Fri. Nov 22nd, 2024

प्रभाग-15 बाल काण्ड रामचरितमानस

 एक प्रकार से मुनि परशुराम राम चरित मानस के विदूषक सिद्ध हुए । उनके कारण धनुष यज्ञ की मर्यादा पर एक प्रश्न चिन्ह लगे । कुछ समय के लिए मंगल वेला एक झमेला उत्पन्न कर चिन्ता की लहर फैलादी । विश्वामित्र और राम पर लांक्षण की स्थिति आयी । किन्तु विडम्बना है कि जनक जी को धनुष तोड़ने से सीता का स्वयंवर जुड़ा था । इसलिए जनक जी को ही जिम्मेदारी लेनी चाहिए , जबकि राम ने लिया । सच्चाई यह है कि जनक जी द्वारा धरती को वीर विहीन बतलाया गया । क्षत्रियों की मर्यादा पर एक कुठाराधात कहा जा सकता है । मुनि परशुराम जनक जी द्वारा धनुष यज्ञ के निमंत्रितों मे से नहीं थे । यह भी एक गंभीर प्रश्न बनकर खड़ा हुआ । सच पूछा जाय तो राम धनुष यज्ञ के चरित्र नायक बने एवं इसका सम्पूर्ण श्रेय विश्वामित्र जी पर गया ।

 यह एक हठात् आपतित घटना रही । मृगुपति तपोधत होकर प्रस्थान किये । जनकपुर में जो हलचल व्याप्त रहा , वह सामान्य स्थिति में आया तो जनक जी ने विश्वामित्र जी की अपूर्व कृपा को सराहना कराते हुए कहा कि आगे का कार्यक्रम क्या हो ? कौशिक मुनि ने कहा कि धनुष यज्ञ में धनुष टूट जाने से ही सीता का विवाह हो गया किन्तु कुल की मर्यादा के अनुरुप राम विवाह का रश्म पूरा किया जाना चाहिए । कुल श्रेष्ठ एवं नगर के वयोवृद्ध से राय लेकर विवाह का विधान भली प्रकार सम्पन्न कराया जाय । दशरथ जी को अयोध्या पत्र भेजकर विवाह हेतु बारात लेकर आने का आग्रह निमंत्रित हो । इसके बाद यथा विधान अच्छी तैयारी का उपक्रम शुरु हो गया ।

 नगर सजाया गया । घर – घर मंगल गान होने लगा । हाट , वाट , सड़क , तालाव , मंदिर आदि को सुन्दर बनाया गया । ऐसा दृश्य लग रहा था मानो हर घर में विवाहोत्सव चल रहा हो।

