विचार वैभव
सृष्टि में जीवधारियों के बीच चेतन मानव शिरमौर माना जाता हैं क्योकि यह विचारवान है । वाणी और चेतना जीवो में निजी वैभव ( धन ) हैं जो कोई बाँट नही सकता | विचार बोलने भर की कला मात्र नहीं हैं ; उसमे शक्ति निहित हैं | ओज भरी वाणी सुनने वालो मे उत्साह , साहस , शौर्या का प्रवाह पैदा करती हैं | शरीर के स्फूर्ति और पेशियो मे बल अनुभव होता हैं । रोमांच और भुजाओ मे फड़कन सी | मानव मे ऐसी क्षमता का आभास दिव्य देन है । आत्मबल से परिपूर्ण अभिव्यक्ति वह बिभूति है जो कर्म और ज्ञान कोई अविरल प्रवाह से मानव समाज को प्रेरित प्रफुल्लित हो नही करताबल्कि आत्मविश्वास भरा शौर्य जागत करता है | यह देह जैसा नाशवान और विस्मृति जैसे क्षण स्थायी नही , चिरस्थायी एवं शाश्वत है | इस प्रकार की विभूति पाकर मानव आज अपनी सभ्यता और संस्कृति सृजित कर धन्य है । इतिहास इसका साथी है और स्मृति चिन्ह उनका व्यक्ति कृत स्वरूप है जहाँ और जिसने इसे स्वरूप दिया , वह तीर्थ बना और कर्ता कर्णधार |
विचार शक्ति विकास ही कर्म कथा है | यही सभ्यता और संस्कृति की जन्म दाता है । इसी मे सारा विकास छिपा है । यही अविष्कारों की जननी है , यही से ज्ञान का उद्भव है | यही विवेक को प्रकट करती है । इस शक्ति को प्रकृति प्रेरित है । उपादन कारकों में प्रकृति का स्वरूप , कर्म , गुण , धर्म और उसका निर्माण भाव , प्रसारण , संकोचन , अनुभूति प्रभाव और प्रतिफलन है । प्रकृति ही वह संपूर्ण साधन है जिसपर हमारी विचारशक्ति जाकर टिकती है और कर्म विन्यास की परिकल्पना शुरू होती है । समस्त माननीय कृतियाँ और विश्व का स्वरूप हमारी कल्पना शक्ति ( विचारवैभव ) का ही व्यक्तिकरण , नामकरण और उसका प्रचार प्रसार है । हम नाम से ही स्वरूप का ज्ञान या पहनचन पाते है ।
वर्न , अर्थ , शब्द , अभिव्यक्ति , काव्यसहित्य , वेदशास्त्र , व्याकरण , ज्योतिष , भूगोल , न्याय , तर्क , संहिताएँ , तरह तरह के अविष्कार यंत्र , उपादान , संज्ञान , साधन और समृद्धि विचार शक्ति का ही प्रतिनिधित्व कर रहे है | विचारशक्ति ही मंत्र , तंत्र यंत्र रिद्धि एवं सिद्धियाँ है | सबका सारांश यही है की बिना विचारे कुछ भी फलित नही हो सकता | विचार ही कर्म को उर्जा प्रदान करता है | विचार एक खोज है , निदान है , विचार ही मनुष्य को महान बनाता है , विचार हीनता ही मृत्यू है । विचार ( मानस ) के ही संसार भासता है ।
तथापि कुछ बाते शेष बच जाती है । इसे युगधर्म कहें या युग का खोखलापन क्योंकि यह तथाकथित विकास के पथ पर उभरी हुई है विकृति सी लगती है , अथवा उपभोक्तावादी महत्वाकांक्षा मे आयी संकीरणता का परिणाम है । विकास की अविरल धारा से जुड़ना एक प्रगत भाव है जबकि दूसरो के विकास की प्रकिर्या को मात देने की दौड़ मे उपज़ी गतिविधियो की वक्र चाल हो तो ऐसी विचारधारा वैभव की शृंखला पार कर एक नयी धारी का निर्माण करेगी जो धारा प्रवाह को छिन्न भिन्न कर डाले |
आज समाज की एकता छिन्न – भिन्न हो ही चली है । कहते है कि बदलाव का जमाना है , लेकिन हम तो भूले भटके से दिख रहे । भ्रमित है या भ्रांति पाल चुके है । अपनी चेतना में चमत्कार लाने की चूक ने उनकी शूचिता को प्रदूषित कर डाली |
लेकिन मीरा अपनी धारा से विचलित नही ह्यी |
मीरा के शब्द : –
अबतो वात फैलगयी जानै सब कोई ।
मीरा राम की लगन लागी , होनी होई सो होई ॥