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इक्कीसवी सदी की सम्भावनाएँ…!

 डा ० जी ० भक्त 

( बीसवीं सदी के अवसान पर )-लिखित लेख

इक्कीसवी सदी की सम्भावनाएँ...! डा ० जी ० भक्त ( बीसवीं सदी के अवसान पर ) लिखित लेख Prospects of the twenty first century..! Dr. G. Bhakta (On the Expiration of the Twentieth Century) Written Articles
हर युग अपनी उपलब्धियों के साथ – साथ अपनी मान्यता एवं न्यूणाधिक अपकर्ष भी सृजन करता है । आदि काल से आ रही अटूट विकास की प्रक्रिया में उत्थान पतन की घनेरों घटनाएँ घटी । उनकी परम्मरा के विश्लेषण से उपलब्धियाँ भी हाथ लगी तो मार्गदर्शन बन पायी । उन्हीं के आलोक में युगान्तर में अनेक कल्पनाएँ , अनुमान एवं सम्भावनाएँ प्रकाशित हुयी , जिन पर प्रयोग चलते रहे । समभावनाओं और वैज्ञानिक खोज को दिशा मिली । विकास की भी पूर्व की दुनियाँ और आज की दुनियाँ में जो परिवर्तन हम देख या अनुमान कर रहे हैं उनमें सबसे जीवन्त हमारी प्रवृत्तियाँ हैं । वे प्रवृत्तियाँ ही युग को अपने अनुकूल और अनुरुप ढाँचे में ढाल रही हैं । हम उन प्रवृत्तियों के आधार पर ही परिस्थितियों की गति का आकलन कर भावी युग के बारे में अपने मन को गतिमान बनाते हैं और काल के अनुपात में सम्भावनाओं का अनुमान करते है । भविष्य की सम्भावनाएँ हमारे मानस की गत्यात्मकता में उपयुक्त परिवर्तन या नियंत्रण भी करती हैं जिनसे प्रतिकूल या हानिकर प्रवृतियों पर नियंत्रण किया जा सकता है ।
सम्भावनाओं का एहसास होना एक अनिवार्य पहलू भी है । मानव ने इस धरती पर सभ्यता , संस्कृति , समृद्धि , साधन आदि अर्जित की है । इन संसाधनों की रक्षा एवं उपयोगिता के प्रति सजगता अनिवार्य है । अतः सम्भावनाओं की आहट से अगाह होकर हम विश्व को सम्भावित क्षति से बचाने का प्रयत्न कर सकते है । युद्ध , भूचाल , अकाल , महामारी , अन्न संकट , आदि अनेक विश्व व्यापी समस्याओं के प्रति जागरुक रहना मानव जाति के हितैषियों के लिए अनिवार्य हैं । हम न वैज्ञानिक हैं , न ज्योतिष और न विश्लेषक हीं , हमारे पास विश्व की घटनाओं का क्रमिक अध्ययन भी नहीं है , किन्तु मानसिकता में कुछ ज्वलंत अनुमान सूझे हैं जिन्हें लोगों के बीच खोलकर वियारार्थ रख देना जरुरी समझ रहा हूँ ।
आज मानव जीवन विविध विषयों से जुड़ा हुआ है , विविध संगठन , प्रतिष्ठान , राज्य , देश या समुदाय का उद्देश्य मानवजीवन को सुख , शान्ति , समृद्धि एवं समरसता प्रदान करना है किन्तु यह भानवीय प्रवृत्तियों पर निर्भर है । प्रवृत्तियों में संतुलन यानी मन , कर्म और बचन की एकरुपता से ही समरसता आ सकती है जो प्रेम सद्भाव एवं सहयोग का वातावरण तैयार करता है । जहाँ प्रवृत्तियों में असंतुलन है वहाँ ये विचार और प्रयास खोखले है । विश्व में मानवीय संस्था , उनकी बढ़ती आवश्यकता , प्रतिद्वंदिता , लोलुपता एवं उनसे उत्पन्न परिस्थिति में बिगड़ती प्रवृत्तियों का शिकार बनते हुए मानव जाति के लिए कुछ विचारणीय स्थिति पैदा हो जाना नई बात नही है । हम और हमारा विश्व कुछ नहीं , मात्र प्रकृति के गुणों का विकास है । सारे विकास के पीछे नियम है जिन नियमों के अन्तर्गत ही कार्य होता है । नियम विरुद्ध क्रिया का परिणाम विपरीत होता है , प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है । प्रकृति असीम गति में क्रियाशील है परन्तु सन्तुलन में है । जहाँ उस गति में असंतुलन उत्पन्न होता है , दुर्घटनाएँ उत्पन्न हो जाया करती है ।
