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 ऐ मन काहे न धीर धरै ?

 जीवन में मानव का चेतन मन प्रकृति की विराटता में आशा और तृष्णा की प्रबलता के सथ भटकना त्याग नहीं रहा , जैसे उसे कहीं भी , सुख में भी सन्तुष्टि नहीं मिल रही हो । क्या उसने अपनी निजता को दरिद्रता से जोड़ रखी है ? क्या वह नहीं समझ पाया कि विधाता ने उसे दीन नहीं , स्वतंत्र बनाकर भेजा था ? यहाँ आकर तूने विविध भाँति अपने को भीड़ में भुला लिया । कही शोर में जा डूवा । वहाँ उसकी आँखे जगत को देख लुभा गई । कान सुनता नही । भीड़ से निकल नहीं पा रहा । उत्तरोत्तर वह नूतनता की ओर भाग रहा है । बेचैनी में फँसा है , निर्णय नहीं जुटा रहा कि अगला बहूत दूर दीखता है .. और पिछला को देखेगा कौन ? मानता नहीं , बन्धन छूटता नही .. ।

 इतना ही नहीं जो मिले थे , वे जान छुड़ा कर चले गये , जिन्हें हमने सृजा वे भी बिछुड़ते गये । सब की एक ही सी दशा । एक बड़ी विडम्बना बन गयी थोड़ी सी सम्पत्ति । वैभव विभूति की कहानी सदा अपनी जवानी पर डटी रही । पूरा करते देह थक गयी , मन न थका । मृत्यु सामने आकर खड़ी है । माया के वश में वखस आत्मा पुकार उठी .. …….. नहीं , नही . उसे अभिनिवश क्लेश भी घेर रखा है । अपनी झोपड़ी से उसे मोह है , घरवाले अपने स्वार्थ की वंशी बजाकर उन्हें बोध रहे है । आँखों में आँसू तो आये किन्तु प्रभु का ख्याल न आया । … … सिर्फ संगियों ने कहा – ” राम नाम सत्य है । “

 वहाँ सूनसान श्मसान था । उपर नीला आकाश । लकड़ियों की चिता सजी थी । मैं अब नींद में सो चुका था । इस देह को उसी धरती पर छोड़ कर ……. लोगों ने जलते देखा । वे कहाँ गये , रहस्य हो बना रहा । शास्त्र इतना कहता है।

 धनानि भूमौ पशवश्चगोष्ठे ,

 नारिगृहद्वारि सखाश्मसामे ।

 देहश्चितायां परलोक मार्गे ,

 कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।

 शिक्षा कुछ और है सत्यता कुछ और । ऐसा फिर क्यो ? लोगों ने जीवन में अन्यों को जीते देखा । वैसा ही सीखा । जीवन में झांक कर नहीं देखा । उसे माया में जीना पड़ा । भोग में जीया , रोग में जीया , संतोष को छूआ तक नहीं । सत्य छिपा रहा । स्थायी को पहचाना नहीं , परिवर्तन को जीवन माना । अतः सत्य रहस्य ही बना रहा ।

दुर्वासना ममसदा परिकर्षयन्ति ,

 चित्तंशरीरमपि रोगगणा दहन्ति ।

 संजीवनं च परहस्त गतं सदैव ,

 तस्मात्वमेव शरणं , हे दीनबन्धो ।।

 सृष्टि ब्रह्म रुप है , जगत उसकी प्रतिच्छाया है । उसमें परिवर्तन ही जीवन है । उस जीवन के अन्दर ब्रह्म रुप सत्य की खोज करने वाला ही तत्त्वदर्शी है । ब्रह्मा और जगत के रहस्य को सुलझाने वाला तत्त्वदर्शी गुरु शास्त्र या ज्ञानियों का सत्संग ही संजीवनी बूटी है जिसके शरण में संसार रुपी भ्रम का निराकरण सम्भव है , जो लम्बी यात्रा है । लेकिन हमारे जीवन को दिशा देने वाला मन और इन्द्रियों का विषय जो काल के वश में है उसे धीर और गम्भीर होना आवश्यक है । हम जिस संजीवनी के फेरे में जीवन को जोड़ रखा है , वह घर , पुत्र , पत्नी , परिवार धन , वैभव सब क्षण स्थायी , परिवर्तन काल का आहार बना हुआ है । उसे सत्यम् शिवम सुन्दरम् का आश्रय चाहिए , जो सचिन्दानन्द नित्य और सर्वत्यापी है । जो उसे जीवन से जोड़ेगा , प्रेम करेगा , उसके पति भक्ति भाव रखेगा , वही जीवन का सार रुप श्रेय पा सकेगा । मीरा के शब्द –

