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आत्म निर्भरता प्रश्न मात्र है या समाधान ?

 ( दैनिक जागरण , 21 फरवरी , मुख्य पृष्ट से संबंधित )

 सामाजिक धरातल पर आत्मनिर्भरता शब्द का महत्त्व तब से निचारणीय है जब मानव सभ्यता , सुसंस्कृति , एवं समृद्धि पाकर भी समाज को आर्थिक सामाजिक विषमता का शिकार होते देखता रहा ।
 विकसित और विकासशील देश का नामकरण तब सामने आया जब देश अपनी आवश्यकता सहित अपनी सुरक्षा व्यवस्था तक के लिए अपने आपको सक्षम ही नहीं सुदृढ़ बना पाया ।
 कोरोना द्वारा भारत पर जब संक्रमण का भार पड़ा तब हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने देश की स्वतंत्रता के साथ आत्मनिर्भरता को भी आवश्यक स्वीकार किया । कारण यह रहा कि भारतवासी अधिकतर अपनी आजीविका का ही प्रश्न लेकर विदेश पलायन करते आ रहे जिसका दुखद अनुभव उनके लौटने से भारत सरकार को हुआ । काश ! हमारा देश स्वावलम्बी हुआ होता । शायद महात्मा गाँधी जी ने जिस स्वावलम्बन , खादी , स्वदेशी आदि बुनियादी विषयों को अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई का प्रमुख मुद्दा बनाया था जिसके बदौलत उन्होंने अहिंसक लड़ाई लड़ी और अंग्रेजों को वैसे भगाया जैसे गरीब होमियोपैथी की मीठी गोलियों से गंभीर रोगों से आरोग्य लाभ पाता है । सस्ता , सुगम , निरापद और स्थायी आरोग्य ।
 आज तक अनुभव में ऐसा ही आया कि राजनीति पोषित राष्ट्र की सरकारें व्यावहारिक रुप से वैचारिक स्तर पर जनता के साथ समरस भाव स्थापित न कर पायी जो जनतांत्रिक सत्ता की कमजोरी साबित होती आ रही है । जनता की तो बात छोड़े सरकारें भी पूरी तरह इन कमियों को छिपा नहीं पाती ।
 अब आत्मनिर्भर शब्द को सुशासन या किसी नीति से जोड़ना कितना उचित या सार्थक माना जा सकता है , इस पर गहन विमर्श होना जरूरी होगा । इन दिनों जो यह ( सुशासन ) नूतन शब्द का प्रचलन शुरु हो रहा है उसकी पुष्टि तो कल्पनातीत है । जब स्वतंत्र भारत में छोटे – मोटे 12 आयोगों की सिफारिशें शिक्षा को गर्त में लाकर आज कदाचार के प्रतिफलन से राष्ट्रीय मर्यादा का शरण सामने किस तरह आया , जब शताब्दी पूरी होने जा रही है ।
 सुशासन सत्यतः मर्यादा पा ले तो राष्ट्र के लिए अवश्य ही सम्बल बनेगा , इसमें दो मत नहीं । पाठ्य पुस्तक में छपी कविता की पंक्ति :-

 ” सेवक हों जनता का शासक ,
मानव के हितकारी ।
डर भय धमकी शोषण बल से ,
बढ़े नहीं लाचारी ।। “

सम्प्रति ” सुशासन ” शब्द का अभिप्राय अभी कल्पित है । जिस दिन उपरोक्त भाव का प्रतिफलन प्रत्यक्ष लक्षित हो पायेगा , सम्भव है राष्ट्र की जनता आत्मनिर्भर जरुर हो पायेगी ।
 आत्मनिर्भरता एक जागरुक भावना है अवसर की तलाश से जुड़ी , जो विरोधाभासों के कुहरे से निकल कर उभर पाये । इसे किसी आयोग या नीति युक्त सलाह की अपेक्षा नहीं , स्वतंत्रता का उज्जवल प्रकाश चाहिए , यशा :-
 1. स्वरोजकार सृजन से उत्पन्न आय से कम के विधान पर विचार कर कदम उठायें । किसी संस्थान से जुड़ना कदापि स्वतंत्रता के भाव का पल्लवन विश्वास के धरातल को नहीं छू सकता ।
2. गारंटी की विश्वसनीयता समाचारों के आइने से जाना जा सकता है । लाभुक को हम कब और किन रूपों में आत्म निर्भर कह सकते हैं ?
3. हेल्पलाइन एवं शिकायत निराकरण की भूमिका को कोई इमानदार या नैतिक चरित्र वाला ही समझ सकता है ।
4. दिशा निर्देशों में अंकित नवाचार नही , नागरिक के हृदय में उपजा नवाचार हीं अबतक सराहनीय रहा , प्रशासकीय मानदंड कदापि आत्मनिर्भरता का सूचक नहीं । ऐसा होता तो देश में पूँजीवाद कभी भी नहीं उभर सकता ।
 आत्मनिर्भरता की सीमा से उपर उठकर जो जीना चाहते हैं वे ही इस शब्द के प्रति आज ज्यादा आतुर दिख रहे हैं । उन्हें शरण देने वाले ही उनपर अबतक भार बनते रहे हैं यह सोच पुरानी है , रुप भले ही नया दिखे ।
 भारतीय जनतंत्र की विफलताएँ ही नवाचार की जन्मदातृ सिद्ध हुयी । इस पर विचारा जाय कि प्रयोग में आर्थिक बर्वादी का लाभुक कौन , बर्वादी किसकी और देश अब तक की अवधि में कहाँ ?

 ( डा ० जी ० भक्त )

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