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आध्यात्म बोध-4

देह , आत्मा , बोध वृत्ति , ज्ञान और सर्वस्व अर्पण से ही ब्रह्म प्राप्ति

डा० जी० भक्त

भाव के साथ देह आत्मा और जीवन वृत्ति पर विचारों का उदय इस धरती पर जीव जीवन और जीविका के संबंध में सृष्टि के साथ ही सोच जारी है । ज्ञानात्मक हमारे चिन्तन के प्रधान विषय बनते हैं । देह संबंध से देह की उत्पत्ति तो हो गयी । जन्म हुआ । संसार में प्रवेश माता – पिता का प्यार , पालन पोषण और जगत के साथ जुड़ना , जीवन का हेतु बना । उस पर ही जीवन की नीव खड़ी हुयी । एक छोटा – सा परिवार बड़ा और विकसित समाज पाकर लुभया देखा सुना और मन में बिठाया , सोच में समाया , उसी में लिप्त रहा तब तक देह का विकास जरुरतों का बढ़ना दुनियाँ को जानना , उससे जुड़ना , अपनी आवश्यकताओं पर नजर दौड़ाना , विचारणा , कुछ कर पाने की चाह आदि के साथ हमारी बोध – वृत्ति ने सामाजिक जीवन की शुरुआत कर दी । यहाँ विषय उठा मन और बुद्धि की चयनात्मक वृत्ति में विवेक की , निर्णय शक्ति की । कुछ सम्पर्क से , कुछ अनुभव से कुछ पूछ – समझकर , पढ़ लिखकर , कुछ कर्म से जुड़कर जीवन तो शुरु हुआ किन्तु इस दुनियाँ की विशालता , विविधता एवं जटिलता में निर्णय की क्षमता को ज्ञान की नितान्तता सामने आयी किन्तु ज्ञान को प्राप्त करना और कर्म के साथ समायोजन बैठाकर जीवन को सरल , सुगम और उपयुक्त मार्ग दिशा देना ही जीवन की सफलता मानी गयी ।

एक प्राकृतिक जीवन जिसे सारे छोटे से बड़े जीव जीते पाये जाते हैं , दूसरा सामाजिक जीवन जिसे मानव जीता हैं उसमें ज्ञान चेतना की आवश्यकता अनुभव होती है । जीवन को पोषण , संरक्षण और संतुष्टि का भाव एक नयी दिशा की तलाश शुरु की देह को पोषण तो चाहिए । पोषण के लिए भोजन चाहिए , पानी और हवा शुद्ध वातावरण प्रकाश और आवास , फिर इंन्द्रियों को भी अपना भोग चाहिए ।

जीवन में विषय पर विषय खड़ा होता जा रहा हैं । इन्द्रियाँ दश हैं । पाँच ज्ञान इन्द्रिया , तो उतनी ही कर्म इन्द्रिया । जीवन में इन दशों इन्द्रियों को अपने – अपने कर्म में संलग्न रहना है तो उन्हें भी अपना भोग चाहिए मुँह , जीभ , आँख , नाक , कान , त्वचा , हाथ , पाँव वस्त और उपस्थ ! चेतना में स्वीकारात्मकता और नकारात्मकता के भाव होते हैं । हमारी पसन्द और नापसन्दगी का विषय भी थोड़ी समस्या लाकर रखती हैं । यहीं से सुखद और दुखद दो भाव हमारे मन में व्याप्त हैं । पंच भूतों से निर्मिति और त्रिगुणों से सजी सृष्टि में प्रत्येक के अपने भाव हैं । यही बोध वृत्ति भोग वृत्ति को प्रभावित कर जीवन को जटिल मार्ग और दिशा देकर सुख – दुख के विरोध विधान ज्ञान और कर्म दोनों पर भारी पड़ते हैं । इसी गुत्थी को सुलझाना और इससे परे आनन्द मय जीवन जीने का मार्ग निर्देशन देना आध्यात्म के क्रमिक सोपान प्रस्तुत कर पाते हैं ।

हमें बोध वृत्ति को ज्ञानात्मक मार्ग देना अनिवार्य चिन्तन हैं । प्रवृतियों का निरोध चारिए । यह सृष्टि अनंत भंडार हैं । ये भंडार माया के हैं । चेतना का रुझान और प्रवाह जब इन भंडारों की ओर होगा तो वही भव बाधा की संज्ञा बनेगी जिसका निदान उसके त्याग में निहित हैं । और हमें जानना इतना ही भर है कि सारे भंडार पंच भूतों से युक्त त्रिगुण के प्रपंच मय तमाशें हैं । इसे स्वीकार कर कदम इस दुनियाँ के काटें भरे मार्ग पर सावधानी से बढ़ायें । देह और प्राण की स्थिति ही जीवन है । जो देही है वह विकारी हैं ब्रह्म निगुर्ण रुप में आत्मा के रूप में हमारे अन्दर एक बल शक्ति रुपा अस्तित्त्व है । हम इस तथ्य की सत्यता समझके आत्म सात करें । हृदय में बिठायें । आत्मा और परमात्मा के इस अनित्य देह को नित्य आत्मा का अंश मानकर परमात्मा में लीन होना ही जीवन को आनन्द प्रदान करेगा । कबीर महोदय के विचारों में अपने प्रियतम से मिलन

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