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भाग-3 राष्ट्रधर्म एवं राजभक्ति

 54. जब शिक्षा , शिक्षालय और शिक्षार्थियों के परिवेश से मानवादर्श का लोप और कदाचार का उद्भव अनियंत्रित हो रहा है तो राज्यादर्श और राष्ट्रादर्श कहाँ पैदा हो ?

 55. अगर देश अपनी सांस्कृतिक मर्यादा को फिर से जगाना चाहता है तो उसे नयी पीढ़ी को सुधारना होगा । प्राथमिक स्तर से शिक्षा को मर्यादित और परिवेश को पवित्र आयाम देना अनिवार्य होगा । मात्र घोषणा और विचारों के प्रकाशन भर से नहीं , कार्य में एक जुटता , तत्परता और नैतिक दायित्त्व की आवश्यकता होगी ।

 56. सिर्फ संस्था खोलना आर्थिक कमाई भर है । संस्थाओं सहित व्यवस्था में सुधार तथा सत्ता में सच्चरितता लाने एवं पुरानी संस्थाओं को ही गुणवत्तापूर्ण बनाने की पहल होनी चाहिए ।

 57. शासन व्यवस्था केवल परिपत्र जारी करना और जबाव संग्रह करना मात्र नहीं , जमीनी सच्चाई जानने परखने की आवश्यकता है । अब तक ऐसी बात प्रयोग में पायी गयी तब तो भ्रष्टाचार पनपा और वह घृणित स्वरुप में राष्ट्र को बदनाम कर रहा है ।

 58. जय प्रकाश नारायण ने 1974-77 में सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाया उन्हें नाजी वादी करार देकर इमरजेन्सी लगायी गयी थी । आज देश दूकानदारी बनने की संज्ञा पा चुका तो भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाले सर्बोच्य माने जा रहे हैं ।

 59. भारत एक संधीय व्यवस्था सम्पन्न राष्ट्र है । इसमें राज्यों को स्वतंत्र सत्ता संचालन का विधान और राष्ट्र द्वारा नियंत्रण का विधान और साम्वैधानिक विधान है । आज राज्य विघटन के कगार पर जाकर राष्ट्र को टुकड़ो में बाँट रहा है । आन्तरिक और बाहरी आतंक प्रतिदिन प्रतिक्षण पहरा दे रहा है । सीमा समस्या है । देश की सुरक्षा और प्रतिरक्षातंत्र पर भी सवालिपर निशान हैं । सांसदों की जेब नहीं तलाशी जाती और संसद पहुँचते उनकी आस्तीन से सर्प ससर कर निकलता है । डॅस लेता है । ऐसे ही लोग शासन चलाते और अपनी सत्ता को सुरक्षित रखना चाहते हैं । उन्हें मानसिकता बदलनी होगी । राष्ट्र के प्रति – भक्ति जगाती होगी ।

 60. मतदान देकर सत्ता सौंपने वाली जनता मूर्ख नहीं है । वह सब भी जानती है । समाज अपने निहित स्वार्थों और भटकाव से प्रभावित होने के कारण एकता खो चुका है । लाचार जनसंख्या अभिशप्त है । जागरुकता नहीं आने से वह अभिशप्त ही रहेगी । ऐसी अनेकों विपरीत परिस्थितियाँ भी है जिन पर सरकार सोचना नहीं चाहती । उसे जनता को ही सोचना होगा । देश पर संकट गहरा रहा है । महत्त्वाकांक्षी मानस वाले अपना तर्कश संभालने में लगे हुए अपने लिए सुरक्षा कवच की तलाशी कर रहे हैं ।

 61. किसे चिन्ता है भारत के कृषकों के विकास की । धान की कीमत तय हुयी -12 रु० 50 पैसे । व्यवसायी चावल बेंच रहे 30 रु ० से 35 रु ० प्रति किलो सामान्य स्तर पर खाने योग्य । बी ० पी ० एल ० वालों को मिलता है । तीन रु ० चावल और 2 रु ० गेहूँ । जो खेती करते हैं उन्हें मूल्य नहीं । ऐसे ज्वलंत प्रश्न सदा से अनुत्तरित रहे , हैं , रहेगा ।

