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सुखद और शान्ति पूर्ण जीवन का निर्वाह
 – : स्वाबलम्वन से सम्भव : –

सुखद और शान्ति पूर्ण जीवन का निर्वाह - : स्वाबलम्वन से सम्भव : - Living a life of happiness and peace -: Self-reliance is possible: - Dr.-G.-Bhakta-Article

बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि भारत सात लाख गाँवों का देश है । यहाँ के 80 % लोग गरीब की श्रेणी में आते हैं । इसमें किसान और मजदूरों की गिनती की जाती है । किसान जो छोटे स्तर के , जिन्हें जोत के अनुसार जीवन निर्वाह के लायक जमीन नहीं , मजदूरी करना उनका साधन मात्र है । रहने के लिए घर भर जमीन है । जरूरत के लायक वस्त्र नहीं । बच्चे की पढाई और रोगियों की चिकित्सा के लिए पैसे नहीं , परिवार के सभी सदस्य अर्थोपार्जन नहीं करते , उनमें बच्चे बूढे और शरीर से अस्वस्थ , विकलांग और अकुशल लोग होते हैं । यहाँ तक कि कुछ लोग भिक्षाटण करके पेट भरते है । ये सभी ऐसे लोग होते है जिनके परिवार की महिलायें मजदूरी करती है और जो लड़के अनाथ और महिलायें विधवा हैं उन्हें भी परिश्रम करनी पड़ती है । दो जून का भोजन भी पाना कठिन होता है । ऐसे लाचार लोगों के परिवार के पुरूष अन्य राज्यों में जाकर जीविका पाते हैं । जब उन्हें सालों भर कमाई का अबसर नहीं मिल पाता तो उन्हें घर वापस लौटना भी पड़ता है । जीविका का साधन सबों में उपलब्ध नहीं , तो आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य , सुरक्षा और फिर विकास के साधन और अवसर प्राप्त होना यहाँ एक जटिल समस्या जमाने से चलती आ रही है ।
 वर्तमान युग की जनतांत्रिक सरकारें उनके लिए साधन जुटाने और जीवन यापन के अवसर पर विचारने की सफल योजना बनायी तो उनका विधिवत क्रियान्वयन नहीं हो पाया ।
 फलतः गरीबी बनी रह गयी । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक लम्बी अवधि बीत गयी । देश की जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब छूने पर है । रोजगार के साधन जनसंख्या के अनुकूल पैदा न हो पाये । जब खाने पर लाले पड़े तो विकास की कल्पना ही बेकार है ।
 अपने देश में प्रारंभ से ही जातिगत व्यवस्था लागू रही । जातियाँ अपने जीवन यापन के अलग – अलग तरीके अपनायी जो एक सामाजिक व्यवस्था बनकर आज तक जीवित पायी जा रही । ऐसे भारत की जातिगत व्यवस्था में भी समाज वाद छिपा है । ये सभी एक दूसरे के पूरक बनकर भारतीय संस्कृति बन गयी । इसके अन्तर्गत विषमता , भेद – भाव , ऊँच – नीच , छूत – अछूत के भाव समाज के कोढ़ बने और प्रेम – सद्भाव की जगह जो योग्यता हासिल किए उनमें स्वार्थ जगा और शोषण की प्रवृत्ति जगी । जो प्रबुद्ध और उन्नत बने वे कमजोर को अपना सेवक बनाकर अपना हित साधने लगे अतः उससे आर्थिक विषमता समाज को भावनात्मक दृष्टि से बाँट डाली जो मिट नहीं पा रही । वे जातियाँ अपने – अपने कार्य से अपनी पहचान पायी ।
 लोहार , बढ़ई , हजाम , कुम्हार , तेली , धोबी , मोची , पासी , नोनियाँ , बीन , हलवायी , दर्जी , धुनिया , जुलाहा , ताँती , केवट , मल्लाह , सौंडिक , डोम , भंगी , रंगरेज , माली , तमोली आदि पेशेवर जातियाँ सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ तो बनी । उसी में लिपटा हुआ समाज जब आज के विकसित विज्ञान और औधोगीकरण के युग में उद्योग पति , पूँजीपति वन कर सुख सुविधाओं का स्वर्ग भोग कर रहा है तो भारत के गरीब आज भी दाने – दानें के लिए घर से बाहर पलायन कर रहे । अब तो ऐसी स्थिति आयी कि उन्हें वहाँ से भगाया जा रहा । कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहाँ रोजगार के अवसर है तो वहाँ जाकर पेट पालते और कुछ नगद कमाकर घर का खर्च चला पाते हैं ।
