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इम्युनिटी
 रोग प्रतिरोधक क्षमता

 इम्युनिटी या डिफेन्स सिस्टम , जिसे हम रोग प्रतिरोधक क्षमता बताते हैं . कोई नया शब्द या नया विषय नहीं है । स्वस्थता और स्वस्थ जीवन जीने का विधान भारत के मनुष्यों के दिमाग में वैदिक काल में ही सूझ पाया था जिसकी दिनचा तैयार की गयी थी । रहन – सहन , खान – पान , आहार संयम , दोषों की पहचान , खाध में पाये जाने वाले रस , उनके गुण और प्रभाव , दोष निवारण के विधान आदि पर आयुर्वेद में विस्तृत व्याख्या की गयी है । उन विधानों को हमे आज नहीं सोचना है बल्कि हमारे पाकशाले में तैयार होने वाले व्यंजनो के गुण स्वाद ( रस ) और पोषण के साथ दोष निवारण के भी विधान जुड़े हुए है । ऋतुचर्या , जिसमे अलग – अलग ऋतुओं में अपनाये जाने वाले नियम , के पालन , आहार प्रयोग और निषेध । के साथ रसायन सेवन का भी विधान किया गया था जो मानव को दीर्घ जीवन ( लम्बी आयु ) रोग और बुढ़ापा से बचने , मेघा , बल , दाँत एवं बाल आदि को स्थिति स्थापकत्त्व प्रदान करता है । आज हमारी शिक्षा जो दिशा पायी है . हम उन गुणों को खो बैठे है और रोगों एवं कष्टो से घिर चुके हैं तो उनकी खोज करते हैं ।
 हमने अपनी शिक्षा पद्धति में नैतिकता अनुशासन , सामाजिक सरोकार को तो खोया है ही , साथ – साथ अपनी उत्तम संस्कृति को भी भुला पायें है । दूध , घी , गोरस , शहद का भोजन के साथ योग , मात्रा और काल का ख्याल , आहार निद्रा और ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन हमारे शरीर , स्वास्थ्य और आयु को एक – सा अर्थात जनावस्था न आने देने का विधान था । वानस्पतिक यूटियाँ , मशालें . फल , मेये , अर्क , स्वरस . क्याथ , पाक , लेह , विचूर्ण , सत्वदिका नियमित प्रयोग , त्रिफला , त्रिकटु पथमूल . दशमूल , पटरस , चातुर्जातक , सुगनियत द्रव्य , स्तन्य मेध्य , बल्य वृष्यादि औषधियों आयुर्वेद की अमोप देन रही जिनका प्रयोग कर काया को कंचन बनाया । जरा मृत्यु के कष्ट से मुक्त रहे । अति सहजता से शरीर का त्याग किया । ऐसा रहा भारतीयों का ज्ञान दर्शन ।
 हम इम्यूनिटी की बात उठाते है । जीवनी शक्ति शब्द से परिचित होकर भली प्रकार समझ सकते है । जीवनी शक्ति को योगाभ्यास बल से जगाया जा सकता है ऋषि – तपस्थी साधु , महात्मा , साधकगण अपने तेज बल तथा सतोगुण से जगाते है । की रचना में आट चक्र एवं दश द्वार बतलाये गये है ऐसा आध्यात्म राधक बतलाते हैं । शरीर विज्ञान के ज्ञाता नारी तंत्र कहते है । इन्डोक्राइन सिस्टम से भी जीवनी शक्ति जागृत होती है । विटामिन्स भी शरीर के तन्तुओं को पुष्ट कर रोगों का बचाव करते है । अतः प्रतिषेधक रुप में इनका प्रयोग भी अनिवार्य होगा ।
 जय शरीर की क्रियाएँ संतुलित रूप से होती रहती है तो शरीर पूर्ण स्वस्थ स्थिति में पाया जाता है । यहाँ भी जीवनी शक्ति अपनी सक्रियता में पायी जाती है । जब हमारे आहार शरीर में पञ्चकर संतुलित रूप से जन्तुओं को पूर्ण पोषण प्रदान करते है तो भोजन – तत्य से ऊर्जा , पुष्टि , और रोग निवारक क्षमता का प्रतिफलन होता है । यह भी जीवनी शक्ति की ही भूमिका है । इस प्रकार सृष्टि की रचना अपने आप में पूर्णत : व्यवस्थित है । जीवन शैली को तदनुकूल संचालित करते हुए मानव उस अवस्था को प्राप्त करता है जिससे जीवन सम्भव सारी सिद्धियाँ – समृद्धियाँ स्थत प्राप्त होती रहती है । उसे भारतीय आर्ष संस्कृति ने साक्षात्कार किया है , विभूतियों पायी है । यह अतिशयोक्ति नहीं है ।