  दूत पाती लेकर अवधपुरी पहुँचे । द्वारपाल से जानकारी दी । जब द्वारपाल दशरथ जी को सूचित किया तो दूत को अन्दर बुलाया गया । दूत ने प्रणाम कर पाती सौंपी । दशरथ जी ने उठकर हर्ष पूर्वक लेकर हृदय से लगाया फिर पत्रिका पढ़ी और राज सभा में सुनाया । उस समय भरत – शत्रुधन जहाँ लड़कों के संग खेल रहे थे , खबर पहुँच गयी । वे भी दौड़ते हुए माता के पास पहुँचे और पत्र की जानकारी ली । कुशल पूछा कि दोनें भाई कहाँ और कैसे हैं । सब कुछ राजा ने बार – बार पढ़कर सुनाया । भरत को सबसे ज्यादा प्रसन्नता हुई । तब राजा ने दूत को नजदीक बैठकार पूछा भैया , बताओं मेरे दोनों लड़के न । तुमने उन्हें अपनी नजर से देखी है ? दूत ने कहा कि साँवले और गोरे बदन के दो लड़के हाथ में धनुष वाण लिए मुनि के साथ पहुंचे हैं । राजा ने प्रेम विवश होकर बार – बार दूत से पूछा – क्या तुमने उन्हें पहचाना ? जबसे दोनों विश्वामित्र जी के साथ यहाँ से गये , उसके बाद आज उनकी सही सुधि मिल पायी है । कहो राजा जनक उनको किस प्रकार जाने । दूत कहा , सुनिये राजन ! आप धन्य हैं और आपके दोनों पुत्र संसार को अपने वश में करने वाले हैं । कुल के भूषण हैं । भला आपके पुत्र पूछने के योग्य है ! वे तो तीनों लोकों के पुरुषों के बीच सिंह के समान है जिनके सामने चन्द्रमा मलीन । कुशल से और सूर्य ठंढ़े पड़ जाते है । उनके बार में आप पहचानने की बात करते है । क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखना होगा । सीता के स्वयंवर मे अनेकों राजा जुटे थे । वे एक से एक वीर थे । शिवजी के धनुष को कोई टाल न सका । अपने – अपने बल लगाकर सभी हार गये तीनों लोक में जितने वीर बलवान थे , सबने अपनी शक्ति आजमा ली । जो दवता और राक्षस पहाड़ उठा लेते थे , वे भी हार कर लौट गये । जो रावण खेल – खेल में हिमालय पर्वत को उठा लिया था , वह भी सभा छोड़कर भाग निकला । वहाँ पर आपके पुत्र , जान लीजिए , बिना प्रयास के ही धनुष तोड़ डाले जैसे हाथी कमल के नाल को तोड़ता है । यह सुनकर परशुराम मुनि क्रोधित मुद्रा में आकर कड़ी नजरों से ललकारा वह भी तो अपने बल का अनुमान कर अपना धनुष राम को सौंपकर वन को चले गये । राजन ! आपके पुत्र तेज की खान हैं । दूत के कथन और शब्द रचना सुन राजा को वीर रस का अनुमान हुआ । सारी सभा प्रसन्न हो उठी । दूत को बहुत निछावर मिला ।

 तब राजा उठकर शीघ्र वशिष्ठ मुनि से मिले और पाती दी । मुनि पाती पढ़कर प्रसन्न हुए और भूरि – भूरि पशंसा की । आप तो पुण्य पुरुष हैं जो सारे विश्व में छा गय । जैसे समुद्र को अधिक जल की कामना नहीं रहती फिर भी नदियाँ उसमें जाकर मिल ही जाती है उसी प्रकार सुख और सम्पत्ति बिना बुलाये ही धर्मशील पुरुषों के पास पधारती है । आप तो विप्र , गौ , गुरु और देवता क सवक हैं , वैसे ही आपकी पत्नी कौशल्या देवी भी । आपके ऐसा यशस्वी संसार में कोई नही हुआ है और न हो पायेगा । आपके ऐसा पुयात्मा कहाँ है जिनके पास आपके राम के समान पुत्र हो । वीरता और विनम्रता के धाम और व्रती आपके चारों पुत्र है । आपको तो हर काल मे कल्याण ही कल्याण है । डंका बजाकर आप बारात साजिये । मुनि की वाणी सुनकर राजा अपने राज भवन पहुँचे और सभी रानियों को बुलाकर जनक जी की चिट्टी पढ़ सुनायी । घर आनन्द से भर गया । रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाकर दान दिया । और उन्होंने आशीर्वाद दिया । चारों ओर जनक पुत्री सीता और राम विवाह की चर्चा चलने लगी । गली – गली सजने और सुहावन लगने लगी । राजा दशरथ जी के भवन की शोभा का क्या कहना , जहाँ देवताओं के देव श्री रामचन्द्र ने अवतार लिया है ।

 राजा ने भरत जी को बुलाकर हाथी , घोड़े , रथ आदि सजाने और रामचन्द जी के बारात चलने की तैयारी का आदेश दिया । हर प्रकार से सारे वैवाहिक प्रकरण पूरे ठाटवाट से किये गये जिसे हम अलौकिक कह सकते हैं । सर्वत्र विवाह को उत्सव का स्वरुप दिया जाता रहा है । राम विवाह राजकुल की गरिमा का अनोखा उदाहरण होना ही चाहिए , जिसे गोस्वामी जी की काव्यधर्मिता ने सफल निर्वाह किया है । सारे प्रासंगिक और उपयुक्त तथा विधिवत युक्ति – युक्त है । हम तो वैसा देखे नहीं अतः हमारे लिए लिख पाना कठिन कहें या अनुचित प्रयास कहें तो गलते न होगा जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम की गरिमा निहित है ।

