने का दुस्साहस किया गया तो सम्यक वातावरण के अभाव में उसे समुचित दिशा नहीं मिल पाती और न जीवन ही मनोनुकुल स्वरुप ले पाता । आज के शिक्षाविद मनोविज्ञान का सहारा लेकर जीवन की दिशा निर्धारित करते एवं तदनुरुप शिक्षा की व्यवस्था पर जोर देते हैं । यधपि समग्रतः ऐसी व्यवस्था समाज में प्राप्त हो पाये , यह सम्भव नहीं । विचार और क्रिया में अन्तर होना स्वाभाविक भी है । हम प्रशिक्षण देकर भी सभी शिक्षकों को एक धरातल पर खड़ा नहीं कर पाते तो शिक्षणोपरान्त सभी एक – से सुदक्ष एवं सफल प्रयोगकर्ता कैसे हो सकते हैं ?
 मैंने अपने जीवन में जो अनुभव एकत्र किया वह कोई प्रयोग नहीं रहा , बल्कि सहज रुप में जो अपने संबंध में घटते पाया और दूसरों पर घटते देखा वह सकारात्मक के साथ विरोधाभासी भी रहा है । इसका कारण अपने संबंध में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि मैं सतत अपनी कल्पना पर ध्यान नहीं दिया और न सक्रिय अथवा तत्पर ही रहा । दैनिक जीवन की पारिवारिक एवं मेरी वैयक्तिक गतिविधियों जो परिस्थितियों लायी उसके अनुरुप दलता रहा तथापि आध्ययन ( स्वाध्याम ) एवं लेखन के साथ काव्यधर्मिता की अभिरुचि बनी रही एवं समय मिलने पर प्रयास भी चलता रहा । लेख्य जैसा भी रहा , पाठकों सहित मेरे गुरुजनों को भाया ।
 मुझे पठन – पाठन के साथ सुलेख , चित्रकला , एवं हस्तकला से प्रेम रहा । इसके लिए मैं किसी गुरु का साथ नहीं पाया , जो कुछ पाया , अपने अभ्यास के बल पर । उसे प्रदर्श के रुप में प्रयोग में लाया अथवा समारोहों में प्रस्तुत कर पुरस्कार पाया । प्राथमिक विद्यालयीय जीवन में भी मैं अपनी कक्षा में प्रथम रहा । घर पर मुझसे घरेलू कार्य नहीं लिया जाता था । शरीर से दुर्बल और रुग्नता के कारण घर के कार्यों में भारी कार्य से मेरा जुड़ाब न था । हल्के कार्य कर लिया करता था । गाय पालने का कार्य भी होता था । कई गायें थी । कभी – कभी गाय चराने , ग्राहकों के घर दूध पहुँचाने , एक खास घराने के लिए आधा किलोमीटर दूर की दूकान से सामग्री खरीदकर पहुँचाने में मेरा पढ़ाई का समय मारा जाता था । फिर एकमील की दूरी स्कूल की थी ।
 विद्यालय में अथवा सरकारी स्तर पर आयोजित अन्यत्र के कार्यक्रमों , गाँवों में होने वाली पूजा – अष्ट्याम – संकीर्तनादि , नाटक एवं रामलीला देखने की रुचि बचपन से ही रही । उन स्थलों पर कुछ कार्यो में साधारण मदद कर दिया करता था । उससे मुझे सन्तुष्टि सहित कुछ सीखने का भी अवसर मिल जाता है । पढ़ाई के साथ – साथ सामाजिक जीवन का प्रशिक्षण भी हो जाया करता था ।
 पाँचवी श्रेणी में मुझे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ” रचना चन्द्रोदय ” नामक पुस्तक पढ़ने में रुचि रही । महात्मा गाँधी के ” आरोग्य साधन ” तथा ” आत्मकथा ” मुझे बहुत पसन्द आये । यह प्रवृति प्राथमिक विद्यालय से ही दीखने लगी । छठी श्रेणी का सत्र उस वर्ष छ मास का लगा था । प्राथमिक विद्यालय को माध्यमिक कक्षा तक उत्क्रमित करने के लक्ष्य से छात्रों को उसी विद्यालय में रोक रखा गया किन्तु अपरिहार्य कारणों से वार्षिक परीक्षा वहाँ पूरी न कर पाया । अगली सातवीं कक्षा में कहाँ नामांकित कराया जाय इसके लिए इधर – उधर करता रहा । एक दिन घर से तीन किलोमीटर दूर बेलवर माध्यमिक विद्यालय मे जानकारी लेने पहुँचा । वहीं पर मेरे