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होमियोपैथी की प्रासंगिकता

डा ० जी ०भक्त
 आज विश्व का सामाजिक परिवेश भले ही आर्थिक समृद्धि और वैज्ञानिक उपलब्धि पा ली है तथापि हम न दीनता को नकार सकते न रुग्ता को भुला सकते है । भौतिक और प्राकृतिक विपदाएँ और सामाजिक विश्रृंखलताएँ भी हमें प्रभावित करती है । जिनसे मानव ही नहीं , जैव और वनस्पति जगत पर भी संकट आ रहा है । प्रदूषण पर जो चिन्ता आसमान चढ़ रही , उससे ज्यादा मानवीय संसाधन पर रोगों और तनावों का जो प्रभाव बढ़ता जा रहा है उस दिशा में हमारी सोच को समाधान मिलना अब मुश्किल हो रहा है जबकि प्रयास में भी हम जुटे हुए है । संस्कृति में बदलाव , बढ़ती आबादी , भोगवादिता , दवाओं के दुष्प्रभाव , यथेष्ट और उपयुक्त निवारणात्मक सुविधाओं में कभी के अतिरिक्त मानवतावादी प्रचलनों की उपेक्षा एवं सेवा की जगह शोषण पर अधिक बल दिया जाना आदि अनेक अमानकीय एवं अवांछनीय व्यवहार देखे जा रहे है ।
 विश्व प्रसिद्ध आयुर्विज्ञान अपनी अस्तित्त्व कमजोर कर चुका जिसके पुनरुत्थान की प्रत्याशा भी कमजोर ही है । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति आर्थिक रुप से महंगी तो है ही , प्रशामक होने से आरोग्यकारी नहीं , नये रूपों में रोगों को विस्तार ही दे रही है । व्यवस्था में भी दोहन और शोषण है ।
 द्विविधा का वातावरण है । अन्य वैकल्पिक पद्धतियाँ सहयोगी है किन्तु अपेक्षित रुप से पोषक सावित नहीं हो रही । उनके विकास पर बल दिया जाता तो है किन्तु व्यवस्थागत दोषों के कारण परिणाम में सफल नहीं उत्तर पा रहे ।
 जहाँ तक आरोग्य का विषय उठता है वहाँ होमियोपैथी सकारात्मक उतर रही है । लोगों का रुझान भी इस दिशा में बढ़ रहा किन्तु मैं समझता हूँ कि उसके विकास पर जितनी बातें आज आगे बढ़कर आयी है उससे सतोषपूर्ण उपलब्धि नहीं देखी जा रही है । होमियोपैथी के श्रेय में जुड़े रोगी , चिकित्सक . दवा व्यवसायी , और चिकित्सा व्यवस्था सहित उसके शिक्षण को दृढता प्रदान की जाय तो यह अग्रणी रुप में खड़ी उतर सकती है आज यही प्रासंगिक है और समाज को इसकी सेवा लेकर अपनी स्वस्थता , आरोग्यता और गुणवता की दिशा में माननीय लक्ष्य को पूरा करने की पूरी सम्भावना रखती है ।
 अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भारत में होमियोपैथी का स्थान सराहनीय है । भारत सरकार को उपरोक्त चिन्तनों पर सकारात्मक कदम उठाकर मानवता की रक्षा सह उसके उत्कर्ष पर पहल करनी चाहिए ।

मानव जीवन से जुड़े क्षेत्र , जिन्हें होमियोपैथी का श्रेय प्राप्त है ।

 जैविक सृष्टि को जीवन ( आयु या जीवनावधि ) को एक सीमा प्राप्त है जिसे चरितार्थ करने हेतु उसे पोषण की आवश्यकता होती है । पोषण का माध्यम या साधन रुप भौतिक पदार्थ जिसे हम आहार या भोजन कहते है नितान्त आवश्यक है । उसकी पूर्ति खेती ( कृषि ) एवं पशुपालन से होती है । हम देख रहे है कि मानव को जब रोग प्रसित करता है तो उसे चिकित्सा की जरूरत पड़ती है वैसे ही हमारे पालतू पशुओं तथा कृषि युक्त वनस्पतियों को भी दवा की जरुरत चिकित्सा एवं उपचार भी नितान्त जरुरी है । यहाँ हम यह कहना चाहते है कि मानव की तरह पशुओं ( अन्य जीवों ) पालतू जीवों की चिकित्सा होमियोपथी द्वारा काफी सराहनीय है । यहाँ तक कि एलोपैथिक पशु चिकित्सक इन दिनो होमियोपैथी की मदद लेते और उसकी सराहना करते है । वनस्पति ( कृषि ) के क्षेत्र में भी प्रयोग किये जा रहे है उन पर शोध पत्र प्रस्तुत किये जाते हैं । यह चिकित्सा जीवनीय स्तर पर मनोवहिक समस्त पहलुओं पर प्रयोजनीय है । दूसरी और स्वस्थता , आरोग्यकारिता , विकास , उत्पादकता कुशलता एवं गुणवत्ता जैसे गुणत्मक पहलू भी होमियोपैथिक चिकित्सा की भूमिका में सकारात्मक श्रेय प्राप्त कर रहे हैं ।
 आवश्यकता है कि इस वैज्ञानिक उत्कर्ष के युग में हम आगे आयें . व्यापक क्षेत्र का विस्तार कर उससे लाभ पायें । यह विचारणीय है कि इस विकास के साथ मानव जीवन में जो चुनौतियाँ अपना पैर फैला रही है , उनके हितार्थ उनसे जुड़े क्षेत्रों को भी स्वस्थ बनाकर ही मानव और मानवता की रक्षा हो पायेगी ।

