Sun. Nov 24th, 2024

भाग-4 राष्ट्रधर्म एवं राजभक्ति

 73. जो समाज या राष्ट्र का नेतृत्व चाहते हैं वे सुशिक्षित सहित सेवा परायण , कर्मठ और नैतिक गुणों और मानवीय मूल्यों के प्रतिरुप हो , राजधर्म का कीर्तिमान स्थापित किया हो और राष्ट्रभक्ति उनमें स्वाभाविक हो । उनमें कभी छद्म रुप में दोहरा व्यक्तित्त्व की झलक न मिलती हो ।

 74. जो अपने अभिक्रम पर अपनी श्रम – शक्ति , सेवा भावना और सच्ची लग्न से कम – से – कम 10 वर्षों तक समाज या अपने कार्य क्षेत्र में सक्रिय रहकर कीर्तिमान स्थापित किया हो , जिसमें उनका निहित निजी स्वार्थ न रहा हो , वही समाज के नेतृत्त्व का सच्चा अधिकारी हो ।

 75. जहाँ पारस्परिक हितों का टकड़ाव राजधर्म के साथ मन को किंकर्त्तव्य विमूढ करता हो , वहाँ राष्ट्र को ही महत्त्व देना अनिवार्य होगा । आपसी संबंध को भुलाना होगा नहीं तो राजधर्म फलित नहीं होगा , साथ – साथ अपना चरित्र भी लांक्षित होगा ।

 76. राष्ट्रहित या जनहित में राजनयिकों द्वारा कठोर कदम उठाना भी उत्तम राजधर्म है । प्रधान मंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी द्वारा 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा राजघरानों का प्रिविपर्स समाप्त करना राष्ट्रहित में कठोरतम प्रयास था ।

 77. सरदार बल्लभ भाई पटेल ( प्रथम केन्द्रीय गृह मंत्री ) द्वारा हैदरावाद निजाम को राष्ट्रहित में भारतीय संघ में मिलाना भी राज धर्म ही था । 78. बंगला देश ( पूर्वी पाकिस्तान ) की स्वतंत्रता दिलाने में भारतीय शान्ति सेना का प्रयास पड़ोसी राज्य में शान्ति स्थापना एक महत्त्व पूर्ण कदम था ।

 79. हमें भी अपने देश के अन्दर बिगड़ी व्यवस्था को सुधारने और नियंत्रित करने में नागरिकों की ओर से राष्ट्र भक्ति का उदाहरण पेश करना आवश्यक है ।

 80. सामाजिक आर्थिक , शैक्षिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष में भी देश के नागरिकों को अग्रण्णी भूमिका निभाने का अवसर आ गया है ।

 81. जब शरीर का घाव गहरा होता जा रहा हो तो उसे नासूर होने से रोकने हेतु शल्य क्रिया भी अपनानी पड़ती है । अतः राज धर्म में कभी युद्ध भी आवश्यक होता है और लड़ना राजभक्ति ।

 82. सामाजिक जीवन में मात्र ईमानदारी सर्वोच्च मानव धर्म है ।

 83. राजनेताओं के त्याग और जनहित का ख्याल सर्वोच्च राज धर्म है ।

 84. प्रशासनिक पदाधिकारी और कर्मचारी में सेवा भावना और दायित्त्व बोध ही राष्ट्र भक्ति हैं।

85. जनता का सर्वांगीन विकास और राष्ट्र का उत्थान लोक सेवकों का महान कर्त्तव्य है ।

 86. नागरिक या श्रमिक , पेशेवर , व्यवसायी वर्ग में सह – अस्तित्त्व का भाव , और पारस्परिक प्रेम का बंधन होना सबसे ऊँचा आदर्श है ।

 87. सांगठनिक स्वायत्त एवं स्वयं सेवी संस्थाओं का सहयोगी भूमिका सबसे ऊँचा मानव धर्म तथा राष्ट्र भक्ति है । 88. विविध प्रतिष्ठानों की पूरक भूमिकायें लोक मंगल और लोक संग्रह का प्रशस्त राजमार्ग है जिसपर चलकर हम समाज में अपनी पहचान बना सकते हैं ।

 89. शैक्षिक परिवेश राष्ट्र का मानस है जहाँ से ज्ञान और सरोकार का तादात्मय फलित होता है जिसे हम मानवीय मूल्य की संज्ञा देते हैं ।

