एक संस्मरण जिसमें भारत अमेरिका को जोड़ पाया
यह बात 1973 की है । नये साल की 31 जनवरी थी । मैं गोरौल चौक स्थित अपनी क्लिनिक पर था दिन के 3 बजे थे । मैं घर लौटने ही वाला था कि सामने बगल की दुकान पर भीड़ देखी । रुक कर पास गया तो एक सामान्य वेश में विदेशी पर्यटक को कुछ खरीदते पाया । दर्शकों में कुतुहल था कि पर्यटक महोदय हिन्दी भाषा से परिचित न होने और स्थानीय दर्शकों में किसी को अंग्रेजी का ज्ञान न होने वार्ता का व्यापार संचार इशारों – इशारों में रोमांचक दिख रहा था ।
… लोग 10-20 की संख्या में बाल – युवा – वृद्ध एकत्र थे । मुझे देखकर लोगों ने यह जान कर मुझे बढ़ने की जगह दी कि मैं कुछ उन से वार्तालाप में जुड़कर उनका परिचय पाऊँ । वह कौन हैं ? कहाँ के है ? कहाँ से आ रहे हैं ? कहाँ जाना है । उनके भ्रमण का लक्ष्य क्या है…… इत्यादि ।
पता पाया कि वे अमेरिका के नागरिक हैं । काडमांडू से लौट रहे हैं । राजगृह जाना हैं । सामने एक टूरिष्ट गाड़ी , लक्जरी कोच लगी थी । मेरी चर्चा से लोगों में और उत्सुकता जगी , किन्तु वे रथारुढ़ होना चाहते थे , कि मैं बातें बढ़ाते हुए उन्हें चन्द मिन्टों के लिए ठहरने का निवेदन रखते हुए पूछा – राजगृह जाने से आपका क्या संबंध ?
………वस्तुतः राजगृह में दलाईलागा का उपदेश सभा चल रहा था । अन्य साथीगण उस कोच के वही जाने वाले थे । …… क्या आप वैशाली से अवगत है ? उनकी उत्सुकता का प्रमाण मुझे तब समझ में आया जब थोड़ा रुप कर उन्होंने वैशाली के संबंध में बोलना शुरु किया कि काठमांडू में सुना था । समयाभाव के कारण मैं अपनी संक्षेपन कला का लाभ लेते उन्हें यह कहकर लुभा पाया कि चाहें तो मैं इसी यात्राक्रम में आपको वैशाली के दर्शण करा कल शाम तक राजगृह पहुँचा दूंगा ।
वे रुक गये । अब मैं क्या करता एक विदेशी का स्वागत , जिसमें हमारी भारतीय संस्कृति को जानने समझने की ललक है उन्हें पर्यटन के फलक पर एक अध्याय जोड़ पाऊँ तो यह समय मेरी जीवन यात्रा में एक स्थान ले सकता है । पता नहीं , इतना मैं सोच भी न पाया था कि मुझे पूछना पड़ा कि आप साईकिल चढ़ना जानते हैं । यह कैसा स्वागत है । कितनी दीनता भरी वह घड़ी लोगों की नजर में जमी होगी , जब मैंने उन्हें साईकिल थमाते हुए मार्ग पर बढ़ चला । लोगों ने क्या समझा ? एक अद्भुत भाव छोड़ गया वह क्षण ।
एक पुरानी – सी दो चक्के की सवारी पर भारत और सदूर देश की अप्रतिम विभूति बढ़ते हुए उस ओर चले जा रहे हैं जहाँ प्राची पश्चिम में दिनकर की मन्द किरण ने जाड़े को कुछ वैसे अनुकूल बनाते उन्हें पूष की संध्या में 3 बजकर 30 मिनट की शीत से उबारने में मेरी मदद की । बेलसर हाट स्थित मेरी पहली क्लिनिक पर पुनः उनकी कान्ति और पहनावें की झलक ने हाट – बाट के चंचल चितवन नजरों में बिठाया तो प्रश्नों की झड़ी लगी इस घटना विशेष की अलौकितता पर । मैं उनके प्रश्नों को क्या कहकर सन्तुष्ट करता कि अतिथि देवता ने सामने एक चापाकल देखकर उस संध्या में स्नान करने की बात उठायी । मैं संध्या और जाड़े का संकेत दिया किन्तु वे तो शीत महादेश के रहे । उन्हें पाया कि स्नान कर एक पतली जालीनुमार अंगोछा पहन गीले वस्त्र से शाम की हल्की धूप में आनन्द लेते हुए कहा मुस्कुराहट के साथ- इट्स टू वार्म । नास्ता पानी के बाद हम दोनों घर की ओर टहल पड़े । उन्होंने प्राकृतिक दृश्य के प्रति अपना