प्रभाग-26 पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड रामचरितमानस
चलेउ नाई सिरु पैठेउ बागा । फल खायसि तरु तौरे लागा ।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाई पुकारे ।।
सीता जी की आज्ञा पाकर राम भक्त हनुमान जी भगवान राम जी का नाम स्मरण कर वाटिका में पहुँच फल खाने लगे । कुछ फल खाते थे । कुछ पेड़ों को तोड़कर फेंकते थे । बागीचा की रखवाली करने वाले राक्षस थे , उनमें से कुछ तो मार डाले गये , कुछ अधमरे राक्षसों ने भागकर दूर से पुकारा :-
नाथ एक आया कपि भारी । तेहि अशोक वाटिका उजारी ।।
खायसि फल अरु विटप उपार । रक्षक मर्दि , मर्दि महि डारे ।।
सुनि रावन पठ भट – नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ।।
आबत देखि विटप गहि तर्जा । तिनहि निपाति महाधनि गर्जा ।।
दो ० कछु मारेसि कछु मर्देसि , कछ मिलयसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाई पुकारेउ प्रभु मरकट बल भूरि ।।
सुनि सुत वध लंकेश रिसाना । पठयसि मेधनाद बलवाना ।।
मारेसि जनि सुत वाधेसु ताही । देखिय कपिहि कहाँ वरिआही ।।
चला इन्द्रजित अतलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ।।
कपि देखा दारुण भट आवा । कट कटाई गजा अरु धावा ।।
अति विशाल तरु एक उपारा । विरथ कीन्ह लंकेश कुमारा ।।
रहे महा भट ताके संगा । गही गही मर्दइ निज अंगा ।।
तिनहि निपाति ताहि सन व्राजा । मिरे जुगल मानहु गज राजा ।।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ।।
उठि बहोरि कीन्हसि बहुमाया । जीति न जाई प्रभंजन माया ।।
दो ० ब्रह्म अस्त्र तेहि साधा , कपि मन कीन्ह विचार ।
जौ न ब्रह्म सर मानिउ महिमा मिटई अपार ।।
ब्रह्म वान कपि बहुतेहि मारा । परतिहुवार कटकू सुधारा ।।
तेहि देखा कपि मुरछित भयउ । नाग पास बॉधि , लै गयउ ।।
जासु नाम जप सुनहु भवानी । भव बन्धन काटहि नर ज्ञानी ।।
तासु दूत कपि बघ तरु आना । प्रभु कारज लगि कपिहि बधाना ।।
क्रपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कैतुक लागि सभाँ सब आए ।।
दशमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाई कछु अति प्रभुताई ।।
कर जोर सुर दिसिप विनीता । भृकुटि विलोकत सकल सभीता ।।
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिनि अहिगनमहु गरुर असंका ।।
कपिहि विलोकि दशानन विहँसा कहि दुर्वाद ।
सुत बध सुरति कीन्ह पनि उपजा हृदय विषाद ।।
रावण ने हनुमान से राज सभा में पूछा – अरे वानर तुम कौन हो ? किसके बल से तूने वन को उजाड़ कर नष्ट कर डाला ? क्या तुमने कभी मेरा नाम और बल अपने कानों से नही सुना ? अरे सठ , मैं तुझे अत्यंत निशंक देख रहा हूँ । तूने किस अपराध के लिए राक्षसों को मारा ? अरे मूर्ख , तुम्हें अपने प्राणों का भय नही हैं ?
