भोग भावना, महत्त्वाकांक्षा एवं सत्ता सामर्थ्य के बीच कल्याण कामना
डा० जी० भक्त
अगर हम सृष्टि के समस्त भौतिक स्वरूपों पर विचार करें तो सारे कल्याण कारी ही दृष्टि गोचर होते हैं। इनका सृजन पहले हुआ। तत्पश्चात जैविक सृष्टि आयी, जिनका पोषण उन्हीं संसाधनों से सम्भव हुआ। मानव का आना धरती पर एक परमोदार घटना घटी जो अबतक सृष्टि का सिरमौड़ बनकर आत्म और परमात्म हित का साधन करते हुए अभूत पूर्व गौरब पाया, जो उसकी प्रखर एवं उपयोगी चैतन्यता के कारण ही सम्भव हुआ।
इस मानव चेतना की दौड़ में अबतक का इतिहास जो कुछ प्रदान किया वह ज्ञान धन्य और कल्याण पद रहा । ज्ञान को मैं स्वायंभुव मानू या प्रकृति दर्शन और चिन्तन अवलोकन का प्रतिफल, वह कर्म और भक्ति भाव को सुदूर आकाश तक को प्रकाशित कर पाया। हम उसका ही गुणगान किया करते तथा उनके साथ ईश्वर नामक सत्ता की शास्वत कल्पना कर ली है।
अब विचारणीय यह रहा कि इसी मानव ने इस उपहार को अपनी किंचित कामना में अधिकार पाने और संग्रह करने की प्रवृति को जन्म दिया, जिसके इर्द-गिर्द मोह ममता और लोभ, फिर कालान्तर से क्रोध का संवरण कर संघर्ष और युद्ध का मार्ग प्रशस्त कर रखा। तब से कल्याण कामना पर धूल जमना प्रारंभ होगया और आज धूल पर जमी घास वृक्ष का स्वरूप ले चुका जिसकी जड़ को उखाड़ फेंकना कठिन हुआ। भले ही सम्पूर्ण वृक्ष को विनाश घेर ले किन्तु निदान का विधान कठिन होता इसलिए जा रहा कि हम इस से प्रभावित होकर भोग भावना, महत्वाकांक्षा एवं सत्ता सामर्थ्य से जुड़कर सृष्टि पर छा गये. दीनता, रूग्नता, और विशाद ग्रस्तता ने किं कर्तव्य विमूढ़ कर डाला आज कल्याण कामना की ओट में राजतंत्र, तो गया गणतंत्र आकर कमजोड़ पड़ता गया और महत्वाकांक्षा तंत्र जब अपना हाथ पसारा तो शान्ति, सद्भाव और सामाजिक सरोकार पर आपत्ति आ खड़ी हुयी। कोविड- 19 यूक्रेन युद्ध और समलैंगिकता की स्वतंत्रता ऐसा ही विचारणीय विषय है।