 दो ० राम सिय शोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज ।

 जहँ – तहँ पुरजन कहहि अस मिलि नर नारि समाज ।।

 

 जनक सुकृत मूरति वैदेही । दशरथ सुकृत राम घरे देही ।।

 इन्ह सब काहु न शिव अपराधे । काहु न इन्ह समानफल लाघे ।।

 

 इस प्रकार सभी रामचन्द्र जी के यश का गुणगान करते हुए सभी राजागण अपने – अपने निवास चले गये । अयोध्या से दशरथ जी जनक जी के बुलावे पर बाराती लेकर आही चुके थे । कुछ दिन इसी तरह व्यतीत हुआ । अब मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया । हेमन्त ऋतु और अगहन मास का सुहावना समय , ग्रह , नक्षत्र तिथि बार सभी श्रेष्ठ थे । मुटूर्त शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया । उस लग्न पत्रिका को नारद जी द्वारा जनक जी के पास भेज दिया । जनक जी के पास ज्योतिषज्ञों ने भी वही गणना कर रखी थी ।

 धेनु धूरि वेला विमल सकल सुमंगल मूल ।

 विप्रन्ह कहेउ विदेह सन जानि सगुण अनुकूल ।

 जनक जी के उपरोहितों ने भी कहा कि अब विलम्ब किस बात का । तब सचिव श्री सतानन्द जी ने मंत्रियों को बुलाकर मंगल के सारे सामान जुटा लाये । सभी नर – नारी शुभ विवाह की औपचारिकता पूरी करने म जुट गये ।

 शिव समुझाये देव सब जनु आचरज भुलाहु ।

 हृदय विचारहु धीर – धरि सिय रघुवीर विवाहु ।।

 

 जिन्हकर नाम लेत जग माही । सकल अमंगल मूल नसाही ।।

 करतल होहि पदारथ चारी । तेइ सिय राम कहत कामारि ।।

 

 सजि आरति अनेक विधि , मंगल सकल सँवारि ।

 चलि मुदित परिछन करन , गज गाविनी वर नारि ।।

 

 विधु वदनी , सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छवि रति मदमोचनि ।।

 पहिरे वरन वरन नव चीरा । सकल विभूषण सजे शरीरा ।।

 

 सकल समंगल अंग बनाये । करहि गान कल कंठ लजाने ।।

 कंकन किंकिन नूपुर बाजहि । चाल विलोकि काम गज लाजहि ।।

 

 बाजहि बाजने विविध प्रकारा । नम अरु नगर सुमंगल चारा ।।

 सची शारदा रमा भवानी । जे सुर तिये शुचि सहज सयानी ।।

 

 कपट नारि – नर वश बनाई । मिलि सकल रविासहि जाई ।।

 करहि गान कल मंगयवानी । हरष विवश सब काहुन जानी ।।

 

 दो ० जो सुखमा सिय भातु मन देखि राम वर वेशु ।।

 सो न सकहि कह कलप सत सहज शारदा सेषु ।।

 

 लोचन जल हरि मंगल जानी । परिछन करहि मदित मन रानी ।।

वेद विहित अरु कुल आचारु । कीन्ह भली विधि सबव्यहारु ।।

 

 तंत्री , ताल , झाँझ , नगारा और तुरही , इन पाँचो प्रकार के बाजों के शब्द और वेद ध्वनि , वन्दि ध्वनि , जय ध्वनि , शंख ध्वनि तथा हुलू ध्वनि ये पंच शब्द और पंच ध्वनि के साथ मंगलाचार और गान हो रहे थे । अर्घ्य और आरती के बाद राम विवाह मंडप पर पधारे ।

 दशरथ सहित समाज विराजे । विभव विलोकि लोकपति लाजे ।।

 समय – समय सुर वरषहि फूला । शान्ति पढ़हि महिसुर अनुकूला ।।

 

 मिले जनक दशरथ अति प्रीति । करि वैदिक लौकिक सब रीति ।।

 मिलत महा दोउ राज विराजे । उपमा खोजि खोजि सब लाजे ।।

 