हनुमान जी ने कहा- हे रावण , सुन , जिसका बल पाकर माया सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना करती है । जिसके बल से हे दशशीष , ब्रह्मा , विष्णु और महेश क्रमशः जगत का सृजन पालन , और संहार करते हैं , जिनके बल से हजारों मुख वाले शेष नाग पर्वतों और बनो सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने सिर पर धारण कर रखें हैं । जो देवताओं की रक्षा करने नाना प्रकार का देह धारण कर तुम्हारे जैसे मूरों को शिक्षा देने वाले है , जिन्होंने शिवजी क कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसके साथ ही राजाओं के समूह के गर्व को चूड़ कर डाला । जिन्होंने खर और दूषण , त्रिशिरा और बालि को मार डाला जो सबके सब बड़े बलवान थे । जिनका लेश मात्र बल पाकर तूने समस्त सचराचर जग को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को चुपके से चुरा लाया मैं उन्ही का दूत हूँ ।
मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता सहस्त्र बाहू राजा से तुम्हारी लड़ाई हुयी थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था । हनुमान जी के इन वचनों को सुनकर हँसी में टाल दिया ।
खायउ फल अति लागी भूखा । कपि स्वभाव तै तोरेउ रुखा ।।
हे रावण , देह तो सबको परम प्रिय है । तुम्हारे दुष्ट राक्षस जब मुझे मारने लगे तब :-
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधे तनय तम्हारे ।।
मोहे न कछु बाँध कई लाजा । कीन्ह चहहु निज प्रभुकर काजा ।।
विनति करउँ जोरि कर रावण । सुनहु मानतजि मोर सिखावन ।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि विचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भयहारी ।।
जाके डर अति काल डराई । जो सुर असुर चराचर खाई ।।
तासो वयरु कबहुँ नहीं कीजै । मोरे कहे जानकी दीजै ।।
दो ० प्रणतपाल रघुनायक , करुणा सिन्धु खरारि ।।
गये सरन प्रभु राखि हे तब अपराध विसारि ।।
राम चरण पंकज उर धरहू । लंका अचल राज तुम्ह करहूँ ।।
ऋषि पुलस्त जसु विमल भयंका । तेहि शशि महु जनि होहु कलंका ।।
राम नाम बिनु गिरा न शोहा । देखु विचारि त्यागु मद माहा ।।
वसन हीन नही सोह सुरारि । सब भूषन भूषित वर नारी ।।
राम विमुख सम्पति प्रभुताई । जाइ रही पायी बिनु पाई ।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाही । वरषि गये पुनि तबहि सुखाही ।।
सुनु दशकंठ कहउँ पनरोपो । विमुख राम त्राता नही कोपी ।।
शंकर सहस विष्णु अज तोही । लागु न राखि एक कर द्रोही ।।
दो ० मोहमूल बहु सूलप्रद त्यागहु तन अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपासिन्धु भगवान ।।
जदपि कही कपि अति हित वानी । भगति विवेक विरति नय सानो ।।
बोला विहॅसि महा अभिमानी । मिल हमहि कपि गुखड़ ज्ञानी ।।
मृत्यु निकट आयी खलतोही । लागसि अधिक सिखावन मोही ।।
अलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रकट मै जाना ।।
सुनि कपि वचन बहुत खिसियाना । वेगिन हरहु मूढ कर प्राणा ।।
सुना निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित विभीषनु आए ।।
नाई सीस करि विनय बहूता । नीति विरोधन मारिय दूता ।।
सुनत विहॅसि बोला दशकंधर । अंग भंगकरि पठइअ बंदर ।।
दो ० कपि के ममता पूंछ पर सबहि कहउँ समुझाई ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाई ।।
पूछहीन वानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लई आइहिं ।।
जिन्हकै कीन्हसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं जिन्ह के प्रभुताई ।।