प्रकृति में उपादान कारण निहित होता है । हम अपनी खोज से प्राप्त जानकारी के अनुसार कार्य कर उपयोगिता सृजन करते एवं विकास करते हैं । परन्तु प्रकृति संतुलन में रहना चाहती है । उसके इस संतुलन में कोई व्यवधान नहीं हैं , इस पर विचार करना ज्यादा आवश्यक होता है । अतः भावी समभावनाओं पर दूर दृष्टि रखना एवं उसके प्रति सजगता भी युग का चिन्तन होना चाहिए ।
प्रकृति में पृथ्वी , ग्रह , नक्षत्र , वायु आदि पाते हैं । ये सभी स्वतंत्र एवं अपनी सत्ता में हैं । पृथ्वी पर हर पिंड , जीव , वनस्पति , नदी अपने आप में स्वतंत्र है स्वतंत्र न भी है । जैसे पृथ्वी में दैनिकगति है वार्षिक गति भी है इस पर मध्याकर्षण बल भी कार्य करता है । उसी प्रकार हमारा निजी जीवन एक प्रकार से स्वतंत्र है तथा दूसरी ओर वातावरणप से भी अटूट संबंध रखता है । एक संबंध प्रत्यक्ष तो दूसरा संबंध गौण भी हो सकता है । इस प्रकार समष्टिगत संबंध जो व्याप्त है वही विश्व को एक सूत्र में बाँध रखा है । यही प्रकृति की एक रुपता प्रदर्शित करता है । मानव को इस साश्वत नियम से हट कर कदापि नही चलना चाहिए क्योंकि इस विश्व में मानव सबसे बड़ा कर्ता है । उसके ही द्वारा प्रकृति की गत्यात्मकता में वृद्धि हो रहा है तथा सन्तुलन पैदा कर रहा है । प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अतः मानव कृत विषयों या उसके संबंधों पर नियंत्रणात्मक दृष्टिकोण भी उतना ही महत्त्व रखता है जितना उसका विकास क्योंकि प्रकृति में असन्तुलन मानव जाति के लिए अहितकार है ।
सम्भावनाओं के परिप्रेक्ष्य में हमें मानव जीवन से ही संबंधित विषयों को जोड़कर देखना है । जीवन यापन के साधनों उपादानों उनकी उपलब्धि एवं विकृति , परिणाम , विकल्प , व्यवस्था एवं चिंतन जैसे एक पहलू वैसे ही अन्य पहलू भी है । कला विज्ञान , तकनीक व्यवसाय , स्वास्थ्य , यातायात , शिक्षा , राजनीति आदि के क्षेत्रों में भी सम्भावनाओं पर चिंतन आवश्यक है । आज की दुनियाँ पहले से भिन्न है ऐसा लोग स्वीकार कर रहे है । दुनियाँ तो वही है सिर्फ लोग जन्म लेते , संख्या बढ़ाते जीते और मरते जा रहे हैं । सभयताएँ बदल रही है । मान्यताएँ बदल रही है । समाज में वैज्ञानिक उपलब्यिों और उनका प्रचलन बढ़ रहा है । लोग सुख अनुभव कर रहे हैं । साधन की प्रचुरता पहले से ज्यादा होने पर भी जनसंख्या की दृष्टि से कमी प्रतीत हो रही है । सच्चाई यह है कि मानव का कार्य क्षेत्र विस्तार कर रहा है । दुनियाँ तो यही है । यहीं रहेगी । हाँ गुणात्मक रुप में जो विश्व में उत्कर्ष – अपकर्ष दीख रहा है ऐसे इसका