 लही न कतहु हारि हिय मानी । इन्ह सभ एई उमपा उर आनो ।।

 सामध देखि देव अनुराग । सुमन वरसि जसु गावन लागे ।।

 

 जगु विरंचि उपजावा जवतें । देखे सुने व्यासु बहुतबते ।।

 सकल भाँति सम साज समाजू । सम समधी देखे हम आजू ।।

 

 देव गिरा सुनि सुन्दर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसिामाची ।।

 देत पाँवड़े अरधु सुहाये । सादर जनकु मंडपहि लगाये ।।

 

 कौशल पति सहित पूरी बाराती को जनक जी ने सम्मान दिया । ब्रह्मा , विष्णु , शिव , दिक्पाल और सूर्य नकली ब्राह्मण का वेष बनाकर मरवा पर विवाह की लीला का सुख प्राप्त कर रहे थे । जनक जी तो उन्हें पहचान न पाये किन्तु सुन्दर आसन देकर बैठाया फिर श्रेष्ठ देवांगनाएँ जो सुन्दर मानवी नारियों का वेष धारण कर उपस्थित थी मण्डप की स्त्रियाँ उन्हें बहुत सम्मान दी । उन्हें पार्वती , लक्ष्मी और सरस्वती के रुप में माना । उसी समय सखियाँ सब प्रकार से श्रृंगार कर सीता को अपनी मंडली में लेकर विवाह मंडप में पहुँची ।

 एहि विधि सिय मंडपहि आयी । प्रमुदित शांति पढ़हि मुनिराई ।।

 तेहि अवसर कर विधि व्यवहारु । दुहु कुलगुरु सब कीन्ह अचारु ।।

 

 दो ० होम समय तनुधरि अनलुअति सुख आहुति लेहि ।।

 विप्र वेष धरि वेद सब कहि विवाह विधि देहि ।।

 

 कुरु कुरि कल भाँवरि देही । नयन लाभ सब सादर लेहीं ।।

 जाई न बरनि मनोहर आरी । जो उपमा कुछ कहौ सो थोरी ।।

 

 प्रमुदित मुनिन्ह भाँवरि केरी । नेग सहित सब रीति निवेरी ।।

 राम सीय सिर सिंदुर देही । शोभा कहि न जात विधि केही ।।

 

 जसि रघुविीर व्याह विधि बरनी । सकल कुँवर व्याहें तहि करनी ।।

 कहि न जाइ कछु दाइज भूरि । रहा कनक मनि मंडपु पूरी ।।

 

 दो ० सहित बधूटिन्ह कुँवर सब तब आये पितु पास ।

 शोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ।।

 

 पुनि जेवनार भई बहु भाँति । पठये जनक बोलाये बराती ।।

 परत पॉवड़े वसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन किये भूपा ।।

 

 सादर सबके पाँव परवारे । यथा आगे आसन बैठारे ।।

 धोये जनक अवधपति चरणा शीलु सनेह जाइ नहि वरना ।।

 

 बहुरी राम पद पंकज धोये । जे हर हृदय कमल महु गोए ।।

 तितिउ भाई राम सम जानि । धोये चरण जनक निज पानी ।।

 

 दो ० सूपादन सुरभि सरपि सुन्दर स्वाहु पुनीत ।।

 छन महु सबके परुसिगे चतुर सुआर विनीत ।।

 

 इस प्रकार सब रसों से भरपूर विविध प्रकार के व्यंजन का भोजन कराया गया । जानते हुए कोई कमी नहीं की गयी ।

 दो ० दई पान पूजे जनक दशरथ सहित समाज ।

 जनवासे गवने मुदित सकल भूत सिरताज ।।

 

 बार – बार कौशिक चरण सिरुनाई कह राउ ।।

 यह सबु सुख मुनि राज तब कृपा कराक्ष पसाउ ।।

 

 जनक सनेहु शील करतूती । नृप सब भाँति सराह विभूति ।।

 दिन उठी विदा अवध पति मागा । राखई जनकु सहित अनुराग ।।

 

 नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ।।

 नित नव नगर अनंद उछाह । दशरथ गवनु सोहाई न काहू ।।

 

 बहुत दिवस बीते एहि भाँति । जनू सनेह रजु बैंधे बराती ।।

 कौशिक सतानन्द तब जाई । कहा विदेह नृपहि समुझाई ।।

 