 90. समस्त घरेलू , सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्श का बीज इसी परिवेश में अंकुरित होता है । जहाँ से ज्ञान को पंख लगते हैं और सेवा को पुरस्कार प्राप्त होता है । सपने साकार होते हैं तथा इतिहास उसे याद रखता है ।

 91. हमारा व्यक्तिगत संकल्प अगर दूरगामी लक्ष्य रखता है तो उसे एक दिन राष्ट्र सम्मान देगा ही ।

 92. जो जल्दी समृद्धि चाहते हैं , उनके मानस में किंचित दुविधा पायी जाती हैं ।

 93. राज धर्म हो या राष्ट्रभक्ति , दुविधा दोनों के लिए ( राष्ट्र एवं नागरिक ) अशोभनीय है ।

 94. नागरिकों में सेवा भक्ति और स्वयं सेवक सा आदर्श देश और परिवेश के प्रति निष्ठा का भाव सूचित करता है ।

 95. किसी संगठित राष्ट्र में विधि व्यवस्था अत्यावश्यक पहलू है , जैसे – सामाजिक अनुशासन । चूँकि समाज वाले , पड़ोसी , अपने संबंधी , बन्धु – बान्धव और कुटुम्वी – मित्र होने से प्रगाढ़ संबंध और अनुशासन के साथ आचार निष्ठा पायी जाती है । यह धारा सनातन है।

 96. राजकीय व्यवस्था में निजता का संबंध नहीं , मात्र राज्य निष्ठा और कर्त्तव्यबोध तक ही अपेक्षित रहता है । सेवा के लिए वेतन मिलता है । नौकरी में स्थानान्तरण अधिकार में दबदवा और कर्म क्षेत्र में अपराध निरोध । एक शर्माजी जमादार थे । उनके शब्दों में वादी या प्रतिवादी से सच्चाई के अन्वेशन पूर्व घूस लेना उसके लिए दंड है अनैतिकता नहीं ताकि वह अपराध करने या गलत या झूठा इलजाम लगाने से भय खाये ।

 97. उपरोक्त भाव के सहारे राज धर्म का हनन और प्रजा का शोषण होता है । धीरे – धीरे अपराध निरोध का प्रहरी स्वयं अपराधकर्मी – सा बरतने लगता है । आज यह महकमा पूणतः बदनाम है । विधिव्यवस्था में अनैतिकता , सामाजिक सुरक्षा , न्याय प्रक्रिया , राज्य में शान्ति और आपराधिक तत्त्व पर नियंत्रण पर खतरा है ।

 98. देश भक्ति और सेवक का कर्त्तव्य बोध राष्ट्रीय आदर्श है । स्वार्थ और उसकी सिद्धि आपराधिक क्षेत्र में मनमानी से शिखर पर पहुँच जाता है ।

 99. पुलिस थाने पर नजर डालें । वहाँ बीसों वर्षों से माल लदा ट्रक , गाड़ियाँ और बाइक बुरी दशा में पड़े हैं । उनके पार्टस गायब है । लदा हुआ सिमेंट जम कर पत्थर बन गया । अपराध हुआ । जब्त माल या वाहन पकड़ा गया । माल सुरक्षा हेतु थाना पर लाया गया । वह राष्ट्र की या किसी की सम्पति है । सोचियें , इसमें कौन और कहाँ – कहाँ चोर है ? कौन जिम्मेदारी लेता है ? आप बता सकते हैं इस व्यवस्था की सच्ची उपलब्धि ? अगर कुछ देखा जा उसका तो सकी ताकत भारी रकम या ऊँची पैरवी है । वहाँ पर राजधर्म और राष्ट्र भक्ति की जो झाँकी खड़ी है वह किस सम्वेदनशील पत्रकार या इतिहासकार की प्रतीक्षा में अपना बुरा दिन गिन रहा है ? लेकिन सुनने वाला कौन है ? किसे शर्म आती है ? बात पुरानी हो गयी ।

 100. इसे ही हमनें अपराध बोध को मन से हटाकर युग बोध मान लिया है ।परन्तु हम भारतीय हैं । हमारी संस्कृति है ” सत्यमेव जयते ” ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *