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प्रभाग-34 श्रीराम जी का अयोध्या लौटना और राज्याभिषेक, सप्तम सोपान उत्तर काण्ड, रामचरितमानस

श्री राम जी का अयोध्या लौटना और राज्याभिषेक
यह “राम चरित मानस राम कथा राम जन्म से लेकर लंका विजयोपरान्त राम राज्य तक सविशेष प्रस्तुत किया गया है वनवास प्रस्थान के बाद श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण और सीता जी का लौटकर 14 वर्षो की अवधि का प्रवास समाप्त हुआ अयोध्या की भूमि पर सपरिवार मिलन का चिर प्रतिक्षित अवसर सामने है। एक दिन मात्र शेष है। अवधवासी दुखी मन से राम के वियोग पर सर्वत्र नारी- पुरुष उनके दुर्बल शरीर पर विचार कर रहे हैं।

सगुन होहि सुन्दर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगमन जनाव जनु नगर रम्य चहु ओर।।

कौशल्यादि मातु सब मन अनंद अस होई।
आएउ प्रभु श्री अनुज रात कहन चहत सब कोई ।।

भरत नयन मुजदक्षिण फरकत बारहिवार।
जानि सगुन मन हरष अति लागेकरन विचार।।

रहेयु एक दिन अवधि अधारा समुझत मन दुख भयछ अपारा।।
कारण कवन नाथ नहीं आययु जानि कुटिल किमि मोहि विसराय।।

अहह धन्य लछिमन वह मागी। राम पदारविन्द अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चिन्हा।ताते नाथ संग नही लीन्हा।।

जी करनी समझी पभु मोरी। नही निस्तार कलप सत कोटि ।।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबन्धु अति मृदुल सुभाऊ ।।

मोरे जिये भरोस दृढ सोई। मिलिहहि राम सगुन शुभ होई।। बीते अवधि रहहि जो प्राणा।अधम कवन जग मोहि समाना।।

दा राम विरह सागर मह भरत मगन मन होत।
विप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जिमिपोत ।।

बैठे देखि कुशासन जटा मुकुट कूश गात।
राम नाम रघुपति जपत सवत नयन जलजात।।

देखत हनुमान अति हरषेत। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।
जन मह बहुत भाँति सुख भारी।बोले श्रवण सुधा सभवानी।।

जासु विरह सोच दिन राती। रहु निरंतर गुनगन पीती ।।
रघुकुल तिलक सजन सुखदात।आयउ कुशल देव मुनि त्राता ।।

रिपुरन जीति सुससुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
सुनत बदन विसरे सब दुखा।तृषावन्त जिमि पाई पियूषा ।।

को तूम्ह तात कहाँते आये। मोहि परम प्रिय वचन सुनाये।। मारुतसुत मै कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपा निधाना।।

जब भरत जी रामजी के सेवक हनुमान का परिचय पाये तो प्रेम स उन्हें हृदय लगाया और कहने लगे हेकपि । तुम्हारे दर्शन से सारा दख मिट गया आज मुझे प्यारे राम जी मिल गये वार वार कुशल पूछ कर भरत जी ने कहा- इस उपकार के बदले में तुम्हे क्या दूँ। इस संदेश के समान जगत म कुछ भी नहीं है। ऐसा मैंने विचार कर देख लिया है। मैं तुम से किसी प्रकार उत्रटागा नहीं हो सकता। अब तुम मुझे प्रभु का चरित्र सुनाओ जब हनुमान जी ने सारी गुनगाथा सुनायी तो फिर पूछा कि क्या रामचन्द्र जो मुझे अपने सेवकों की तरह मेरा नाम लिया करते थे। हे नाथ आपतो श्री राम जी के प्राणों से प्रिय है मेरा बचन सत्य है बार-बार भरत जी के गले मिलते हुए तुरत लौटकर राम जी से मिले और उनका कुशल सुनाए। खुश होकर भरत नन्दी ग्राम से आकर वशिष्ट मुनि से मिल राम जी के सकुशल आने की खबर सुनायी, फिर अपने घर में जाकर सवों का जानकारी दी माताएं दौड़ी हुयी अक्षत, चन्दन, फलफुल, तुलसीपय आदि मंगल की सामग्रियों से बाल सजाकर महिलाये गाती हुयी चल पड़ी। सबों में उत्सुकता जगी सभी एक दूसरे से पूछने लगे कि तुमने सच मुच राम जी को देखा है।