 यहाँ पर भी पूँजी पति , उद्योग पति है जो सीमित हैं । उनपर भी मशीनीकरण हावी है । मजदूरों का हक छीन कर उद्योग पति मालोमाल होते है । बिहार प्रान्त के मुख्यमंत्री नितीश कुमार जीने अपने यहाँ उद्योग का जाल विछाने की बात सोची किन्तु यहाँ की व्यवस्थागत कमजोरियों के कारण उद्योग पति यहाँ आकर निवेश करने से हाथ खीच लिये जिससे बिहार में रोजगार देने की कल्पना साकार न हो पायी । बेरोजगारी बनी की बनी रह गयी । 73 वर्षों का स्वातंत्रयोत्तर भारत रोजगार दिलाने की दिशा में कुछ विशेष न कर पाया । आज उसकी खामियाजा का एक नतीजा कोरोना के संक्रमण में प्रथम कारण बना । हमारे देश के प्रधान मंत्री जी ने कहा – मैंने कोरोना से सीख ली है कि हमें स्वावलवन पर ध्यान देना आवश्यक था । नहीं तो इतनी मात्रा में प्रवासी का अपने देश या राज्यों में आना कोरोना को देश में फैलाने का दोषी माना जा रहा है । देश के नेतागण पूर्व की सरकारों को इसके लिए दोषी बतलाते हैं । गाँधी जी ने तो उसी कार्यक्रम को चलाकर स्वतंत्रता की लड़ाई जीती किन्तु स्वतंत्रता के बाद लोगों ने उनके इस दूरगामी लक्ष्य को भुलाये तो आज उसे भोगना पड़ रहा है । लाभ इतना ही मिला कि उन्हें प्रवासी नाम से सम्मानित किया गया । वे नौकरी पाये बिना वहाँ देश में प्रवासी कहलाये , यह सोच की भूल हैं ।
 कोरोना काल में सरकार कई तरीकों से राहत पहुँचाई जिससे तीन महीने में अर्थव्यवस्था में कमजोरी पायी और शराब की बिक्री पर मानस टिका । यह भी चिन्ता जतायी गयी , साथ ही इसे गर्म जोशी के साथ प्रचार किया जा रहा है कि सरकार द्वारा शीघातिशीघ्र स्थायी रूप से बेरोजगारी मिटाकर उन्हें विकास का अवसर प्रदान किया जायेगा , साथ ही तत्काल प्रभाव से मनरेगा कार्यक्रम का लागू करने की घोषणा हो गयी और मजदूरों की जगह मशीन सड़क पर उपयोग में लाये जाते देखा गया । देश को कृषि प्रधान और धर्म प्रधान बताया गया । किन्तु न व्यवहार – तथा हमारा देश धार्मिक है न कृषि प्रधान ही । कृषकों की हालत अपने देश में अच्छी नहीं । उसे गिना पाना कोई सार्थक पहल नहीं । राहत , सवसिडी , कर्ज की माफी आदि का विधान का प्रभाव उनकी आर्थिक दशा में अबतक सुधार न ला सका । इसके लिए अवश्यक है कि एक नीति तैयार हो जिसका सकारात्मक प्रभाव आर्थिक सुधार के रुप में पारदर्शी पाया जाय और गरीबी का डेमोग्राफ घटे । गरीबों में क्रयशक्ति बढ़े , आर्थिक रूप से अपने आप पर ही आश्रित पाये जायें ।
 आज आप बैंकों से कर्ज दिलाने का विधान कर रखे । उद्योग पति बैंकों का ऋण लेकर कैसा खेल – खेल रहे हैं । गरीब बैंकों का ऋण नहीं चुका पाते । छोटे व्यवसायी बड़े उद्योगों के आगे टिक नही पाते । पेशेवर जातियों का आज पोषण नहीं हो पाता । आप प्रेरक बनते है । पोषक और संरक्षक की भूमिका वाली नीति बन भी जाय तो उसका पालन होने की जिम्मेदारी कोई नही लेगा । कानून और न्याय से काम नहीं बनता । समय , शक्ति और सम्पत्ति का क्षण होता है । इन्सान की व्यक्तिगत जिम्मेदारी और सरकारी विभाग के पदाधिकारी की इमानदारी में राष्ट्रीयता का भाव सक्रिय हो पाये तो काम बने । जवनीति निर्माणकर्ता का लक्ष्य देश सेवा की जगह आत्मोत्कर्ष और सुखो – पभोग होगा तो आर्थिक संरचना पर ही चोट पड़ेगी । वहाँ विकेन्द्रित लघु उद्योगों का व्यवसाय विखर जायेगा । यहाँ नैतिक जम्मेदारी बड़ी वस्तु है । सेवा के साथ कर्त्तव्य बोध का निर्वाह आवश्यक रुप से आधारभूत संरचना को टिकाउ स्वरुप में खड़ा कर ही किया जा सकता है जो जन सहयोग के साथ आपसी सद्भाव से सींचा गया हो । जहाँ सार्वजनिक जिम्मेदारी की बात आती है तो सद्भाव का पलड़ा हल्का होना प्रारंभ हो जाता है । रचनात्मक स्वरुप का रंग फीका पड़ना इस जन तांत्रिक – युग के त्रिस्तरीय विधान में सिमट कर खो जाता है । इसका सफल नेतृत्व अबतक सम्भव हुआ नही , …. … अब कब होगा ?
 प्रतिदिन गलाफाड़ – फाड़ कर भारतीयता का नारा लगाने वाले का गठबन्धन कभी अपनी एकता कायम रख नहीं पाते तो नीतियों का नियमन और सम्पादन में पाँच वर्ष की अवधि निमेष मात्र है । कोरोना के कहर में भी जब दवा की जगह कूट – नीति का जहर घोला जा रहा हो तो मानवता का अस्तित्त्व मिट कर रहेगा । जब सुरक्षा परिषद् कायम है तो दियागोगार्सिभा में शान्ति स्थापित होगी ?

 डा ० जी ० भक्त
 मो०-943800409

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