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 स्वास्थ्य का दोहरा अर्थशास्त्र और बहुव्यापक रोग

 ( Paudemic Orieuted Bilateral Economy and Health )

Dr. G. Bhakta


इसे भूल माने या चिकित्सा विज्ञानियों की उदासीनता , 20 वर्षों पूर्व दस्तक दे चुकी कोरोना पर जागृति नही जताई गयी जो आज समस्या बनकर सता रही है । यह समस्या सिर्फ अपने देश में नहीं , विश्व भर की है । और इसके पीछे आर्थिक सोच के बहुकेन्द्रित विषय हैं जिनकी आड़ में हम पिछड़ रहे हैं और उनके प्रभावों से पीड़ित हैं ।

 रोग हमे अस्वस्थ करता है । रोगी को स्वस्थ करने के लिए उपचार जरुरी है । उपचार या चिकित्सा एक व्यवस्था की अपेक्षा रखती है । आज अपर्याप्त व्यवस्था के कारण कोरोना जा नहीं रहा । भारतीय संस्कृति में स्वस्थता की अमोध कुंजी पौराणिक देन रही जो जेनरल नॉलेज के रुप में सिखलाई जाती रही । किन्तु वैज्ञानिक निर्भरता में हम भूल बैठे । विश्व में चिकित्सा की विविध पद्धतिया प्रचलित हैं किन्तु एक ही पर विश्व निर्भर है । महामारियों में इसकी व्यवस्था सरकार अपने हाथों लेती है । चिकित्सा और बचाव ( विसंक्रमण और प्रतिषेध ) की व्यवस्था खचीली । इसकी जिमेदारी सरकार लेती है और संयम सुरक्षा विधान में नागरिकों को सत्तर्कता अपनाने की आवश्यकता पड़ती है ।

 दुखद है कि वैश्विक व्यवस्था आज इस विश्वव्यापी संक्रमण के निवारणार्थ न विशिष्ट दवा दे पायी न बचाव के वैक्सिन । लगातार विनाश के कगार की ओर बढ़ते लगभग दो वर्ष पूरा करने की ओर हैं । दवा तो नही परन्तु अपर्याप्त तैयारी और उपलब्धि के साथ अपुष्ट गुणत्मकता के विरोधाभास के साथ यथा साध्य टीकाकरण जारी है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का अपना अनुमान जो कोरोना को मिटाने की समय सीमा दी गयी है , उसके संबंध में विश्व के विभिन्न देशों में चल रहे अभियान के मद्दे नजर चिन्तकों का गणीतीय आँकड़ा बताता है कि वर्षों लग सकते हैं तबतक जितनी समस्यायें अनुभूत पायो गयी और सम्भावित लगती है , उसके जूझने में लगातार चौकाने वाले विकराल बदलाव का भय , उवसाद , विसाद , उत्पाद की कभी , मानव की क्षति , अर्थव्यवस्था की उत्तरोत्तर गिरावत अनिश्चितता की स्थिति , विकास पर आघात , स्वास्थ्य और आरोग्य क्षमता का हास , अपोषण , दुर्मिक्ष आदि झेलने की नौवत कबतक रहेगी , कहना असम्भव है ।

 सभी चिन्तित है । अन्य चिकित्सा पद्धतियों का साथ नही लिया जा रहा । मुख्य रुप से वैक्सिन पर ही सब कुछ निर्भर दीख रहा है , वह भी संदिग्ध और उपर्याप्त । अगर सभी देश अपने यहाँ वैक्सिन तैयार करें यह सम्भव नही । गरीब राष्ट्र न कीमत चुका कर आयात कर सकता है न कम तकनीक वाला देश उसे स्थापित कर सकता , न निर्माण का आधिकारिक एवं ज्ञानात्मक विधान पा सकता न पूँजी निवेश कर अपने यहाँ अथवा विदेश से वैक्सिन प्राप्त कर सकता है । … फिर वैसे देश जो अर्थ एवं तकनीक सह विज्ञान पर अधिकार रखन वाले हैं उनकी अपनी अस्मिता और महत्त्वाकांक्षा है । इतनी गम्भीर समस्या के बीच इस जंग को जीतना किस कल्पना पर आशा जुटा सकेगा जब तक औषधीय निदान की सरलतम प्रणालो और न्यूणतम लागत वाली व्यवस्था न लागू हो पाती है ।

 ऐसा विश्वास दिलाने वाली हर प्रकार से सक्षम किफायती , सर्व सुलभ एक ही होमियोपैथी हो सकती है । किन्तु विश्व की व्यवस्था में अबतक इसकी भूमिका नहीं पायी जा रही । अगर जनता सहित होमियोपैथों को आगे आना चाहिए । सेवा का लक्ष्य निभाना चाहिए । देश को इसकी अपेक्षा है ।

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