ज्येष्ठ भ्राता उच्च विद्यालय के छात्र रहे । उसी विद्यालय के हिन्दी के शिक्षक श्री सच्चिदानन्द सिंह जी ने मेरी मौखिक जाँच की तथा सुझाव दिया कि सातवीं कक्षा छोड़ आठवीं में नामांकन करा लो , यही ठीक रहेगा । नया सत्र आने पर मैंने वैसा ही किया । मेरी आठवीं कक्षा में जो माध्यमिक विद्यालय से सातवीं पास कर छात्र आये , मैं सबों में , अब्बल रहा । इस प्रकार मेरा शैक्षिक स्तर प्रथमिक से उच्च विद्यालय तक प्रथम ही रहा । भाषा की शुद्धता के साथ व्याकरण में मेरी पकड़ अपेक्षाकृत सही रही । मेरी रचनाएँ सराही जाती थी तथा पुस्तक , भी । करीब उच्च विद्यालय में पुरस्कार के रुप में जो पाठ्य सामग्री प्राप्त होती थी उससे ही काम चल जाता था । निःशुल्क शिक्षा , छात्रावास की सुविधा , शिक्षकों का ध्यान भी मुझ पर रहा । दूरी की दिक्कत समाप्त करने के लिए मैं उच्च विद्यालय के पास के ही परिवार में बच्चों को पढ़ाने का भी कार्य किया तथा स्वयं भी पढ़ा ।
छोटी उम्र से ही मैं गम्भीर समस्याओं पर गहनता से सोचा करता था । मैं उसका समाधान स्वयं निकालने का पक्षघर रहा । कभी दूसरों से राय लेने या कहने का काम नहीं किया । उसमें मैं सफल भी हुआ । इससे मुझे आत्म विश्वास जगा । आत्म निर्णय का क्षण कितना महत्त्व रखता है । इसका अनुभव मेरे मनोबल को बढ़ाया । स्च्छन्दता और स्वतंत्रता का एक विशेष उल्लास हृदय में पैदा होता है । इससे विचार भावना में दृढ़ता आती है । ये सारी बातें जब अपनी पाठ्य पुस्तक में पाता तो एक ऐसा आलोक पैदा होता जो मुझे सन्तुष्टि देता था । आज मैं शिक्षा को समग्रता और सकारात्मकता से पूर्णतः जुड़ा मानवीय मूल्यों का पोषक के रुप में देखना चाहता हूँ इसके लिए प्रयत्नशील हूँ एवं सरकार से सतत आग्रहशील हूँ । जब मैं चतुर्थ वर्ग का छात्र थ तो शिक्षा की दिशा में तात्कालीन उपराष्ट्रपति डा ० जाकिर हुसैन द्वारा लागू की गयी नयी तालीम पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन तुर्की ( मुजफ्फरपुर जिला ) में आयोजित किया गया था । मैं उस छोटी उम्र में उसे देखने पहुँचा था । इन शैक्षिक अवसरों से मेरा हार्दिक लगाव बचपन से ही दिखता रहा । आज जब उन अवसरों एवं क्षणों पर विचारता हूँ तो एक अजीब आलोक स्पंदित होता जान पड़ता है । वस्तुतः मैं अपने बचपन के उन स्पन्दनों में बीते क्षण को जीवन का स्वर्णित क्षण के रुप में स्वीकारता हूँ । भले ही उस काल में मेरी समझ कितनी सकारात्मक थी , कहना कोइ . मतलय नहीं रखता किन्तु सच माने तो वह जीवन की जीवन्तता दर्शाने वाले लक्ष्य की ओर संकेत देते हैं ।
 मेरी अबतक की अनुभूति और चिनतन यही बताते है कि यह विशिष्ट मानव प्राणी के मानस और हृदय स्थली में एक दिव्य विज्ञान छिपा है जिसका संबंध विश्व की जीवात्माओं सहित प्रकृति के कण – कण से जुड़ा है । विश्वात्माएँ जिन लक्ष्यों की ओर सकेत देती है व्यष्टि आत्मा उसकी ओर आकृष्ट होती है । मन – बुद्धि की पकड़ में इस एकात्म संबंध का सन्तुलन चित्तमण्डल में फलित होने पर वह कार्य विशेष प्रतिफलित होता है । अगर परिवेश के उत्तेजक आयाम प्रभावी हुए तो इस दिव्य अवधारणा का कोई प्रभाव चित्त मण्डल पर नहीं पड़ता । उसका संस्कार नहीं पड़ता । जीवन के ये क्षण वैसे स्पन्दनों को स्वरुप देने के लिए एक किरण पुँज – सा काम करते है । चित्तवृत्तियों का निरोध उन आभासी परिस्थितियों या कारकों पर नियंत्रण है जो दिव्यता के मार्ग को सही दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे ।