प्रभाव हर मानव पर पड़ रहा है , उसके कुछ विषम परिणाम भी पड़ने लगे है एवं यहाँ कुछ ऐसी सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है कि अगले दिनों उससे विश्व को अनेकानेक हानियाँ सहनी पड़ेगी । अपराध , अराजकता , राजैतिक अस्थिरता , शोषण , अत्याचार आदि तो अस्थायी परिस्थितियाँ हैं किन्तु इनके कारण भी विश्व की संरचना एवं स्वाभाविक कार्य कलाप पर असर पड़ कर मानव विकास के चरम उद्देश्य को पीछे छोड़ जाती है । दूसरी ओर रोग , प्रदूषण आदि से प्रकृति में ही विकार पैदा हो जाता है जो प्राकृतिक उपादानों को अनुपयोगी बनाकर विश्व को व्यापक क्षति का शिकार बनाता है ।
हम नागरिक जीवन पर ही ध्यान दें । नागरिक आवश्यकता , आपूर्ति , शिक्षा , रोजगार , व्यवसाय , रहन सहन एवं सामुदायिक जीवन पारिवारिक परिवेश में अपनी आर्थिक व्यवस्था से प्रभावित होता है । यह पूर्व के वनिश्त बहुत ही अच्छा है तथा भविष्य में भी इसे विकास ही करना चाहिए किन्तु लक्ष्य विहीन एवं अनुपयोगी शिक्षा , राजनैतिक उथल – पुथल तथा अस्थिर मानसिकता के कारण निचले स्तर के लोगो में तो अस्त – व्यस्त दशा रहेगी ही । इससे प्रभावित वातावरण में समाज का विखण्डन एवं तनाव संघर्ष बढ़ेगा । खासकर अधिक जन संख्या वाले देशों में यह समस्या गहरायेगी जबकि सरकारी व्यवस्था इसके सुधार के बहुतेरे प्रभावी कार्यक्रमों की घोषणा करेगी जबतक आर्थिक सन्तुलन का कोई ठोस एवं सफल कार्यक्रम न चालू होगा तब तक इसका अंदाज लगाना कठिन है फिर भी लगता है कि आगामी चालीस साल की अवधि में आर्थिक क्रान्ति होगी और एक नये समाज का ढांचा बनेगा जिसमें अन्त्योदेय जैसा कार्यक्रम का प्रयास होगा । सफलता भी विरल रुप में मिलेगी । पूर्ण सफलता की आशा इसलिए नही की जा सकती कि राजनैतिक व्यवस्था में विरोध का वातावरण बिल्कुल न हो ऐसा विश्वास नहीं होता । कार्य का सिद्धान्त से तालमेल होना आवश्यक होता है न ।
खाद्य आपूर्ति , जो सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है उसमें तरह – तरह की समस्याएँ उपस्थित होगी । यह समस्या बड़ी ही जटिल होगी तथा पूरे विश्व को प्रभावित करेगी । व्यक्ति से लेकर सरकार एवं वैज्ञानिक सभी परेशान होंगे और उसका क्रम हमेशा गंभीर परिणामों से जुड़ा पाया जायेगा । बीच – बीच में वैज्ञानिक खोज एवं शोघ से उत्पादन , गुणवत्ता , आपूर्ति में सुधार के न्यूणाधिक अवसर आयेंगे और विलुप्त भी होते जायेंगे क्योंकि उसका जनसंख्या से संबंध होगा । इसके कई कारण सामने है । भोज्य सामग्री का पुरातन तरीके से उपयोग , धरती की उर्वरता में कभी , पर्यावरण प्रदूषण , उनके पोषक तत्त्वों में क्रमशः आती विकृति एवं कभी , विषाक्तता का प्रवेश आदि बहुतेरे बिन्दु है जिन्हें लेकर हर आने वाले युग चिंतित एवं परेशान रहेगा । इस दिशा में साद्य समस्या पर वैज्ञानिक नवीनतम खोज करेंगे तथा वैकल्पिक भोजन पर विशिष्ट शोघ कार्य होगा । इक्कीसवी सदी के अन्त तक उपलब्धि भी होगी । ऐसी सम्भावना है कि मनुष्य उर्जा चालित रुप में देखा जाय । संकरण