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 कृषि कानून और कृषक

डॉ. जी. भक्ता

 भारत के कृषि प्रधान देश कहलाने पर भी आज किसान अपने आपको आनाद्रित अनुभव कर रहे हैं । जबकि देश स्वतंत्र है और जनतंत्रात्मक संविधान लागू है । कृषकों के समस्या और उनकी मांगें ऑवश्य अपना महत्व रखती होंगी । उनके प्रति सरकार का ध्यान , समाधान , विधान और निदान भी कुछ महत्व रखेगा । ऐसा विचार कर देखा जाए तो देश की प्रतिशत आबादी जब किसान नाम से जानी जाती है , जिसमें छोटे से बड़े किसान तक आते हैं , वे कृषि पशुपालन एक साथ करते , अन्न उत्पादन एवं कृषि कार्य में योगदान पाकर देश को खाद्यान्न , फल फूल , दाल , तेल , मशाले , सब्जी और औषधियाँ उत्पादन कर आहार , ऊर्जा और पुष्टि सहित स्वास्थ्य प्रदान करते हैं । धरती पर अगर उत्पादन की भूमिका में कोई है तो किसान हीं , शेष कोई पेशा तो पूरक बनती है । जिनका कथन है कि किसान देश की आधी अर्थव्यवस्था का आधा हिस्सा पूरा करते हैं , वे कृषकों को यह कहकर अपमान नहीं करते हैं ।

 अगर इस तथ्य पर प्रतिक्रिया की जाए तो वह शोभा नहीं देगी कि सरकार कृषकों को सकारात्मक रूप में सहायता करती समय पर सुगम और सुलभ तरीके से उचित मूल्य पर कृषि यंत्र बीज , खाद , उर्वरक एवं पौध – अन्न संरक्षक दवाएँ उपलब्ध कराती तथा कृषक को उत्पादन पर उचित लाभ दिलाने के लिए मूल्य का सीधा लाभ पाने संबंधी कृषि कानून बना पाती , व्यवसायियों एवं विचौलियों द्वारा उनका शोषण सदा के लिए समाप्त कर दिया जाता ।

 पुनश्च कृषि को उद्योग मूलक स्वरूप देने की दिशा में ग्रामीण ढांचा तैयार कर उससे विशेष क्षेत्र प्रदान कर उत्पादन प्रसंस्करण एवं विषण की नीति बनाकर लाभुक को प्रोत्साहन दिलाती तो बेरोजगारी एवं पलायन पर रोक लगती । विडंबना है कि आज कृषक प्राकृतिक विपदा से जितनी तबाही पाते हैं उतना ही उत्पाद और उसके विषमन व्यवस्था का भार पड़ता है । किसान अपने लागत से उत्पाद की कम कीमत पाकर पिछड़ते और हतोत्साहित होते हैं । वैसे में वे खाधान्न न उगाकर उसे सहायक क्षेत्र प्रदान करने के लिए जब वे वाध्य होते हैं तो देश में खाधान्न की कमी होती है ।

 इस प्रकार कृषकों के साथ एक प्रकार से अत्याचार माना जाए तो कहना बुरा न होगा । जैसे अंग्रेजों द्वारा गन्ना उत्पादकों के साथ बर्ताव किया जाता था एवं अन्य उत्पादकों को नील उपजान के लिए बाध्य किया जाता था । अगर कृषि पर से व्यवसायियों द्वारा शोषण को हटाकर प्रत्यक्ष व्यापार को सुलभ और सुगम बनाया जाता तो स्वाभाविक रूप से किसानों की माली हालत सुधर पाती । भारत में कृषि और उद्योग को खुले तौर पर प्रोत्साहन किया जाता अथवा उन्हें औद्योगिक विकास को श्रेय देकर मशीनों की जगह नौकरी दी जाती तो बेरोजगारी मिटने के साथ – साथ प्रदूषण भी कम और ऊर्जा की बचत होती । इससे श्रम सेवा को महत्व दिए जाने से उन्हें सम्मान भी मिलता । गरीबी घटती और स्वालंबन या आत्मनिर्भर भारत का नाम सार्थक हो पाता ।

 आज भारत की आबादी का अधिकांश भाग आर्थिक विषमता का दंश झेल रहा है उसका कारण जनसंख्या के साथ उपेक्षा का भाव माना जा सकता है । श्रम को राष्ट्र की पूंजी न मानकर एवं अनुदान देकर उसे भार मानना एवं आरामदेह और कमजोर बनाना है । क्यों ना कहा जाए कि यह समस्याएँ सचमुच देश की समृद्धि में बाधक के साथ जनतंत्र की आधार शिला को कमजोर बनाने का भाव परिलक्षित करता है।

डॉ. जी. भक्ता

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