 जीवन के वे क्षण जो सांसारिकता के शिकजे में शिकस्त होते हैं वे शुचिता , दिव्यता और शास्वतता को दृढ़ भूमि प्रदान न कर पाते किन्तु जो इस बंधन से मुक्ति या सामंजस्य स्थापित कर सजग पाये जाते हैं उनके लिए यही जीवन उत्कृष्ट अवसरों का संवरण कर पाता है । आज का विकास , वैज्ञानिक कारामात , सत्तात्मक प्रतिस्पर्धा , आर्थिक चहल – पहल , उपभोक्तावाद और सामाजिक विरवराव से प्रभावित सामाजिक सरोकार का कमजोर पड़ता जाना मानव को विपरीत दिशा दे रहे हैं । प्रत्युत हम उससे सन्तुष्ट नही हैं । विश्व वेदना की कराह आज की सत्तात्मक शक्ति को हिला रही है तो हमारी समृद्धि मानवता को क्या सुख प्रदान कर रही है ? सारी योजनाएँ विफल हो रही हैं । जन आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो पा रही , जनतंत्र कमजोर पड़ रहा है । आत्माएं आहत हो रही है । एक छद्म संघर्ष चल रहा है । शिक्षा लक्ष्य विहीन हो चली , कदाचार अपना शिर ऊँचा उठा चुका । वही मानव , वही भूतल , वही संस्कृति , वहीं वायु , जल और उर्जा , वही सूर्य चाँद और हमारा परिवेश , धर्म , कर्म , ज्ञान और उपदेश सभी चल रहे हैं किन्तु हाहाकार मचा है । विचारक राजनेता , धर्म गुरु , और सारे मानवीय विधान आज अपनी अस्मिता खो रहे । जीवन के उन क्षणों को मन – कर्म और वाणी की एकता से जोड़ नहीं पा रहे । मानव की चेतना के तार भौतिकता की पराकाष्ठा को छू रहे हैं । उनकी सोच विचलित हो चली । लौटने को तैयार नहीं । यह संक्रान्ति काल है । बदलाव या अवसान ? क्या होगा अगला लक्ष्य ? क्या मानव भी डायना सोर की तरह अस्तित्त्व खो देगा । आज मानव स्वयं में समस्या है । आज मानव आतंकित है , किससे ? जरा सोचकर देखे तो .. वह अपने आप से भयभीत है । अतमन को पहचान में लेना अनिवार्य है । विश्व की व्यवस्था में मन की ओर ध्यान नहीं , अर्थोपभोग की दिशा में व्यस्त है । संसाधन की लूट हो रही । उसे विकसित नहीं किया जा रहा ।
 हम कृत्रिमता में खो गये । हमने सृष्टि के विधान पर विचारा नहीं । दुनियाँ बसाते गये । इमारते खड़ी होती रहीं । अपने को इतना सुरक्षित किया कि घर में ही हम कैद हो गये । रोग पकड़ा तो चिकित्सा उपयुक्त नही साबित हो रही । सबके दूरस्थ और हानिकर प्रभाव दिख रहे । दवाके दास बन गये । विकलांग – सा जीवन जी रहे । आज जो मानवीय संवेदना रखने वाला है वह दम तोड़ चुका है । आत्म हत्यायें कर रहा है । तथापि हमें इस सृष्टि को सुरक्षित और संरक्षित दिशा देने में जुड़ना अपरिहार्य है । हमें अपने बचपन के उन स्पदनों को याद करना है , उन क्षणों पर विचारना है . जिसमें जीवन निर्माण की विशुद्ध कल्पनाएँ हिलोडें लेती थी उन्मुक्त शास्वत और निश्छल ।
 आज का समाज अपनी विफलता नहीं स्वीकारता न अपनी भूलों पर आत्मचिन्तन ही करता है । दभ ( झूठे अभिमान ) पर जीता है । वह क्या जाने आत्म मथन । उसका वाहन आत्मा नहीं , भोगेंद्रियाँ है । उन्हीं के पीछे पड़ा वह अपना आदर्श विकसित न कर पा रहा । वह वेचैन है । विश्व को भी बेचैन कर रखा है । शान्ति का प्रयास कोड़ी कल्पना साबित हो रही ।
 ( डा ० जी ० भक्त )

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