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मन की महत्ता 

 ” मन एव मनुष्यानां कारणं मोक्ष बंधयो ” मन ही 
मनुष्यों की मुक्ति और बंधन का कारण है । 
हमारे पूर्वज स्वंत्रता की लड़ाई लड़े । उन्होंने लम्बी गुलामी झेली । सब कुछ झेला , अनुभव किया । ज्ञान की परिपुष्ट अवधारण में मनीषयों ने जो कुछ जगत को दिया उसे हम पुराणों में आख्यायित पाते हैं । हमारे पाठ्य पुस्तकों का निर्माण जीवन से जुड़े सभी आवश्यक पहलुओं पर दृष्पिात कर किया गया है । हमारा साहित्य त्रिकाल संज्ञक है । वह हमारे भूत वर्तमान और भविष्य तीनों पर समान दृष्टि डालता है । हमारी संस्कृति ने जो शिक्षण का मार्ग प्रस्तुत की , उसके कई मौलिक अध्याय एकत्र प्रस्फुट रूप में ग्रंथित नहीं है तथापि प्रार्थनाओं , सूक्तियों , पदों , शुभाषीत आदि में भलीभाँति उद्धृत हैं।

” मन रे तू काहे न धीरधरे ” 

भक्त कवि ने अपने मन को यह समझाने की कोशिश की है कि तुम मनोरथों का वाण छोड़ कर इस जगत को बंधन में क्यों डालता है ? तुम मुक्ति का द्वार क्यों बंद करता है । तू अपने रथ को विराम दो । धैर्य धारण करो । चेतना के तीन भेद है – मन , बुद्धि और विवेक । मन हमारी इच्छा शक्ति है । यह अव्यक्त है । हम किसी के मन का भाव नहीं जानते । इन्द्रियाँ अपना भोग चाहती है । अपने मन के भाव के अनुसार इन्द्रियाँ सक्रिय हो पड़ती है । इनद्रियाँ इच्छा का बाहक है । उनसे कर्म फलित होता है । विवेक ही घटनाओं । के सारभूत अनुभव पर शुभाशुभ प्रभावों का आख्यान प्रस्तुत करता है । 
बुद्धि निर्णयकर जीव को उचित कर्म का निर्देश देती है । विवेक हीन मानस होने पर बुद्धि का नियंत्रण असंभव होता है । अत : जीव – मनके ही वशीभूत होकर गलत कर्मों में फंसता हैं । ऐसे मानव सहित सब जीवों के कर्म में मन की ही भूमिका पायी जाती है । किन्तु चेतन मानव में बुद्धि और विवेक का भाव जागृत होता है । 
 अखिल बरह्माण्ड के पीछे मन ही कारण है । सकल सृष्टि मन से सृजित है । सारे उत्कर्ष – अपकर्ष मन से ही प्रभावित होते हैं ।

” मन के हारे हार है , मन के जीते जीत ” 

मन को अपने वश में कर लेने वाले की जीवन नैया पार हो जाती है किन्तु मन के सामने घुटने टेकने वालो की दशा देखें , कैसे वे शराब बंदी के बावजूद उससे मुक्त नहीं हो पा रहे । 

” रे मन कर तू हरि के भजन ”

 हरि भजन का तात्पर्य है ईश्वर का गुण गान।
 अर्थात भग्वद् शरण में जुड़ कर मन उन्हें सौप दें ।
डॉ0 जी भक्त

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