रामजी के आगमन की खबर से सारा वातावरण ही शोभायमान हो चला। उनके अगवानी करने गुरु वशिष्ट भरत शत्रुध ब्राहम मंडली आदि प्रेम मग्न होकर रामजी के सम्मुख चल। कुछ महिलाये महल की अटारी से झाककर विमान आने की आवाज सुन प्रसन्न हुयी। परिदृश्य ऐसा बन गया था कि कोशलपुरी समुद्र है। राम पूर्णिमा के चाँद है। उनके बीच नारिया को मंगल गान की छनिमानों सागर की तस हैं। उधर प्रभु बालि का अवाध्या नगर की सुन्दर छवो दिखला रहे है। कहते है- हे हनुमान अंगद और विभीषण, यह देश का सबसे पवित्र नगर है तथापि लोग स्वर्ग की शोभा को अधिक महत्त्व देते है। यह संसार जानता है। वेद पुराण भी ऐसा बतलाते है तथापि अयोध्या के समान वह सुन्दर नहीं है। इसका रहस्य बहुत कम ही लोग जानते है मेरी जन्म भूमि अयोध्या परम सुन्दर है जिसके उत्तर में सरयू नदी प्रवाहित है। उसमें स्नान मात्र से बिना प्रयास ही तेरे पास आने से सामीप्य मोक्ष पा लेते है। राम जी उस पुरी को धन्य बतलाते हुए तरह तरह से प्रदेशाकर रहे है। यह सुनकर हनुमान आदि उनके सखा मित्रों को अच्छा लगा। स्वजनों को अपने पास आते देख भगवान विमान को नहीं उतारकर रोक लिया। उरते ही पुष्पक विमान की प्रभुने कुबेर के पास भेज दिया। उन्हें राम जी से बिछुड़ते हुए दुख और हर्ष भी हुआ। सभी भरत जी के साथ साथ आये रामजी ने अपने धनुष वाण धरती पर रख डाले सबों को अपने वियोग में दुर्बल पायें। सर्व प्रथम रामजी ने गुरु वशिष्ट के चरण पकड़े मेंटते हो मुनि ने कुशल पुछीं प्रभु ने कहा मेरी कुशलता आपकी ही दया से है। छोटे भाइयों सहित लक्ष्मण जी ने भी दौड़कर गुरु जी को प्रणाम किये भरत जी ने राम जी के पैर छुए। जिनको मुनिगण देवता शंकर और ब्रह्माजी भी नमन करते है। भरत जी तो इतने प्रेम मग्न थे कि उठते नहीं, फिर रामजी ने उन्हें बल पूर्वक उठाकर हृदय से लगा चले। वह दृश्य बड़ा ही भावुक था। सब लोगो का अलग अलग मिलना प्रेम देख नगरवासी की खुशी का ठिकाना न रहा इसके साथ ही राम के वनवास से उपजी विपत्ति का नाश हो गया फिर रामजी ने कृपाकर अपनी माया से सवा से विविध रूपा ने भेंट की, जिसका रहस्य किसी ने नही जाना भगवान शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि क्षण भर में ही राम सबसे मिलकर आगे बढ़े। उनकी माताएँ भी तेजी से वैसे उनस के पास आयी जैसे गाये अपने बछड़े का दूध पिलाने के लिए बढ़ती है। सबों ने बारी-बारी से अपनी माताओं से मिलकर उनक कष्ट मिटाये और उनका आशीष ग्रहण किये।

फिर सीता जी सबों से मिली प्रेम और भावुकता में नेत्र सजल हो आयें किन्तु इस शुभ घड़ी में आँसू रोक कर सबों ने उनको एहबात की कामना की।
उनके बाद अपने सखा मित्रों को बुलाकर भगवान ने मुनिवर वशिष्ट जी का परिचय बताकर उन्हें चरण नवान को कहा और मुनि से उनके सहयोग और समलता का वर्णन किये।
खुशी में पुरा नगर सज गया सबों में उल्लास पाया गया।

कर ही आरती आरति हर के।रघुकुल कमल विपिन दिनकर के।।
पुर शोभा सम्पति कल्याण। निगम शेस शारदा बरवाना।।

ते यह चरित देखि ठगि रहह। कुमा तासु गुण नर किमि कहतो।।

भगवान श्री राम चान्द रूपी सूर्य के अयोध्या में उदय होने से सात वियोग रूपी आन्धकार मिट गया। राम जी यह समझ गये कि माता कैकेयी के मन में संकोच (लज्जा का भाव) है तो उनसे मिलकर बहुत प्रकार से समझय और उन्हें प्रसन्न किया तब वे अपने घर मे प्रवेश किये।
जब ऐसा दिखा कि सारा नगर प्रसन्न है तो वशिष्ट मुनि ने ब्राह्मणों को बुलाकर सुदिन निर्धारित कर राजतिलक देने का विचार मिला यह बात सबको सुन्दर लगी तुरंत राज्याभिषके की तैयारी होने लगी।

इधर राम, लक्ष्मण, सीता और राम सखा समेत स्नानादि से निवृत हो जटा आदि का निवारण कर वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर आये सीता बाँय भाग में लक्ष्मी रूम में सुशोभित हुयी। सिहासन पर विराजमान हुयी। वशिष्टजी ने सर्व प्रथम राम जी का तिलक किया। माताओं ने आरती उतारी विप्रों और याचकों को प्रभुत दान दिया गया जब सिंहासन पर तीनो लोकों के स्वामी आसीन हुए तो दवताओं ने दुदुभी बजाकर और पुष्प वृष्टि कर स्वागत किया।

यह शोभा समाज सुख कहत न बनाई खगेश।
वरनहि सारद सेवश्रुति सो रस जान महेश।।

भिन्ना भिन्न अस्तुति करि गये सुर निजनिज धाम ।
वनदी वेष वेद तब आये जा श्री राम ।।

प्रभु सर्वज्ञ कीन्ह अति आदर कृपा निधान ।
लखेउन का मरम कुछ लगे करन गुनगान।।
धन्द………………..(12 ग से)
सबके देखत वेदन्ह विनती कीन्ह उदार।
अन्तर्धान भये पुनि गये ब्रह्म आगार।।

वैनतेय सुम शम तब आये जह रघुवीर।
विनय करत गद गद गिरा पुरित पुलक सरीर।।
धन्द जय राम रमा रमन समभवत भयाकुल पाहिजन ।।
अवधेश सुरेश रमेश कियो। शरणागत मांगत पाहि प्रभो ।।
से क्रमश:……

बार-बार मागउ, हरपि देहु श्री रंग।
पद सरोज अन पायनी भाँति सदा सत संग ।।
वरनि उमापति राम गुण हरषि गये कैलाश।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सबविधि सुखप्रदवास।।

तब काम जी ने कहा हे गरुड़ जी यह कथा सबको पवित्र करने वाली है। दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के पापों को तथा जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाली है राम चन्द्र जी के राज तिलक की शुभ चर्चा सुनकर लोगों में वैराग्य की बुद्धि खुलती है जो सकाम भाव से उसका स्मरण और गायन करता है उसे विविध प्रकार से सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। फिर देवताओं के लिए जो सुखदायक होता है, अन्त समय में वह राम धाम को पहुँचता है। वहीं जाकर जो विरक्त भाव से विषयों से दूर होकर सुनता है वह उनकी भक्ति, गति और सम्पत्ति प्राप्त करता है है गरुड़ जी मैंने जो अपनी बुद्धि के अनुसार राम कथा कहीं वह मोह भय और दुखों को बहाने वाली है। नदी को पार करने के लिए नौका के समान हैं वह विरक्ति विवेक और भक्ति को दृढ़ता देती है। अवधपुरी में नित ही नवीन मजलकार्य चलत रहते है सारा समाज खुश रहता है। प्रतिदिन राम के पाव कमलों में नूतन प्रेम उपजता है, उस श्री रामचन्द्र जी को मुनिगन, शिव और ब्रह्मा नमन करते है। उन्होंने सबों को वस्त्र पहनाएँ ब्राह्मणों का दान दिये। सभी कपिगन ब्रहानन्द में लीन रहे प्रभु के पद कमलों में प्रीति बनी रही। दिन बीतते उन्हें कुछ भी ज्ञान न हुआ कि छः मास रहते हुए वित गये। घर की याद न रही जैसे सन्त को हद्धय से पर द्रोह मिट चुका हो।

रामचन्द्र जी ने उन मित्र वानर भालुओं को बुलाकर बड़े प्रेम से निकट बैठाकर भक्ता को सुख देने चाले सुन्दर बच्चन बोले- आपने हमारी बहुत सेवाए की मै मह पर क्या आपकी बढ़ाई करूँ। उसके कारण आप मुझे बड़े प्रिय लगे। मेरे कारण आपने अपने घर का सुख भुला दिया। छोटे भाई, राज्य, सम्पत्ति अपना घर, शरीर, कुटुम्ब, मित्र ये सभी मुझे प्रिय है। किन्तु आपके समान नहीं मैं झूठ नहीं कहता। यह मेरा स्वभाव है। सभी सेवक मुझे प्यारे लगते हैं। यह नीती भी है परन्तु मेरा तो दास पर स्वाभाविक ही विशेष प्रेम है।

हे सखा गण अब सभी अपने घर जाओ। वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहो। मुझे सदा सर्व व्यापक और सबका हित का भी जानकर अत्यधिक प्रेम करना । प्रभु की वाणी सुनकर सभी प्रसन्न हुए । हम कौन हैं कहाँ है। यह सब देह की सुध नहीं रही। प्रभु के सामने हाथ जोड़े एकटक देखते रहे। अतिशय प्रेम में कुछ कह नहीं पाये। भगवान में उनकों परम प्रेमी मानकर उनके लिए वस्त्र और आभूषण मंगाकर सबों को दिया। पहले भरत जीने सुग्रीव जी को पहनाए। अंगद तो बठ ही रह गये, वे अपनी जगह से हिले तक नहीं लक्ष्मण जी ने विभीषण जी को गहने और कपड़े पहनाए जामवन्त जी और नल, नाल जी को रामचन्द्र जी ने अपने हाथों पहनाया वे सभी राम जी को अपने हृदय में रख सप्रेम बन्दन कर चले ।

तब अंगद उटकर सजल नेत्रा सहित हाथ जाडकर विनती करने लगे। हे प्रभों, मरते समय मेरे पिता बालि ने मुझे आपही की गोद में डाला था। आप मुझे त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरू, माता, पिता सब कुछ आप ही है। आपके चरण कमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ। हे राजन आपही विचार कर कहिए कि आपको छोड़कर घर पर मेरा क्या काम है ? हे नाथ, आप इस ज्ञान, बद्धि और बलसे हीन बालक और दिन सेवक को शरण दिजिए मैं घर के सारे तुच्छ कर्मों को करूँगा और आपके ही चरण कमलों को देख-देखकर इस भव सागर से पार उतर जाऊगा। ऐसा कहकर वे श्री राम जी के चरणों में गिर पड़े और बोले- हे नाथ, मेरी रक्षा कीजिए। अब यह न कहिए कि तु घर जा । अंगद की नम्रता पूर्ण वाणी सुनकर भगवान के नेत्रों में आँसू भर आये। उन्होंने उठाकर हृदय से लगा लिया।

तब भगवान ने अपने हदय की माला, वस्त्र, मणि, रत्नों के आभूषण वालिपुत्र अंगद को पहनाकर फिर बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदायी की भक्ति के द्वारा किये गये कार्य को याद कर मरतनी, शत्रुधन जी और लक्ष्मण जी सहित उन्हें पहचाने गये। अंगद जी के हदय में प्रेम की कभी नहीं। वे फिर फिर कर श्री राम जी की ओर हो देखते है। वे वार-बार उन्हे दण्डवत प्रणाम करते। मन में ऐसा होता कि भगवान मुझे रहने के लिए कहते जसा वे देख चुके थे कि प्रभु के देखने की बोलने की, चलने तथा हँस-हँस कर बोलने की रीती कैसी ह, उसे याद कर सोचते है। दुखी भी होते हैं किन्तु प्रभु का रूप देखकर उनके चरण कमलों को हृदय में धारण कर चले अत्यन्त आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरत जी लौट आये।

इसके बाद हनुमान जी ने सुग्रीव के चरण पकड़ भाँति-भाँति से विनय किया कि कुछ दिन और रहकर प्रभु की सेवा करके फिर आपके चरणों में उपस्थित होऊँगा । सुग्रीव जी ने कहा- हे पवन कुमार आप पुण्य की राशि है। आपको तो भगवान ने सेवा के लिए रख ही लिया है। जाकर हृदय से सेवा करो। सभी वानर ऐसा कहकर चल पड़े। अंगद ने फिर कहा कि मै कर जोड़ कर कहता हूँ राम जी को मेरा प्रणाम कहना और बार-बार मेरी याद करते रहना। ऐसा कहकर अंगद चले गये। हनुमान लौट आये। आकर अंगद जी के प्रेम का वर्णन किया। इससे राम जी प्रसन्न हुए। इस विषय में काक मुशुण्डि जी कहते है, है गरुड़ जी, श्री राम जी का हृदय बज्र से भी कठोर और फूल सेमी कोमल है। तब कहिए कि वह किसकी समझ में आ सकता है।

फिर कृपालु रामचन्द्र जी निषाद राज को भी बुलाकर सब प्रकार के वस्त्राभूषण के साथ विया करते हुए मन, कर्म और वचन से धर्म का ध्यान रखते हुए अपने सम्बन्ध में स्मरण करते रहने को कहा। तुम तो मेरे मित्र ही नहीं, भरत की तरह भाई हो हमेशा यहाँ आते जाते रहना। ऐसा वचन सुनकर निषाद को बहुत खुशी हुयी। उसने चरण छूकर विदाली । घर जाकर श्री राम जी के स्वभाव से परिवार को परिचित कराया। सभी ने भगवान को धन्य-धन्य कहा।

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