कोरोना समस्या
कोई पहेली नहीं , चुनौती बन गयी ।
डा ० जी ० भक्त
भारत को ही नहीं , पूरे विश्व को सोचना पड़ रहा है कि कोरोना एक स्थायी समस्या सी बनकर मानव के सामने एक चुनौती की तरह अपना रुप बिखरे रही है । स्वास्थ्य में बदलाव के जो लक्षण सामने आ रहे , वे चिकित्सा जगत के सामने ऐसा कुछ निर्धारित रुप लेकर खड़ी नही पाये जाते , बल्कि उसके प्रति रुप व्यक्तिगत स्वरुप उपस्थित करते है जिससे चिकित्सा का निर्धारित रेखा चित्र तैयार नही किया जा सकता , वरना एक पुराना रोग ( पेंडेमिक नही , क्रॉनिकडिजीज ) की श्रेणी में सोचा जा सकता है ।
स्पष्टतः यह कहा जा सकता है कि कोरोना का हर अगला फेज वैसे रुप बदल रहा , जैसे कोई भी रोग जब अधूरी चिकित्सा द्वारा आरोग्य मान लिया जाता है और तदुपरान्त जब उसकी पुनरावृत्ति देखी जाती है तो उसके लक्षण उस रोगी विशेष के प्राकृतिक लक्षण से संबंध रखते है । अथवा जिन दवाओं द्वारा उनका इलाज किया गया होता है , उसके लक्षण या दुष्प्रभाव ही देखे जाते हैं ।
चिकित्सा के क्षेत्र में जैसा आयुर्वेद अपना विचार या सिद्धान्त रखता है कि रोग के तीन कारण या रोग बीज पाये जाते है – कफ , पित्त एवं वात ( श्लेष्मा , ताप एवं वायु ) के विकृत होने से रोग की उत्पत्ति होती है । होमियोपैथी में भी सोरा , सिफलिस एवं साईकोसिस ( सूखी खाज खुजली , शारीरिक तन्तुओं का नाश तथा अंगों में नये कोश की वृद्धि ) जनित दोष का शरीर में व्याप्त पाया जाना ।
आज विश्व में एलोपैथी का साम्राज्य छाया हुआ है । इस पैथी में रोगोत्पत्ति का कोई खास ( एकरुप ) सिद्धान्त निर्धारित नहीं है । अगर चिकित्सा का मूल सिद्धान्त विषस्य विषम औषधम मान्य है । ( Like cures like – Hippocrat ) तो वह एलोपैथी कन्ट्रेरिया कन्ट्रैरिस जो गैलेन का दिया गया सिद्धान्त है उस पर आधारित है । इतना ही नहीं , यह कभी – कभी प्राकृत कारणों , जीवाणुओं , तन्तुगत विकारों , जैविक या रायायनिक पदार्थों की कमी या वृद्धि , विटामिन्स की कमी आदि को ही रोग का कारण माना जाता है । इन विविध मान्यताओं को सर्वमान्य कारण नहीं माना जा सकता । ये कारण नहीं फल ( Result ) हैं ।
शरीर में एक जीवनी शक्ति है जो जीवों में प्रमुख रुप से पायी जाती है । उसके कमजोर पड़ने पर ही शरीर में रोग अपना प्रभाव डालता है । अतः जीवनी शक्ति को जगाने की दवा को औषधि ( Medicine ) मानी जा सकती है । जीवनी शक्ति के सशक्त होते हुए रोग शक्ति का निष्प्रभावी पाया जाना ही मूल सिद्धान्त है । जो दवा शरीर में रोग को दवा देने ( Supprets करने ) का काम करेगी उससे कदापि रोग का निदान ( आरोग्य ) सम्भव नहीं । या तो रोग की पुनरावृत्ति हो , या रुपान्तरित होकर आये , अथवा शरीर में छिपे रोग विष से संयुक्त होकर असाध्य रोग या सर्जिकल रोग , या प्रयुक्त औषधि के दुष्प्रभाव युक्त गंभीर रेग का सृजन होगा । ऐसी ज्ञानियों की मान्यता है ।
उपरोक्त बातें सिद्ध है । सभी जानते हैं । तथापि एलोपैथिक चिकित्सा का बोलवाला है विश्व की सरकारें उसका सम्बल है , किन्तु सर्जरी को छोड़कर विचारा जाय तो आज धरती पर सिद्धान्त और व्यवहार में होमियोपैथी ही ऐसी चिकित्सा पद्धति है जो आरोग्यकारी और निरापद है । आयुर्वेद भी आरोग्य दिलाता है , लेकिन आज वह कमजोर पड़ चुका । अब हम विचारकर देखें कि कोरोना के रोगियों को क्वारेन्टाइन अवस्था में जो चिकित्सा की गयी , उसकी जब माकुल दवा थी ही नहीं , जो दवा प्रयोग में लायी गयी वह विवादों के घेरे में रही । अगर यह बात सच्ची थी , तो जो रोगी मृत्यु को प्राप्त हुए और जो आरोग्य होकर कोरोना निगेटिव घोषित कर डाले गये दोनों ही विचारणीय है । अगर उन्हें कुछ हो रहा है तो ये स्वतः अपने को कोरोना के योद्धा किस अर्थ में घोषित कर रहे है । इस बात पर जनता और चिकित्सा वैज्ञानिक सहित सरकार को ज्यादा सोचना अपेक्षित होगा ।
मैं मानता हूँ , ठीक है अबतक होमियोपैथ खुलकर सामने अपनी सक्रिय भूमिका नहीं निभाये । सरकारें उनपर जवाबदेही नही डाली । परन्तु मेरा विचार है कि सरकार जो वैक्सिन पर या अन्य शोध कार्यो पर जितना ध्यान दे रही है होमियोपैथी द्वारा भी पुनः प्रयोग कर कार्य शुरु किया जाय । होमियोपैथी ( आयुष ) मंत्रालय द्वारा HMAI तथा LHMI एवं CCRH द्वारा भी इस कार्य पर विमर्श चालू हो ताकि विश्व के समक्ष जो चुनौतियाँ आ रही है , उसमें उनके सिद्धान्त एवं चिकित्सा कार्य का लाभ जुड़कर एक कल्याणकारी मार्ग निरुपित करने का उससे उपयुक्त अवसर कब मिलेगा इसे मेरी नेक सलाह मानी जाय । विपत्ति में कनिष्ठा अँगुली का तिरस्कार ज्ञानीजन नही करते जबकि उन्हें संवैधानिक मान्यता मिल चूँकी है । इसे विश्व को विचारणा चाहिए ।