द्वारा भिन्न मानव प्रजाति के भी उत्पन्न हो जाने की सम्भावना है लेकिन कृषि एवं पशु पालन वैज्ञानिकों द्वारा विशिष्ट प्रकार के प्रजनन अभिचान्यिकी के उपयोग से नवीन प्रकार के अन्न , फल एवं सब्जियाँ जो पोषक तत्त्वों से गुणित अनुपात रखते हों , ऐसा भी उत्पन्न होने की सम्भावना है अन्य प्रकार के मादा जन्तुओं को प्रचूर एवं पोषक तत्वों से भरपूर दुग्ध उत्पादन की क्षमता पैदा कर उन्हें पालतू बनाने , पशु प्रजन्न विकास एवं नवीन पशु प्रजाति की उत्पन्न होने की सम्भावना आगामी सताब्दियों में हो सकती है ।
वैज्ञानिक क्षेत्र में तो हमेशा नवीन प्रयोग होता पाया जायेगा क्योंकि ज्ञान अनन्त है तथा अयतन जानकारियाँ ही सब कुछ या अंतिम नही , ज्ञान हमेशा नयापन कीओर प्रयत्नशीलता लाता है । इसका क्रमिक विकास तो होता ही रहेगा तथा उसका उन्मुखीकरण युगीन परिवेश में होगा । शैक्षिक कला एवं विज्ञान अपने विभिन्न प्रविभागों में जुड़ता – टूटता नजर आयेगा जिसमें अत्याधुनिक दिशाएँ अधिक ग्राहय समझी जायेंगी । नवीन तकनीक के प्रति रुझान होने का कारण भी नवीनता का प्रश्रय ही माना जायेगा । गृह कला , ललित कला , नैतिकता , आध्यात्म , न्यायनीति एवं सामाजिक व्यवस्था के विविध गति रोध वाले संगठनों के सामंजस्य पर निर्भर करेगा । साथ ही अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली होगी । ये प्रवृत्तियाँ पहले भी रही है आज भी क्रियाशील है । जहाँ तक न्यायनीति नैतिकता एवं आध्यात्म चिन्तन की बात है वह उन्हीं भावना एवं आदर्श चरित्र वालों में ही प्रतिफलित होती है । आगामी युग भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी होने के कारण इससे भिन्न दिशा का पृष्ठ पोषक होगा किन्तु कुछ देशों में जहाँ भौतिकता की चरम सीमा प्राप्त होकर मानव उक्ता – सा महसूस करेगा वह उसकी खोज में बढ़ेगा कुछ भौतिकवादी देश इसकी खोज में लग चुका है तथा वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा परा भौतिक घटनाओं का विश्लेषण कर रहा है । उम्मीद है कि आगामी सताब्दी में ही वह कुछ परिणाम प्राप्त कर ले । अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण तथा उसकी लोचकता निर्माण में आर्थिक नीतियाँ जो चल रही है उसे भिन्न दिशा में सोचा जाने लगेगा तथा विकसित एवं विकासशील देशों के बीच कभी संतुलन तो कभी दोलायमान स्थिति पैदा होती रहेगी । व्यवहारतया यह प्रक्रिया सबके हित के लिए लाभकर सिद्ध न हो पायेगा और एकबार आर्थिक क्रान्ति भी पनप सकेगी ।
औद्योगिक एवं पूँजीवादी छोटे देशों के लिए आर्थिक समीकरण का प्रयास कही – कही अधिक मान्य सिद्ध होगी तो भारत जैसे देशों में ऐसी प्रक्रिया अर्थहीन सिद्ध होगी । इन समस्त प्रक्रियाओं का चरण इक्कीसवी सदी के पूर्वाद्ध में ही प्रारंभ हो जा सकता है । राजनीतिज्ञों के बीच अपनी लोकप्रियता सिद्ध करने हेतु दूसरा कोई विकल्प नही होगा । सिर्फ अर्थशास्त्रियों में पूर्वोक्त नीतियों के निर्माण में सहयोग लेने के अतिरिक्त फिर जारनीति की नवीन धारा पनपेगी तथा सामाजिक पुनर्रचना का नया उद्याम ढूँढा जाने लगेगा तब तक नवीन कठिनाइयाँ खड़ी हो जायेगी वैज्ञानिकता की पराकाष्ठा से उत्पन्न पर्यावरण का असन्तुलन एवं जन जीवन पर उसका विध्वंशकारी प्रभाव का एक – एक विश्व के वैज्ञानिक उस कार्य में बुरी तरह फँस जायेंगे और 22 वीं सदी से हो या इसके पूर्व भी यत्र – तत्र इसका आभास मिलने लगेगा ।