वचन सुनत कपि मन मुसकाना । भई साथ शारद मै जाना ।।
जातुधान सुन रावन वचना । लागे रचै मूढ सोइरचना ।।
रहा न नगर बसन धृत तेला । वादी पूँछ कीन्हें कपि खेला ।।
कौतुक कहें आये पुरवासी । मारहि चरन करहि बहु हाँसी ।।
बाजहि ढोल देहि सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ।।
पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघु रुप तुरन्ता ।।
निवुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारी । भयी सभीत निशाचर नारी ।।
दो ० हरि प्ररित तेहि अवसर चल मरुत उनचास ।।
अट्टहास करि गर्जा कपि वढि लाग आकाश ।।
हनुमान जी की देह तो विशाल है , लेकिन है बड़ी हल्की । वे कूद – कूद कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं । पूरा नगर जल रहा है । लोग बेहाल हैं आग की लपटें झपट रही है । चारों ओर हाय – हाय की पुकार सुनाई पड़ रही है । इससे हमें कौन बचा सकेगा । हम कहे थे कि यह बन्दर नहीं कोई देवता है । सन्त की अवज्ञा करने का ही यह परिणाम है जो सारा नगर अनाथ जैसा पड़ा हुआ है । एक ही पल मे सारा नगर जल गया सिर्फ विभीषण को छोड़कर ।
जिन भगवान ने अग्नि पैदा की , उन्ही के दूत होने से हनुमान का शरीर अग्नि से प्रभावित नहीं हुआ । उलट – पुलटकर लंका में चारों ओर आग लगा दी । फिर जाकर समुद्र में कूदकर अपनी पूँछ बुझाई और शरीर को आराम दिया । इस लंका दहन के बाद वे सीता माता के आगे खड़ा होकर हाथ जोड़कर रामचन्द्र जी की पहचान के लिए कोई वस्तु मांगी । तब सीता जी ने अपनी चूड़ामणि उतार कर दी । प्रभु के लिए प्रमाण सौंप कर अपने कष्ट के निवारण के लिए कहने का निवेदन की । उन्होंने यह भी याद कराने की बात कहीं कि इन्द्र पुत्र जयन्त को वाण से जिस प्रकार प्रताड़ित किया था , उस वाण के प्रताप को समझाइएगा । अगर वे एक महीने में मुझे नहीं मिल तो जीवित नहीं पायेंगे । हे कपि , तुम ही बताओ कि मैं कैसे प्राण को बचाये रखू । हे तात ! तुम भी तो अब जाना ही चाहते हो । तुम्हें देखकर हृदय शीतल हुआ था । अब फिर वही दिन और वैसी ही रात कटेगी । फिर हनुमान जी ने बहुत समझाकर धीरज बँधाया और चरणों में सिर नवाकर रामचन्द्र जी के पास प्रस्थान किये । चलते समय इतनी जोर से गर्जे । समुद्र लांघकर पार हुए और अपनी किलकिली आवाज सुनायी । हनुमान जी को पाकर कपिगन में जान आयी । उनका मुख प्रसन्न था । शरीर में तेज चमक रहा था । क्योंकि वे श्रीरामचन्द्र जी के कार्य में सफल हुए थे । सभी वानर साथ लगे । रास्ते में सभी उनसे लंका की बातें पूछते थे । हनुमान जी बतलाते रामचन्द्र जी के पास चले जा रहे थे । मधुवन में पहुँच कर अंगद के कहने पर सबों ने फल खायें । जब रक्षकों ने मना किया तो हनुमान जी ने इस प्रकार मुष्टिका प्रहार किया कि सभी भाग पराये । सभी वानरगण के सथ युवराज अंगद से जा मिले । हनुमान जी की सफलता का लाभ पाकर रामचन्द्र जी के पास पहुँच विनम्र प्रणाम किए । जामवन्त रामजी के द्वारा कुशल पूछने पर बोले- हे रघुनाथ जी ! आप जिस पर दया करते है , उसका सदा ही कुशल रहता है । देवता , मानव और मुनिगण उन पर प्रसन्न रहते हैं ।
सोई विजई विनई गुणसागर । तासु जुजसु व्रयलोक उजागर ।।
प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू । जनम हमार सुफल भा आजू ।।
नाथ पवन सुत कीन्ह जो करनी । सहसहु मुख न जाई सो वरनो ।।
पवन तनय के चरित सुहाए । जामवन्त रघुपति ही सुनाए ।।
सुनते ही रामचन्द्र जी ने हनुमान को सप्रेम गले से लगाये । हे तात ! कहो किस तरह जानकी वहाँ अपने प्राण की रक्षा करती हैं ?