उद्गार व्यक्त किया “ सिन – सिनरी इज वेरी नाइस ” । रात्रि पटेढ़ा में बीता । मैने पूछा आपके यहाँ के गाँव और घर कैसे होते है ? उनका उत्तर मिला – जुला कुछ लगा । उनकी प्रयुक्त भाषा में लगता था कोई ग्रामीण शब्द का संयोजन था । सादगी वाला भोजन प्रकृति के अचल में स्थित घर के दरवाजे पर फल के वृक्षों और बागवानी के हरे – भरे दृश्यों के बीच चाँद की रौशनी में सयन । प्रसन्न थे । मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री आ चुके थे । वे वैशाली प्रखण्ड में ही उस समय कार्यरत थे । कल सुबह योजनोपरान्त उनके साथ ही वैशाली भ्रमण का कार्यक्रम बन गया । फिर हम सब अपने – अपने स्थान पर जा खा – पीकर कुछ योजनाएँ बना कर सो गये ।
निर्दिष्ट समय पर हम तीन वैशाली पहुंचे । वैशाली गढ़ का भग्नावशेष , खुदाई के स्थान , पुरा तात्त्वि स्थल , अभिषक पुष्करिणी , भ्युजियम , अशोक स्तम , गौतम बुद्ध का ठहराव स्थल , महावीर जैन का जन्म स्थल एवं जैन महाविद्यालय का निरीक्षण बड़ी उत्सुकता से किया गया । अतिथि महोदय उन स्थलों को देख प्रसन्नता भरे शब्दों मे सराहा ।
तब तक शाम के 02-03 बज गये थे । हम सभी प्रयर्टक सूचना केन्द्र पर पधारे अपना नामांकित किया । अतिथि महोदय ने अपनी एक बस्ट फोटोग्राफ दिये । अपने घर का पता भी । उन्होंने अपना नाम ” जोसेफ ड्यू – प्रेज ” बतलाया । पत्र लिखने का आग्रह किया अपने परिवार के संबंध जानकारी देते हुए बतलाया कि अनके माता पिता पेशा से कारपेन्टर रहे । एब बड़े भाई के संबंध में जानकारी दी कि वे चाईना में कोई काम करते है । स्वयं आर्मी में तीन वर्षों तक नौकरी कर मुक्त हुए और भारत दर्शण के लिए चल पड़े । उनकी शिक्षा दीक्षा नगण्य थी मुझे लगा कि भारतीय संस्कृति की आयावर प्रवृति के पोषक थे ।
वर्ष बीत गये । कभी – कभी यादें तो आती थी किन्तु परदेशी का प्रीत ……….. | कई प्रकार के भाव हिलौड़े लेते , लेकिन यादों की श्रृंखला अनंत होती है । उनमें प्राथमिकता किसे दी जाये ? एक दिन डाकिया एक पत्र लाकर दिया । उसके फलक पर अमेरिका लिखा था । ऐसे तो वहाँ से कई पत्राचार होते रहते थे । डा ० मेडाउस एण्ड कम्पनी एवं स्वाव से भी पत्राचार उन दिनों मेरा होता रहता था किन्तु उस पत्र का प्रभाव मेरे हृदय पर कुछ अलग था । पत्र खोला तो पता चला कि मेरे द्वारा भेजा गया पत्र उनके घर महीनों पूर्व पहुँचा था जिसे उनके पिताजी ने टेवुल पर ही रख छोड़ा था । कहीं की यात्रा से लौटने पर उन्हें पत्र मिला तो शीघ्र प्रत्राचार किया । उस पत्र से यह भाव निकला कि मेरे प्रति उनकी सम्वेदना पत्र प्राप्ति से और तीव्र एवं प्रगाढ़ता ले रखी थी । पत्र की भाषा बहुत कुछ कह रही थी । पत्र के अन्त का आभार सूचित करते हुए उनके हस्ताक्षर में ऐसा लिखा था – योगाभाकरा राहुल । मुझे पढ़कर कोई विस्मय नहीं बल्कि अंगों में रोमावलि खड़ी हो गयी । मैं निस्तब्ध रहा । साथ में एक तस्वीर थी । उन्होंने बताया कि उनका समय भारत में लम्बा बीता । अध्ययन और आध्यात्मक दर्शण के साथ संस्कृत पाली और व्याकरण के सथ बौध साहित्य ( ग्रंथ ) का अधिगमन किया था कैलिफोर्निया के लाओस ऐंजिल के विस्तृत घासों के मैदान में एकाकी योग मुद्रा में बैठे जो तश्वीर पत्र के साथ मिला था वह आज भी मेरे पास यथावत सुरक्षित है जिसे यादगार रुप गुगल्स के माध्यम से साझा कर रहा हूँ ।
Good