 अब दशरथ कहँ आयसु देहू । जदपि छाड़ि न सकहू सनेहू ।।

 भरमेहि नाथ कहि सचिव बोलाये । कहि जय जीव सीसतिन्ह नाये ।।

 

 दो ० अवध नाथ चाहत चलन भीतर करहु जनाउ ।

 भये प्रेम वस सचिव सुनि विप्र सभासद राउ ।।

 

 पुरवासी सुनि चलिहि वराता । वूझत विकल परस्पर बाता ।।

 सत्य गवन सुनि सवविलखाने । मनहु साँझ सरसिज सकुचाने ।।

 

 कहाँ तक कहा गया , जहाँ – जहाँ बराती ठहरती , वहाँ – वहाँ भोजन का सामान भेजा गया । अनगिनत बैलों और कहारों पर लाद – लादकर भेजे गये । एक लाख घोड़े और पच्चीस हजार रथ उपर से नीचे तक सजाकर भेजे गये । दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी , सोना , वस्त्र , रत्न , भैंस , गाय और अनेक प्रकार की वस्तुएँ दी ।

 सब समाज एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ।।

 चलिहि बरात सुनत सव रानी । विकल भीन गन जनु लघु पानी ।।

 

 पुनि पुनि सीय गोद करि लेही । देई असीस सिखावन देही ।।

 होह संतत पियहि पियारी । चिरु अहिवात अशीस हमारी ।।

 

 सासु ससुरगुरु सेवा करहु । पति रुख लखि आयस अनुसरहूँ ।

 अति सनेह बस सखी सयानी । नारिधरम सिखवहि मृदु वाणी ।।

 

 दो ० तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामभानुनुकूल केतु ।

 चले जनक मंदिर मुदित विदाकरावन हेतु ।।

 

 राउ अवधपुर चहत सिधाए । विदा होन हम इहा पठाए ।।

 मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करव नित नेह ।।

 

 सुनत बचन विलखे रनिवासू । बोलिन सकहिप्रमवस सासू ।।

 हृदय लगाई कुंअरी सब लिन्ही । पतिनह सौपी विनति अति कीन्ही ।।

 

 राम विदा मांगत कर जोरी । कीन्ह प्रणाम बहोरि – बहोरि ।।

 पाई असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ।।

 

 सुक सारी जानकी जयाय । कनक पिंजरहि राखि पठाये ।।

 व्याकुल कहहि कहाँ वैदेही । सुनि धीरज परिहरइन कोहि ।।

 

 सीय विलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम विरागी ।।

 लिन्ही राय उर लाइ जानकी । मिटो महामरजाद ज्ञानकी ।।

 

 दो ० प्रेम विवस परिवारुसब जानि सुलग्न नरेश ।।

 कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गणेश ।।

 

 चली बरात निशान बजाई । मुदित छोट बड़ सब समुदाई ।।

 रामहि निरखि ग्राम नर नारी । पाई नयन फलु होहि सुखारी ।।

 

 बीच – बीच बरबास करि मगुलोगन्ह सुखदेत ।

 अवध समीप पुनीत दिन पहुची आइ जनेत ।।

 

 एहि विधि सबही देत सुख आये राज दुआर ।

 मुदित मातु परिछन करहि वधुन्ह समेत कुमार ।।

 

 निमम नीति कुलरीति करि अरघ पॉवड़े देत ।

 वधून्ह सहित सुत परिछ सब चलि लिवाह निकेत ।।

 

 एहि सुख ते सतकोटि गुण गावहि मातु अनंदु ।

 भाइन्ह सहित विआहि घर आये रघुकुल चन्दु ।।

 

 आये राम व्याहि घर जबते । बसई अनंद अवघ सब तवते ।।

 प्रभु विवाह जस भयउ उछादू । सकहि न वरनि गिरा अहिनाहू ।।

 

 सो ० सिय रघुवीर विवाहू , जे सप्रेम गावहि सुनहि ।

 तिन्ह कहुँ सदा उछाडु । मंगलायतन राम जसु ।।

 

