रामचरितमानस के परिचयात्मक सोपान
Dr. G. Bhakta
भाग-1
राम चरित मानस या मानस रामायण संत कवि तुलसी दास कृत आठ काण्डों का प्रबन्ध काव्य है , जिसमें राम तत्त्व से सराबोर उसके कथानक में जो काव्यात्मक अभिव्यंजना हुयी है वह श्री अवधपति दशरथ पुत्र राम के पुरुषोत्तम सह पौरुषोत्तम आदशों एवं भावनाओं की शुभतम सरिता है । आर्यवर्त की पावन धरती पर असुरों के आतंक का अंत ज्ञान , भक्ति और सत्संगति की निर्मल धारा से सींचकर जिस संस्कृति की सरिता आयोध्या से प्रवाहित – पालित होकर बिहार को पवित्र करती बवसर की बीथियों से मिथिला तक की भूमि को प्रेम पूरित करती देवासुर के अन्तर्द्वन्द को समाप्त कर अपने दर्शन , मज्जन और जलपान से पवित्र पथ का निर्माण किया , वह बालपन की कथा भारतीय जनमानस के लिए अमरता का संदेश वाहक बनी । सरय से कावेरो तट तक जो आतंक था उसके गढ़ के परकोटे पर आग की लपटें और वाणों की वर्षा से रावण का दर्पदलन तथा सुर – नर – मनि का पक्ष मंडन सम्भव हुआ । पापियों के संहार से गौ , ब्राह्मण और धरती का ताप मिटा और ज्ञान – भक्ति की संस्कृति संरक्षण पायी । पतितों का उद्धार सहित जल – थल – नम वासी सकल सृष्टि , सचराचर जगत में ” सिया राम भय सब जग जानी ” का गुणगान गाया ।
इस राम तत्त्व के परम सत्त्व के दिग्दर्शन में ज्ञान विशारद मुनि नारद , वशिष्ठ , विश्वामित्र , याग्बलक्य , भारद्वाज , अत्रि , परशुराम , कुंभज , लोभष आदि तपेनिष्ठ ऋषियों का बहुमूल्य योगदान भी उल्लेखनीय एवं प्रसंशनीय है ।
रामावतार के पूर्व के कथानकों में- ” नाना पुराण निगमागम सम्मत यद्रामायणे निगदितम् क्वचिदन्यतोपि ” में विविध काल खण्डों में भारतीय उप महाद्वीप के अनेकानेक प्रान्तीय भाषाओं मे रचित राम कथाओं का सार रुप रामायण जिनके नाम मैंने श्री सुखदेव भी जमालपुर मुंगेर द्वारा लिखित एवं प्रकाशित पुस्तक अंग्रेजी में THOUGHTS ON THE RAMAYANA की भूमिका में तात्कालीन ( 1974 ई ० ) प्रोफेसर श्री विधाता हिन्दी विभाग आर ० एन ० कॉलेज हाजीपुर ( बिहार विश्व विद्यालय ) की संस्तुति में निम्नप्रकारेण वर्णित है , जान पाया हूँ । यथा पूर्व रचित रामायण , जिनके रचयिता आदि कवि बाल्मीकि ने भी वेदों में वर्णित राम तत्त्व के आधार पर ही रामायण की रचना तब की जब भगवान विष्णु त्रेता युग में अवध पति दशरथ के घर महारानी कौशल्या के गर्भ से अवतरित होने वाले थे ऐसा माना जाता है । मैंने पाया है कि उक्त रामायण के प्रारंभ में वर्णित भूमिका में संबद्ध प्रसंग बतलाते है कि राम किसी कवि की कल्पना नहीं , साक्षात अवतार है जिनके आख्यान निम्न प्रकारेण अंकित कर रहा हूँ :-
1. वेद वर्णित परमात्म तत्त्व ही श्री मन्नारायण तत्त्व बाल्मीकि रामायण में श्री राम नाम से निरुपित है । उन्हीं परम पुरोषोत्तम का अवतार जब दशरथ नन्दन के रुप में हुआतो आदि कवि बाल्मीकि ने अपने मुख से वेद ही रामायण रुप में प्रकट किया । इसी हेतु सनी हेतु वाल्कीकीय रामायण की वेद तुल्य मान्यता है । बाल्मीकि को आदि कवि मानने से रामायण भी आदि ग्रंथ के रुप में प्रकट है किया । भारत के लिए गौरव की वस्तु के साथ राष्ट्रीय निधि भी है । इसमें प्रयुक्त वर्ष एवं शब्द अपने अर्थ , भाव एवं रस सामन्जस्य युक्त पाकर हृदय ग्राह्य एवं पाप नाशक है । ज्ञान का अपूर्व साधन तथा वैदिक संस्कृति का पालक संरक्षक भी है । यह हिन्दी ग्रंथों के बीच सनातन काव्य बीज है ।