 दघि मथ घृत काढ़ लियो , डार दिया छोई ।

 मीरा राम की लगन लग्यो होनी होइ सो होई ।।

 सत्य का अनुशरण करते हुए आशा और तृष्णा से परे जीवन जीने में ही श्रेय मान कर चलना भक्ति का यथाथ है । जिसे राम तत्त्व की प्राप्ति हो जाय , उसे अन्य सम्पत्ति की क्या आशा ? ” मै तो राम रतन धन पायों ” जब हृदय से यह आवाज उठी ।

 एक छोटी सी बात है , कुछ ही शब्दों में समाप्त हो जाती है । सफलता – असफलताओं से बनी यह जीवन की अकथ कहानी संसार है । इसमें दस से कम ही शब्द है । आदि से अनादि , भविष्य की सीमा तक यही चलती रहेगी । पाप का प्रतिशत अगभ्य और पुण्य का नग्नय है । इतिहास कर्मो की गाथा है । इतिहासकार के छन्ने से होकर पुण्यात्मा और पापी दोनों ही छनते है । एक का कर्म उसे अमर की श्रेणी में अंकित करा डालता है शेष की याद काई नही करता । जो कीर्त्ति दुनियाँ को सजाती – सँवारती है वह टिकाउ है । उसका श्रेय चिरकाल तक रहेगा । अब इस विषय पर भी गौर करना है कि “ सुर – नर – मुनि ” सभी माया से ग्रसित हुए किन्तु सोद्देश्य जुड़े , बंधे नही , किन्तु हम बँधकर फँस गये , न उबर पाये न त्याग सके तो निराशा से घिरना तो स्वाभाविक है । इतना भर सबको विचारना अनिवार्य है । अपार ज्ञान श्रृंखला भी माया है । व्यास के बचन –

” परोपकाराय पुण्याय , पापाय पर पीड़नम । “

 अपनी चेतना को दुगुणों के चंगुल में फँसने न देने के लिए कृत संकल्प बनें । ऐसा धीर – वीर बनना चाहिए तो पाप में लिप्त नहीं हो पायेंगे । यहाँ पर एक रहस्य मय विषय खड़ा होता है । ज्ञान मार्गी से कर्मयोगी उपर है । ज्ञान के सारे विन्यास अपना खास मत निर्माण कर लेते है जिनकी एकता विखंडित होती है । कर्मयोगी एकता स्थापित कर जनकल्याण करते है । उनकी पहचान तात्कालिक होती है , हमारा विज्ञान , हमारी राजनीति हमारा धर्म , काल वाचक है , शास्वत नहीं । सृष्टि का अस्तित्त्व आंशिक है । कीर्ति अवश्य ही स्मृति में स्थान पायेगी । हमारी सभ्यता संस्कृति मान्यता का अपना युग धर्म है । हम जो समाज को नेतृत्व दिया है और भविष्य का जो लक्ष्य लेकर बढ़ रहे है उसकी सीमा किसो कल्प में विलीन होने वाली है , ऐसा सृष्टि का नियम है । रामचन्द्र जी को लंका जाना पड़ा सेना के साथ । उन्होंने सेतु निर्माण किया । आज वह भग्नावशेष है । युग धर्म का पालन नितानत आवश्यक है । हमारा अतीत , हमारी संस्कृति , हमारा इतिहास , हमारे प्राचीन घरोहर हमें मार्गदर्शन देते है । पूर्वजों की कीर्तियाँ आज भी हमें कुछ नहीं , बहुत कुछ दे रही हैं । हमारा धर्मग्रन्थ अनन्त ज्ञानोदधि का संग्रह है । सार है । ज्योतिपुंज है । हमे उर्जा प्रदान करते है । हम उनके मार्ग पर चलें , युगीन चिन्तन को दिशा द । उसी के लिए आग्रहशील बने । प्रेम पूर्ण परिवेश तैयार करें । इसके लिए तो हमे धैर्य का अवलम्वन करना ही पड़ेगा । जन्म के बाद जीवन के साथ जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती है । विन्ध और बाधाएँ भी आती है । उसके साथ धैर्य का सम्वल ही जीवन को सार्थकता दिला सकेगा । गोस्वामी जी ने राम चरित मानस की रचना के बाद विनयपत्रिका की रचना कर मानव जाति को बार – बार मार्ग दर्शन देकर सावधान करना अपना लक्ष्य समझा और तत्तत दृष्टिकोणों से जन – जन को अगाह किया । सांसारिक विवसता और मन की मूढता को सतत मार्गदर्शन चाहिए ही । सत्संगति और गुरु चरणों में प्रेम जीवन की महानतम निधि है ।

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