पर्यावरण विज्ञान , स्वास्थ्य , कृषि , अंतरिक्ष तथा जैविक जगत के बीच का असन्तुलन एवं प्राकृतिक दुर्घटनाएँ आगेदिन की चिन्ताजनक समस्याएँ होंगी । शहरीकरण , इमारतों का बनना , भूमिजल निष्काशन और खनन से भू – स्खलन एवं भूकम्प की समस्या तेज होने की सम्भावना बनी रहेगी । मानव जीवन की बढ़ती हुयी समस्या के समाधानार्थ मानव अंतरिक्ष की ओर बढ़ेगा , जैसी शुरुआत हो चुकी है । आगे की सताब्दियों में जीवन मुक्त दुनियाँ का भी पता लग पायें । यह ग्रहान्तरीय या अन्तर्ग्रहीय अंतरिक्षयानों के विकास एवं उनके द्वारा सम्प्रेषण सुविधाओं की उपलब्धि से ही सम्भव है जिसके लिए हजारों सदियाँ कुर्बाण करनी होगी अगर कड़ियाँ जुड़ी रह पायी । ऐसा भी सम्भव है कि अंतरिक्ष विज्ञान के विकास एवं प्रतियोगिता के क्रम में ब्रह्माण्ड में विकृति या उससे संबंधित अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण संबंधित समझौते का प्रश्न भी पैदा हो जाय ।
यातायात के नवीनतम एवं तीव्रतम साधन जो अत्यधिक भार वहन एवं कम उर्जा पर ही क्रियाशील हो या अंतरिक्ष से प्राप्त उर्जा द्वारा संचालित या स्वसंचालित हो ऐसा अनुसंधान होगा । अंतरिक्ष की ओर बढ़ता मानव अपने जीवन का समस्याओं का सम्भव विकप्ल भी अंतरिक्ष में पता लगायेगा किन्तु जीवन धारा को प्रतिफलन किस वैज्ञानिक धरातल को ग्रहण करेगा यह अगले युग की उपलब्धियाँ पर ही अनुमान किया जा सकेगा । क्योंकि वहाँ की सम्भावनाएँ जैसी होगी , वैसा ही विधान बन पायेगा , फिर शोघ भी ।
विज्ञान की प्रगति मानव संख्या का बहिष्कार करने लगेगी । यांत्रिक दुनिया में जब सब कुछ यांत्रिक , यहाँ तक कि मानव स्वचालित एवं प्रशासन कार्य की यांत्रिक होने लगेगा तो अवश्य ही विश्व व्यापी जनसंख्या अधिनियम बनेगा जो पूर्णतः लैंगिक संबंधों में विकृति एवं मानसिक रुप से विकृत समाज का सृजन करेगा । सम्भव है ऐसा कुछ इक्कीसवी सदी में ही परिलक्षित होने लगे ।
समुद्र में आवास ढूढने का भी प्रस्ताव आने वाला है । वहाँ पर जीवन यापन की सुविधा एवं उद्योगादि से सम्भावना में कठिनाई न होगी । प्राकृतिक सम्पदाओं के समाप्त होने का संकट एवं उद्योग यातायात आदि के उत्पन्न प्रदूषण से वातावरण के स्वाभाविक कार्य कलाप के बदलने से प्राकृतिक संकट उत्पन्न होने की सम्भावना तो वैज्ञानिकों के