2. यह भी मान्य है कि परवर्ती कवि व्यास जी ने भी इसी के आधार पर पुराण और महाभारत आदि ग्रंथों का निर्माण किया । ऐसा भी वर्णित है कि महाराजा युधिष्ठिर के आग्रह पर व्यास जी ने बाल्मीकि रामायण पर अपनी व्याख्या ” राम तत्त्व दीपिका ” के नाम से तैयार की , जिसकी हस्तलिखित प्रति सुरक्षित पायी गयी है । इसका उल्लेख दीवान बहादुर राम शास्त्री की पुस्तक ” द स्टडीज इन रामायण ‘ के द्वितीय खण्ड में किया गया ।
3. इसी प्रकार अग्नि पुराण , गरुड़ पुराण , हरिवंश ( विष्णु पर्व ) में भी बताया जाता है । स्कन्द पुराण , मस्य पुराण , आध्यात्म रामायण , कालिदास प्रणोत रघुवंशम् भी इसके प्रमाण माने गये हैं ।
4. भवभूति , शारड्डघर , भास , आचार्य शंकर , रामानुज , राजा भोज आदि विद्वान कवियों की देन ( पुस्तक ) भी राम के पुरुषोत्तम स्वरुप के समर्थन किये हैं ।
5. प्राचीन संस्कृत टोकाएँ भी उल्लेखनीय बतलाये गये है । बांगलाकृतिनिवास रामायण , आनन्द रामायण , चतुरर्थ दीपिका रामायण विरोध परिहार , रामायण सेतु , तातर्फा निर्णय , श्रगार सुधाकर , माघवाचार्य की रामायण तात्पर्य निर्णय , श्री दिक्षितेन्द की शिव परक व्याख्या , प्रवाल मुकुन्द सूरी की रामायण भूषण व्याख्या , रामायण सप्तविधि , मनोरमा , रिडिन्स इन रामायण , बाल्मीकि हृदय , विरोधमंजिनी श्रीमदभद्राश्रम की सुबोधिनी टीका , डा ० एम ० कृष्णाभाचारी की हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर में कई टीकाएँ संगृहित बतलायी गई हैं ।
6. वरद राजा चार्य के रामायण सार संग्रह , देवराम मट की विषय पदार्थ व्याख्या , नृसिंह शास्त्री की काव्य वल्लिका बेंकटाचार्य की रामायणार्थ प्रदर्शिका तथा रामायण कथा विमर्श ।
7. इसी प्रकार ज्ञात या अज्ञात ऐसी अनेक संस्कृत भाषा की वयाख्याओं में हिन्दी के द्वैत – अद्वैत विशुद्धाद्वैत एवं विशिष्ठाद्वैत मतावलम्वियों , आर्यसमाजी व्याख्याओं , फेंच , अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में किये गये अनुवादों के संबंध में भी जानकारियाँ की गई है जो सिद्ध करती है कि राम कथा का आख्यान कितना विषद और विराटता के साथ लोकप्रियता से आप्लावित है ।
यही कारण है कि गोस्वामी जी के लिए भी विषय वस्तु की अनन्तता के साथ भाव भूमि की प्रगाढ़ता अपनी विशिष्ठता सिद्ध करती है । क्यों न इतनी समृद्ध पृष्ठभूमि पाकर रामचरितमानस उत्कृष्टता की चोटी पर सुशोभित गौरवान्वित हो । उपरोक्त साहित्यिक साक्ष्यों की भौगोलिक मान्यता पर हमें इसलिए भी गर्व है कि राम चरित मानस एक विश्व व्यापी समर्थन पा चुका है । जब संत तुलसी दास के राम चरित मानस प्रबंध के चरित्र नायक राम सृष्टि के पालक , नायक और कल्याणकर्ता है तो उनकी शास्वतता पर तर्क की किञिचत कामना नहीं की जा सकती ।
राम तत्त्व का प्रभाव करीब सभी धर्मो जातियों तथा समुदायों पर पड़ा । इस राम रावण युद्ध के समागम में अन्तर्राष्ट्रीय सघटनों का समिमलन शामिल रहा । भारत के मध्य , पूर्वोत्तर एवं पश्चिम दक्षिणी समुद्र तट और सिंहल द्वीप तक की संस्कृति को झकझोड़ ने वाली यक्ष संस्कृति को वन्य संस्कृति से जुटकर मानवी संस्कृति का मार्ग प्रशस्त करना राम की दैवी प्रतिमा का प्रमाण और सम्मान का प्रतिमाण बना जो युग – युग को अपना संदेश देता रहेगा । कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि राम का प्रभाव बचपन से ही इस जन्बूदीप पर छा चुका था जिसका प्रसग हम सविस्तार आगे पायेंगे । रावण और राम का टकराव समय – समय पर सामने प्रकट होता पाया गया था तो राम के शौर्य का प्रमाण भी राम को जानने का अवसर भी मिलता रहा जिसकी पुष्टि रावण की धर्म पत्नी मन्दोदरी हृदय से करती रही और बार – बार प्रभु से दुराव रखने का विरोध करती और उनकी शरण में जाने का अनुरोध करती रही । रामचन्द्र जी का पराक्रम ईश्वरीय प्रमाण पूर्व से प्रचारित और प्रसंशित रहा । जो शास्त्र विदित है । आदि काल की आर्ष परम्परा में सामाजिक जीवन जिन आदर्शों का पालन करता रहा उसकी छाप आज के बदलते परिवेश में भी नितान्त आवश्यक माना जा रहा है और बार – बार हम उस संस्कृति का गायन करते हुए अपनाना चाहते हैं । ज्ञान कर्म और भक्ति के सामन्जस्य से जुड़ा समाज जब – जब विकास पाया , उसकी अपनी सभ्यता बनी । विषयों का विस्तार अपना क्षेत्र ग्रहण किया । अस्मिता का भाव जगा । स्वार्थ समाया । लोभ और होह ने त्याग पर अंकुश डाले तो कल्याण मूल्यवान बना और व्यवसाय का रुप लिया । हम तुलसी दास के युग ( सोलहवी शताब्दी ) को राम के त्रेता युग से तुलना नहीं कर सकते । वह काल भारतीय इतिहास का भक्ति काल रहा । सूर तुलसी , कबीर , मीरा , तिरुवल्लुवर आदि उस युग में भक्ति का प्रसार करने में जुड़े थे । सूर्यवंश और चन्द्रवंश के आदर्श बने राम और कृष्णा पर यवनों मुगलों आदि विदेशियों का आक्रमण आयावर्त के जीवन दर्शन पर भी धावा बोला । कालान्तर में रामानुजाचार्य एवं वल्लभचार्य ने उन दोनों आदर्श पुरुषों धनुष धारी और गिरिधारी वंशीधर को धरती पर पुनः उतारा हम अपनी भाषा में राम को मानवीय आदशो और जातीय आदर्शो को मर्यादा दिलाने में अग्रणी मानते है तो कृष्णा को सामाजिक अधिकारों की रक्षा में आदर्शमय छवि को कर्म योग के रुप में निखारा है ।
आज हमें आदर्शों सहित अधिकारों के विश्वसनीय संघर्ष को समानता के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का आहान चाहिए । आज हमें कंस और रावण दोनों ही से लोहा लेना है और गाँधी के शान्ति पूर्ण अनुसंधान अनुष्ठान में सत्य और अहिंसा को भी साधन बनाना उचित लगता है ।
हमने गाँधी जी का नेतृत्त्व पाकर देश की स्वतंत्रता ली । विकास तो किया किन्तु मनुष्यता कमजोर पड़ती जा रही । विकास ने यही इतना दर्शाया कि हमारी भूख बढ़ी । भौतिकवाद में इतना स्वाद है कि ऋघा मिटती नही । हमारे आर्थिक विकास का केन्द्र बिन्दु जो विदेश बन चुका है वहाँ स्वदेशी भाव को स्थापित करना आवश्यक है राष्ट्रीयता में भारतीयता की झलक तो चाहिए भोगोन्नुख भावना और इस नये शब्द स्मार्टनेश ने हमारे ज्ञान सौष्ठव पर सर्वग्रास ग्रहण लगा डाला है । रुप के साथ हमारा शील और गुण भी निखरना चाहिए । इस भ्रष्टाचार रुपी रावण को पहले समाप्त करना है तब इसका द्वितीय पक्ष कर्म योग को प्रश्रय दिलाना है ।
भारत वासियों के लिए राम चरित मानस और गीता दोनों ही सर्वतोमुखी विकास के साधन है । राम ने समदर्शी की भूमिका से अपना नेतृत्त्व प्रारंभ किया । उनके समय में मानव मात्र ही नहीं , देवताओ धरती के देवता कहे जाने वाले ज्ञानी नैष्ठिक बाह्मण , गौ और धरती , ऋषि गण तथा अन्य दीन समुदाय एवं वन्य जीवा पर हो रहे अत्याचार की पराकाष्ठा पायी गयी । राम ने अपने बालकपन में विश्वामित्र के शब्द…..