 62. जिस देश में गरीब का जीवन बसर 16 रु ० से 32 रु ० के बीच हो पाना संसद को समझ में आता है , उसके शासन संचालक अपनी यात्रा भत्ता किस दर से लेते हैं ? यह जनता को बेचैन नहीं कर रहा जो हर पाँचवे वर्ष उन्हें नवजीवन प्रदान करती हैं ।

 63. सत्ता को अपने प्रशासन तंत्र तक ही नहीं , जन जीवन से संबंध रखने एवं राष्ट्र से सुविधा पाने वाले पर जिम्मेदारी निर्धारित करनी होगी । उसके प्रति अगर कठोर कदम न उठाया जायेगा तो देश का चक्का गढ़े की ओर ही खिसकता रहेगा ।

 64. देश के गरीब कहे जाने वालों को जबतक महंगाई और क्रयशक्ति के तादात्म्य को ध्यान में रखकर विकास का अवसर न दिया जायेगा तब तक उसकी गरीबी मिटाने की कल्पना झूठी होगी ।

 65. भारत की राष्ट्रयनीति में सह अस्तित्त्व की भावना को स्थान दिया गया है । क्या पूँजीपतियों के पोषण और हाशिये पर जीवन क्सर करने वालों के तुष्टिकरण से उस भावना को कुछ मिल सकता हैं ?

 66. आर्थिक समाजवाद इसे ही कहा जाता है जहाँ की 80 प्रतिशत जनता दैन्य का शिकार हो और चन्द पूँजीपतियों के हाथ में राष्ट्र की पूरी सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा पर अधिकार हो ?

 67. जिस देश को स्वतंत्रता दिलाने वाले बापू ने आधी धोती पर जीने , स्वदेशी की शिक्षा , ग्रामीण दस्तकारियों को प्रश्रय देना , स्वावलम्बन और सादगी की शिक्षा को अपनी दशा सुधार ने तथा ग्राम स्वराज्य की नीति से सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर सपना देखा था क्या वही हमारा आज का पंचायती राज और उसकी भूमिका है ?

 68. यह विडम्वना है कि हम , प्रगतिशील और समृद्ध कहे जाते हैं । जीवन काल और परिस्थिति के वश में है इस पर किसी का आधिपत्य नहीं है । इसे कदाचित भाग्यवादिता न समझें ।

 69 जिस प्लूटो ने राजनीति से धर्म को प्रथक किया , उस पर मैं ज्यादा प्रतिक्रिया नही देता । मैं उस काल का न पत्यक्ष न ऐतिहासिक रुप से ही साथी हूँ । किन परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा नकारात्मक विधान व्यवस्था देने को बाध्य किया ।

 70. मैं पूर्व में कह चुका हूँ । राजनीति सनातन नहीं , परिस्थितिक और परिवत्तनीय विचार धारा मात्र है । उसका व्यवहारिक पक्ष राज धर्म और राज्य भक्ति है । चाणक्य नीति को समझें । सफल रानीतिज्ञ समाज शास्त्री और आदर्श मानवतावादी साबित हुए । वैश्विक धरातल पा चुके हैं । हम अपने समाज में ही लांछित हो रहे हैं । यह भी आत्म मंथन का विषय है ।

 71. मैं इस छोटी रचना के प्रति न भावुक हूँ न आवेश है न आक्रोश । वर्तमान परिदृश्य और भविष्य के प्रति चिन्तनशील और समाधान के प्रति आग्रहशील हूँ । इस विषय में कुछ बढ़कर चिन्तन की प्रवृत्ति विकसित करने और प्रतिक्रिया आमंत्रित करने की अपेक्षा करता हूँ । खासकर स्वदेशी मानस की क्या रुप रेखा तैयार होती है या इसे महत्त्वहीन समझा जाता है , जैसी देश की परम्परा है , अथवा कोई प्रत्याशा रखता हूँ । एक नागरिक की हैसियत से मैं जो कुछ बनता है कर रहा हूँ और देश को अपने विचार से अवगत कराना चाहता हूँ । युग धर्म स्थापित करना चाहता हूँ ।

 72. समाज सेवा या राष्ट्र सेवा जिनका लक्ष्य है वे स्वच्छता को आदर्श बनायें और निजी लाभ की कल्पना न करें ।

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