 मानव और मानवता की जड़ में आयुर्वेद और होमियोपैथी

 होमियोपैथी के अविष्कर्ता डा ० क्रिश्चियन फ्रेडरिक सम्यूएल हैनिमैन ने जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया , वह मूलतः वही था जिसे आयुर्वेद ने विषस्य विषमौषधम् कहा और एलोपैथी के जनक हिप्पोट ने भी वही कहा किन्तु गैलेन ने विपरीत पद्धति ” कन्ट्रेरिया कन्ट्रेरिस ‘ का सिद्धान्त दिया जो आज की एलोपैथी ( विषम चिकित्सा पद्धति ) है । होमियोपैथी सम लक्षण सम्पन्न चिकित्सा पद्धति पूर्णतः प्राकृतिक नियम का अनुशरण करती है तथा उसका मूल आधार यह स्थूल शरीर नही वरन सूक्ष्म जीवनी शक्ति है । उसका सूक्ष्माश या परावर्तित क्रिया ( सकेण्डरी एक्शन ) मारक न होकर जीवनीय होती है जिसे होमियोपैथी का कार्डिनल प्रिंसिपुल माना जाता है । जैसे न्यूटन ने कहा- प्रत्येक क्रिया के समान लेकिन विपरीत प्रतिकिया होती है । उसी हेतु औषधि पूर्व में टॉक्सिक किन्तु परावर्तित रुप में क्योरेटिव पायी जाती है । उस सूक्ष्म रहस्य को डा ० हनिमैन ने अपने आर्गेनन ऑफ मेडिसीन नामक पुस्तक में सूक्ष्म खुराक और सम लक्षण सम्पन्न दवा की हिमायत की , और उसके आरोग्यकारी प्रभाव को नेचर क्योर कहा ।
 यहाँ पर मानव ( फिजीकल वॉडी ) और जीवनी शक्ति ( लाइफ फोर्स या भाइटल फोस ) या इनर सेल्फ ( मानवता ) का सामन्जस्य लेकर जो दवा मनुष्य पर परीक्षित कर प्रयोग में लाई जाती है वह एलोपैथी की निम्न जन्तुओं पर परीक्षण कर निर्धारित दवा की मात्रा होमियोपैथी की सूक्ष्म मात्रा की तुलना में क्रूड ( स्थूल मात्रा ) होने से परवर्ती अवस्था मे रोग पुनः प्रकट होता है । आरोग्यकारी नहीं होता । रुपान्तरित होकर प्रस्तुत होता है । यह अकाट्य सत्य है और उसके दुष्परिणाम आज चिकित्सा जगत में चुनौती बनकर सामने खड़ी है । इस पर गौड़ करना है ।

होमियोपैथी को उत्कर्ष तक पहुँचाना समाज का धर्म

………… यहाँ पर थोड़ा आध्यात्मक परक चिन्तन आवश्यक लगता है । जीवनकाल के बस में है । हर युग अपने समय को ही प्रतिनिधित्व किया है । यश पाया है , अपयश भी यहाँ तक कि कष्ट भी झेला और आगे भी अपना कदम बढ़ाया जहाँ पर हम आज खड़े हैं । एक दिन दुनियाँ में भारत का आयुर्वेद ही एक सहारा था । मजबूत और समृद्ध संवल था कष्ट निवारण का विदेशी आक्रमणों की वेदी पर चढ़ी हमारी संस्कृति के सिर पर चढ़ी एलोपैथी कहना अनुचित तो नहीं समय सापेक्ष इसने हमारे देश की तरक्की दी । स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में । पूरे विश्व में फैला आज भी यह आकाश चूम रहा । किन्तु ………..उसे आज ठीक से देखना समझना और अपनाना समय के अनुरुप सोचते हुए बढ़ता उचित होगा ।
 तावत भयस्य भेतव्यं , यावद भयं अनागतं ।
आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रति कुयाधयोचितम् ।।
 जब तक भय दूर है तब तक उससे डरें किन्तु भय का प्रभाव नजर आये तो उसके प्रतिकार ( बचाव ) का यथाचित उपाय करना चाहिए । लम्बी अवधि से ( लगभग 1700 साल से ) मानव की सेवा में जुटी एलोपैथी के दूरस्थ परिणाम सामने आकर कई रूपों में मानव के साथ अप्रत्यक्ष परिणाम नये रुप में प्रकट हो रहे है । व्यवस्था को हमने समृद्धि ( सरकारी सबल और रोगियों के शोषण से ) दी है किन्तु न रोग घटे हैं न रोगी आरोग्य पाये हैं बल्कि वे दवा के गुलाम बनकर जी रहे है । समाज पर बोझ बनकर कष्ट काट रहे है । मर्ज बढ़ ही रहा है । कर्ज से लोग लदे जा रहे हैं ।
 एतदर्थ , समाज को सत्य को साथी बनाना पड़ेगा , भूल को समूल नष्ट करना होगा । उपयोगी को अपनाना होगा , जो निर्दोष है उसे विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । चिकित्सा किसी भी प्रकार से सेवा है उसे व्यवसाय नहीं बनाया जाय । इससे भी बढ़कर कष्टों से छुटकारा एवं सार्थक जीवन जीने का सहारा बनना मानवता की पहली पहल होनी चाहिए ।

 ! ” कामये दुःख तप्तानां प्राणिनामार्त नाशये “!

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