दो ० नाम पाहरु दिवस निसि , ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्राण केहि वाट ।।
चलत मोहि चूडामणि दीन्ही , रघुपति हृदय लाई सो लिन्ही ।।
नाथ यगल लोचन भरि वारि । वचन कहे कछु जनक कुमारी ।।
हे कृपा निधान ! सीता जी ने तो यही कहा कि तुम छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु के चरण पकड़ कर कहना कि हे दीनबन्धु ! शरणागत वत्सल , मैं तो मन , कर्म और वचन से आपकी चरणानुगामिनी रही हूँ फिर हे स्वामी , आपने मुझे किस अपराध से आजतक भूले रहे ?
आपने कहा , मुझमें तो एक ही अवगुण लगता है कि उनसे दूर रहते मेरे प्राण नहीं निकल पाये । वह तो आँखों का अपराध है जो प्राण को निकलने में बाधा डालती है । विरह तो स्वयं अग्नि के समान है और शरीर सूख कर कपास बन चुका है किन्तु जो आँख से आँसू अपने प्रभु को सुखी देख खुश होने के लिए गिरते हैं जिससे वह अग्नि शान्त हो जाती है , जला नहीं पाती । क्या कहूँ ? सीताजी भारी विपत्ति में हैं । इसे न कहना ही अच्छा है क्योंकि सुनने से और कष्ट बढ़ेगा ।
निमिस निमस करुणा निधि जाहि कलप सम बीति ।
वेगि चलिअ प्रभु आनिआ मुजवलतेखल जीति ।।
सीता जी का दुख सुनकर सुख से धाम दोनों नेत्र आँसू से भर गये । वे बोल पड़े । मन वचन और शरीर से जिसे मेरा ही सहारा है उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है ? तब हनुमान जी ने गूढ वचन कहे । हे भगवान ! विपत्ति तो वह है जिसमें हर समय आप का स्मरण सम्भव नहीं । कितनी बात उन राक्षसों की कही जाय । आप शत्रु को जीत कर सीता को शीघ्र लायें ।
भगवान बोले हे कपिपति हनुमान , तुम्हारे समान उपकार करने वाला शरीर धारी में कोई नही है । तुम्हारा प्रत्युपकार किस तरह मैं करूँ । मेरा मन भी तुम्हारे सामने नही टिकता । मैं तुमसे उऋण नही हो सकता । ऐसा विचार करते हुए रामजी हनुमान जी को बार – बार देख रहे हैं । प्रभु के वचन सुन हनुमान जी का शरीर आनंद से भर गया ।
सुनि प्रभु वचन विलेकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि – त्राहि भगवंत ।।
बार – बार प्रभु चहई उठावा । प्रेम मगन तेहि उठव न पावा ।।
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा । सुमिरिसोदशा मगन गौरीसा ।।
फिर रामजी ने हनमान जी को उठाकर हृदय से लगाया और पूछा कि इतना विशाल दग तूने जलाया कैसे ? हनुमान जी ने कहा हे प्रभो ! वानरों का एक ही गुण है कि वह एक शाखा से दूसरी शाखा पर चला जाता है । मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने की लंका जलाई , राक्षसों को मारा , और अशोक वन को उजाडा , इसमे हमारा कोई पराक्रम नही , सब आपका प्रताप है । आप जिस पर अनुकूल हैं उसके लिए कुछ भी अगम नहीं है । हे नाथ ! आपकी भक्ति बड़ो सुखदायिनी है । वही अनपायिनी भक्ति मुझे चाहिए । भगवान ने तुरंत एवमस्तु कह दी । शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि जिसे रामचन्द्र जी का स्वभाव पता है । वह कभी भी उनकी भक्ति को छोड़ दूसरा कोई कार्य नही करता । इस हनुभद्राम संवाद को भी जो अपने हृदय में धारण कर लेता है । उसे उनकी भक्ति सरलता से मिल जाती है ।