 राम विवाह पूर्व जितना ही मंगलमय और मोद प्रद वातावरण रहा , उतना ही रोमांचक , अतिरंजित आर भावनात्मक भी । शब्द रचना में महाकवि तुलसी दास ने जो मणि कांचन और रत्नों से विभूषित अलंकृत किया है , वह उनकी कला मर्मज्ञता का जोता जागता उदाहरण है जो सूर्य – सा प्रखर नहीं , चन्द्रमा सा शीतल और सौभ्यप्रमा से प्रभासमान दिखता है । भले ही लोग उसे सामान्य रुप से शब्दालंकार में ही सीमित मान ले किन्तु सत्यता है कि ये शब्द भावना के भंवर में तरंगायित अविरल भावभिव्यक्ति में स्फुड़ित ज्ञान , भक्ति का उन्मेष स्थापित करता है । राम चरित मानस का प्रथम सोपान बालकाण्ड बहुआयामी प्रतीत होता है । जिसमें जीवन के महानतम लक्ष्य का संविधान निहित है । जहाँ कण – कण में व्याप्त सत्त्वकी अवधारणा निगुर्ण ब्रह्म की संज्ञा प्राप्त है उसे गोस्वामी जी ने व्यक्तिकृत करते हुए कहा है ।

 आखर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थलनम वासी ।।

 सिय राम मय सबु जग जानी । करौ प्रणाम जोरि जुग पानी ।।

 फिर उन्होंने जड़ चेतन रुप में व्यवस्थित सृष्टि को : ” जड़ – चेतन जग जीवन जत सकल राम मय जानि ” को उक्ति से चेतन अवचेतन के अन्तर को मिटा डाला है । सगुण और निर्गुण के बीच की दूरी घटी है । ज्ञान और भक्ति की विवेचना स्पष्ट हुयी है । मंगलाचरण में उन्होंने:-

 देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर जन्धर्व ।

 बन्दउँ सबके पद कमल कृपा करहु अब सर्व ।।

 की अभिव्यक्ति ने उन्हें जैसे समदर्शी सिद्ध किया है , वहीं मानवीय सवेदना की स्फुट अनुभूतियो ने देव दानव , मित्रकुमित्र एवं संत असंत के गुणावगुणों को स्पष्ट किया है । मानव जीवन को प्रखर और प्रशस्त बनाने में सहयोगी बतलात हए सराहना भी की है । जगह – जगह पर उनको उदाहरण स्वरुप उद्धृत कर ज्ञान के प्रवाह को गति प्रदान किया है । इस दिशा में राम चरित मानस की प्रस्तावना ज्ञान सरिता का उद्गम स्थान है । जहाँ आस्था का जन्म स्थान है । भगवान राम को अज , अनन्त और व्यापक च्चिदानन्द की संज्ञा का शब्दिक , लौकिक , मनोवैज्ञानिक और यथार्थ चित्रण तुलसीदास की मूल अवधारणा रही । राम जन्म के कारणों , घटनाओं , उनका शैशव , बाल लीला , उनका गुणानुवाद , शील – सौजन्य तथा अलैकिक कर्म वैशिष्ट्य का निरुपन भी सराहनीय है । विश्वामित्र के साथ उनका जीवन वृत्त , शील – स्वभाव , राक्षसों का बघ , पाप पुंज हरण , दुष्ट दलन को विश्व के धरातल पर लाकर मिथिला में उनको सम्पूर्ण गुण निधान के रुप में खड़ा किया है । परशुराम जी के कोप भजन और राजकुमार के रुप में राम तत्त्व , के प्रकटीकरण का श्रेय मुनि विश्वामित्र जी को जाता है तथा रामजी के व्यक्तित्त्व और कीर्त्तित्त्व दोनों निखर कर सामने आत है । भव भय भजन और दुष्टों का दर्प दलन का उदाहरण बने राम मिथिला में चर्चित रहे जिसकी सराहना से उनकी मर्यादा निखर पायी । हम बालकाण्ड को सम्पूर्ण रामचरित मानस का दर्पण स्वीकार करते है । जैसे राम जगन्नियंता है वैसे ही सन्त कवि तुलसी दास संस्कृति के गायक और मानवता के उन्नायक के रुप में जन मानस में विराजमान हैं ।

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