 अब यहाँ यह भी स्वयं सिद्ध मानते है कि अस्तुलित जीवन शैली से जीवन क्रियाये विकार को प्राप्त कर के कग्न बनाती है । अर्थात उनकी जीवनी शक्ति क्षीण मानी जाती है । जब हम जीवन में अस्वस्थता के साथ – साथ रुग्नता पाते है तो जीवनी शक्ति का क्षीण होना स्वाभाविक ही होगा । अब दवा की एक खुराक या टीका या उपधार या यंत्र अथवा रत्न धारण कर हम जीवनी शक्ति को यथेष्ट फैसे मान लेंगे ? हाँ , हम उनमें निहित गुणों को अस्वीकार नही करते किन्तु ये भी पहले शरीर के अवयवों , तत्रों को संतुलन में लाने के बाद ही जीवनी शक्ति को उपयोग के लायक बना पायेंगे । तमाण सम्भव नहीं । आशिक लाभ ही संभव होगा । ऐसा ही होता भी है ।
 हमारे शान , कर्म विधान , साधना उपचारदि से जहाँ तक संभव या सुलभ हो प्रचलन में लाये गये सारे उपाय जीवन को पथ पर लाने के लिए है अवश्य किन्तु अज्ञानता और भय के कारण पूरी सफलता में कमी रहजाना स्वाभाविक है जिसका लाभ सबों को समान रूप से प्राप्त नही हो पाता ।
 निर्देश , उपदेश , शिक्षा और जागृति जगाने वाले जब इन सेवा भावनाओं को व्यवसाय का रूप देकर उन अवसरों पर लाभ कमाने का भी ख्याल रखते है तो लाभ प्राप्ति के पूर्व हम उनका पोषण करते और स्वतः शोषित होते है । उनका उद्योग खड़ा होता है , व्यापार चलता है । हम ऐसे भी करते है और रोग भी हमे ग्रसित करता , हमारा विधार विश्वासों के बाजार में भटकता है । देयों , तीर्थी , टोना – टोटका , मिन्नते . पूजा , प्रत और प्रसाद पाने से संतोष कर लेना और बाद में पश्चताप करने का फल किसे मिलेगा ?
 आडम्बर पालने और साधना में अन्तर है । जीवन को सकारात्मक दिशा दीजिए । यही शास्वत ज्ञान या जीपन कला है । सिद्धिका द्वार इसी कुंजी से खोला जा सकता है । अन्यथा सारा धोखा साथित वैसे होगा जैसे पुराने वस्त्रों को रंग चढ़ाने से नये जैसा नही हो सकता । जैसे इस कोरोना -19 के संक्रमण ने साबित कर दिया कि वत्तर्मान चिकित्सक और चिकित्सा की सारी व्यवस्था अनुपयुक्त और अविश्वसनीय है ।
 एक बात और जान लें कि जिस समुदाय का नेतृत्व विश्व स्वास्थ्य संगठन कर रहा था या है यह स्वयं अपर्याप्त है । मेडिसीन तो है नही यह तो मात्र तकनीक बनाकर व्यवसाय खोल रखा है । आज यह खोखला साबित हुआ । जैसे माना आय कि भविष्य में यह सफल उपचार कर पायेगा और वह निरापद होगा । आज जो हाईड्रोऑक्सीक्लोरोक्वीन जैसी विवादित दया को भयभीत अवस्था में भी अपनाना उचित समझा यह धन्वन्तरी , हिप्पोक्रोट या हैनिमैन का स्थान पा सकता ??
 एतदर्थ , इतना ही प्रर्याप्त नही कि रोग के प्रति बचाय करने वाली दवा ( प्रीवेन्टिय मेडिसीन ) खिला दिया जाय और रोग निश्चित रूप से संक्रमित न करें । यहाँ तक कि सफल हो जाने पर भी यह शरीर पर अपना कुप्रभाव या दूरपथ प्रभाव डाल सकता है । क्योंकि एलोपैथिक दवाएँ शरीर में सूक्ष्म मात्रा में अपना स्थान रखती है । होमियोपैथी की प्रीग्रेन्टीक दवा द्वारा कोई मात्रा शरीर में स्थान नही लेती , शक्ति रुप अपना अस्तित्व जीवनी शक्ति में परिवर्तित होकर अपना काम करती और दूरगामी युप्रभाव से दूर पायी जाती है ।

 डा 0 जी 0 भक्ता
 मो0-9430800409

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