सामने पहले से आ चुके हैं । उनसे नये – नये कार्वनिक यौगिकों का निर्माण सम्भव है जो जहरीले प्रभाव वाले होंगे । उनसे अप्रत्याशित मृत्यु या महामारी अथवा जटिल रोग पैदा होने की सम्भावना होगी । सुन्दरता में वृद्धि होगी किन्तु फर्टिलिटी ( प्रजनन क्षमता ) घटेगी । मनुष्य की आयु क्रमश घटेगी । वनस्पति एवं जन्तुओं के जीवन पर भी उसका विनाशकारी प्रभाव पड़ने लगेगा जहरीले उत्पादों से एका – एक जीवन को क्षति होने लगेगी । चिकित्सा जगत के समक्ष चुनौतियाँ खड़ी होने लगेगी । नशीली एवं संज्ञादारक दवाओं के प्रयोग के दूरस्थ प्रभाव से मानव एवं एलोपैथिक दवाओं के प्रयोग से डेरी पशुओं के शरीर में जो फिजियोलॉजीकल चेन्ज आ रहा है उस पर नाना प्रकार के खोज होंगे । अगली सदी के उत्तराद्ध में विश्व के सामने ऐसा प्रस्ताव आयेगा कि निकोटिन के प्रयोग ही नही , उत्पादन पर पूर्ण निरोधक कानून बने । होमियोपैथी एवं आयुर्वेद के विकास पर जोड़ दिया जायेगा । आयुर्वेद विकास भी करेगा तो वह अपने मार्ग से दूर हट कर ही , परमाणु – युग में आयुर्वेद तो नही किन्तु होमियोपैथी का अस्तित्त्व निखरेगा ।
 एलेक्ट्रोनिक उर्जा के प्रक्षेण निक्षेप एवं उपग्रह की कार्य प्रणाली से प्रसारित उर्जा के दूरस्थ प्रभाव द्वारा फर्टिलिटी पर प्रभाव पड़ेगा । मनुष्याकृति एवं गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ेगा जिससे विकृत सन्तान उत्पन्न होंगे । परमाणुबमोके विस्फोट से युद्ध की विभीषिका का परिमाण भी वैसा ही होगा । कृषि व भोज्य पदार्थ या संश्लिष्ट भोजन तथा भोजन संरक्षक सामग्रियाँ द्वारा शरीर की ग्रंथियाँ प्रभावित होकर हामेंन्स में परिवर्तन लायेगा जो मानवाकृति एवं गुणवत्ता को भी बुरी तरह प्रभावित करेगा । ऐसा होना प्रारंभ भी हो गया है तथा भविष्य में भी तेजी से बढ़ने वाला है । फर्टिलिटी पर भी कानून बनाने की जरुरत पड़ सकती है वह निषेधात्मक , निर्णयात्मक या वैकल्पिक भी हो सकता है ऐसी घटनाओं का इलाज होमियोपैथै द्वारा सम्भव होगा ।
काम , रोजगार , सामाजिक प्रचलन , रीति – रिवाज , कार्य के तरीके तो स्वाभाविक गति से हमेशा आवश्यकतानुसार बदलने वाले है ही । अंधविश्वास और कुप्रचलन घटने की बात चलेगी किन्तु बहुतेरी बेबुनियादी एवं दुव्यसन युक्त परिपार्टी जुड़ती जायेगी और उससे सामूहिक तनाव का वातावरण बढ़ेगा । वर्ग , रंग , जाति , सम्प्रदाय , धर्म , आस्था , स्वार्थ साधन प्रवृत्यात्मक होने के कारण समूल नही मिटेगा । कदाचित वह कभी जोड़ पकड़ता या बदलते रुप में उपस्थित होता नजर आयेगा । ऐसा सम्भव है कि सम्पूर्ण क्रान्ति की बात चले , परन्तु यह बिल्कुल विफल रहेगा । ऐसा तभी सफल होगा जब राजनीति के उच्च शिखर से ही विधि व्यवस्था द्वारा काल वद्ध खोजना बना कर कठोर कानून में बाँधकर ही आर्थिक एकरुपता का गति दी जाय । किन्तु विश्व स्तर पर एक मानसिकता व्यावहारिक सत्य लगता या सैद्धान्तिक । इतना जरुर है कि इस दिशा में क्रांति की सम्भावना सतत ही बनी रहेगी । चिन्तन के बाद भी मानव के दिमाग में अत्याधुनिक उपलब्धियों की प्राप्ति के प्रति स्पर्ष तो अवश्य ही प्रगतिशील विचारधारा को आलोड़ित किया करेगी फिर कैसे सम्भव हो कि अगला दिन संतोष और शान्ति का होगा ।
