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महान खेद की बात रै ज्ञान का

 – – दिवालियापन – – 
डा . जी . भक्त

मानव के ज्ञान केंद्र ( मस्तिष्क ) मे समस्या और समाधान सर्वपर है । समस्या है तो समाधान भी कही न कही अवश्य है । समझ का विषय है । इससे संबंधित एक तथ्य है । एक विचारक इस धरती पर हए – एलेविजस कैरला , उन्होने एक पुस्तक लिखी – ” मैं दी अननों न ” भाव है की मनुष्य अबतक पूर्ण जानकारी मे नही , वह जानने योग्य है । ” man is not known , still knowlable . ” इस पुस्तक पर उन्हे नॉवेल पुरस्कार प्राप्त है । आज अपने देश मे रामदेव ( योग गुरु ) तीन हजार वर्ष की योग संस्कृति के साथ आयुर्वेद पर स्वस्थ मानव जीवन का अभियान लेकर बढ़ रहे है । यह देश धर्म प्रधान माना जाता है | योग , जप , ताप , यज्ञ , पूजा आराधना भी इसकी संस्कृति के तत्व है । यही पर आती प्राचीन आयुर्वेद विकास पाया | ज्योतिष शास्त्र भी | सकी ज्ञान प्रद एवं कल्याण प्रद रहे । आज भी मान्यता है । कहते है – तुलसी के पत्र कंठ मल हीरा | हरखी निरखी गापे दास कबीरा | | आयुर्वेद की यह बूटी – तुलसी पत्र गला ( स्वर मंत्र ) के विकार के लीए मूल्यवान औषधि है । आज भी इसका प्रचलन जारी है । सर्दी जुकाम , गला – फासना , आवाज़ भारी होना , खासी शुरुआत , सिर भारी होना , सामान्य ज्वर की हालत के तुलसी पत्र चबाना , उसका काढ़ा , तुलसी पत्र का रस मधु के साथ प्रयोग मे लाने से लाभ मिलता है । बाबा ऐसा विचार भी दे रहे है | प्रासंगिक है । ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में हमारा देश समृद्ध रहा है । हम अपने अतीत मे ढूँढे तो पाएँगे की उसमे ज्ञान वैभव का भंडार है । हम जिस वैज्ञानीक युग की महिमा का गीत गाते है या विकसित युग मानते है , मात्र भौतिक है । पुरातन संस्कृति की मात्रा एक अंश – सुखोपभोग जुटाने , उसकी उपलब्धि पाने , खाने , खजाने , विलासिता का भोग उपलब्ध कर उसका आनंद लेने एवं मात्र उसी की सुरक्षा मे जीवन खपा देने भर का | इसे आज हम उपभोक्तावाद कहते है । ध्यान से देखे तो सुख के साधन है , किंतु सुख और शांति की जगह डरनता और अशांतिकरी हम जी रहे है । हमने वही जुटाया है जो हमारे काम नही आसकता | हम ज्ञान के प्रकाश मे नही , भोगो की भंगिमा मे जी रहे है । धन के अहंकार मे जी रहे है । रोगो के कष्ट के बीच जी रहे है । श्मनो के बीच डर जी रहे है । विविध आशंकाओ मे घिरे अशांत अनुभव करहे है । संतुलन खो बैठे है तो ज्ञान भी हमे भ्रमित करहा है । वह मन शुचिता न ही देह को बाहर से धोने के लिए , साबुन , सैनीटाइजर , मास्क और मानव होकर मानव को सहायक न मान उनसे दुराब रखना ही स्वास्थ्य का विकल्प दिख रा है । परिवार से दूरी बनाकर सुख की कामना करना कितना उचित कितना अनुचित ? सुप्रीम कोर्ट ही बतलाए !
यह तो मैने सबकी कही | अगर भारतवासीयो और इनकी सरकार की बात लाए तो एक बात और खरी उतर रही है की साठ के दशक से हमारा शैक्षिक , नैतिक और सामाजिक परिवेश और परिदृश्य मे आर्थिक विकास जो आया हो , स्मार्ट बने हो | गुणात्मक रूप से हमारा कदम गिसा पिच्छरता ही जराहा है । हाँ कहते ज़रूर है की हम अपने उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ रहे है । अभी देख भी रहे है की अपना वर्तमान क्या है – दिख नही रहा | यह ज़रूर दिख रहा है की । अच्छा दिन आने वाला है – ” कोरोना के आलोक मे झंकार देखे | क्या ? . . . यही की हाँ दुनिया से कदम मिलाकर चल रहे है ? वैश्विक बने है ।

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