अपराध और दुर्घटनाएँ कारण बहुल है । अतः इसके लिए न सामाजिक कार्यक्रम , न उपदेश , न नागरिक सुरक्षा न शिक्षा और न न्याय नीति कुछ भी न सुधार पायेंगे । जब तक कि मानव नैतिक न हो । नैतिक जीवन की सम्भावना एवं कल्पना वैज्ञानिक युग में एवं राजनैतिक युग में निरर्थक है । सरकारी संघ या नागरिक सुरक्षा संगठन तथा विधि व्यवस्था एवं न्यायिक संस्थाएँ भी एक प्रयास मात्र है , सब कुछ नही । फिर सबसे बड़ा दोष ऊपर से राजनैतिक दवाव है जो उस युग के लिए ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगा जिसमें हर नागरिक में राजनैतिक चेतना भर जायेगी और यह सम्भव है कि अन्य नैतिक गुण थोड़ा बहुत आये न आये , राजनीति की ओर तो बढ़ने का कदम प्रारंभ है और यह पराकाष्ठा पर जायेगा लेकिन सत्य है कि उपलब्धि इच्दा के अनुरुप न होगी बल्कि राजनैतिक अपराध में बहुलता आयेगी । अपराध अनुसंधान में व्यक्ति के स्थान पर कम्प्युटर का प्रयोग भी भविष्य में किया जायेगा ।
आगामी युग की सर्व सुलभ एवं सरल उपलब्धि तो दूर संचार व्यवस्था की संप्रेषण विधि होगी । इसके समान्तर ही आध्यत्मिकों के द्वारा टेलिपैथी का भी विकास इक्कीसवी एवं बाईसवीं सदी के अन्तर्गत होगा । इसी बीच जीवन मृत्यु का रहस्योद्घाटन होगा । यह बाल विश्वास के एवं योग्य नही है कि जन्म , मृत्यु के सही पर भाषा घटना का विश्लेषण हो पायेगा । अबतक भी परिभाषा न की जा सकी है किन्तु इस दिशा में कार्य अवश्य आगे बढ़ेगा आत्मा का दर्शन , मरणोत्तर आत्मा की यह अवस्था जिसे सूक्ष्म शरीर के कलापों , स्वप्न एवं अति चेतन साइकोसोमेटिक एक्टीविटी जैसे अभिशाप वरदान आदि के रहस्य पर प्रयोग एवं सफलता के विपुल प्रमाण भी प्रस्तुत किये जायेंगे . तथापि इसमें सब्जेक्टिव आइडिया होगा और वैज्ञानिक रुप से सर्वमान्य सिद्ध नही होगा उसके अंधविश्वास कहलाने की किंचित गुंजाइस रह ही जायेगी । हाँ , इसके द्वारा पूजा पाठ , दान , श्राद्धामि की सार्थकता सिद्ध नही होगी । भक्ति भजन तो सतोगुणी धारा मे लिपट समूल न मिटेगी । धर्म के प्रति आस्था किसी न किसी रूप में खास लोगों के बीच रहेगी ।
जीवन की स्वाभाविक कलाओं में हँसना , बोलना , भाषाई अतिव्यक्ति में अन्तर होने की संभावना है । अत्याधुनिक एवं युगीन रचनाएँ पारंपरिक साहित्य को समाप्त भी कर सकती है । बाल जीवन में असामान्य घटनाएँ भी घटित होगी जैसे कम्प्युटर मानव , औडोविजुअल मानव भी सम्भव है । पारिवारिक परिवेश में घरेलू कार्यों का महत्त्व घटकर वह स्थान टेक्नोलॉजी ले लेगा तथा रसोई घर कार्यशाला होगा । पारिवारिक संबंधों को रहस्यमय करार दिया दिया जायेगा तथा कृत्रिम संबंधो पर मानव जीवन की दुनिया खड़ी होगी जो कभी समरस न होकर यांत्रिक जीवन – सा लगेगा उसे पारंपरिक परिवारों के महत्त्वपूर्ण गुणों का लोप होगा । किसी – किसी राष्ट्र की नीतियों और आदर्शो को आघात भी पहुँचेगा ।
इस प्रकार इक्कीसवी सदी एवं उसके आगे की अवधि के मनुष्य को नवीन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा ।
डा ० जी ० भक्त
निदेशक हो ० चि ० शोघ एवं कल्याण
संस्थान बेलसर हाट ( वैशाली )

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